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भय की स्मृति है!

।।दर्शक।। बिहार के बदलते गांव-1 पिछले दिनों हम औरंगाबाद के महथू गांव में थे. ओबरा बाजार से सटा हुआ गांव. आसपास के मौजूदा माहौल पर चर्चा हो रही थी. बीच बात में गांव के एक आदमी ने कहा, 10-15 वर्ष पहले हमारे गांव के ‘दालान’ खत्म हो गये थे. अब दालान वापस मिल रहे हैं. […]

।।दर्शक।।

बिहार के बदलते गांव-1

पिछले दिनों हम औरंगाबाद के महथू गांव में थे. ओबरा बाजार से सटा हुआ गांव. आसपास के मौजूदा माहौल पर चर्चा हो रही थी. बीच बात में गांव के एक आदमी ने कहा, 10-15 वर्ष पहले हमारे गांव के दालान खत्म हो गये थे.

अब दालान वापस मिल रहे हैं. हम फिर इसे खोना नहीं चाहेंगे. कह बैठा, गांव में दालान (गांव में हर घर पर होनेवाला बैठका) तो हैं ही. उन्होंने समझायादालान का अर्थ महज ढांचा नहीं होता. 10 वर्ष पहले गांव के हर घर से दालान उजड़ गये थे. दालान यानी जहां शाम या खाली समय में गांव के 10-20 आदमी इकट्ठा होते हैं. जरूरत के अनुसार भी और बिना जरूरत भी.

गपशप होता है. सुखदुख की बात. गांवइलाके की चर्चा. पर, अपराध का आतंक इस कदर बढ़ा कि शाम होते ही लोग घरों में बंद हो जाते. इस तरह बैठका या दालान उजड़ गये थे. आसपास के अस्पताल महज पोस्टमार्टम घरों में तब्दील हो गये थे. स्कूल और कॉलेज फॉर्म भरने या रजिस्ट्रेशन कराने के अड्डे भर रह गये थे. लेकिन, पिछले सातआठ सालों में हालात बदले हैं.

सबसे बड़ा बदलाव है कि अब भय खत्म है. ऐसा नहीं है कि अपराध या घटनाएं नहीं हो रहीं. लेकिन, अब अपराध या घटना की जांच होती है. एफआइआर होती है. पुलिसप्रशासन व्यवस्था के अंग होते हैं, यह दिखता है. यह सही है कि शिथिलता भी है. अफसर बेलगाम हैं. पर, काम तो हो रहे हैं. सड़कों का जाल बिछा है. हालांकि, काम का खर्च बढ़ गया है. चूंकि भ्रष्टाचार बढ़ा, तो अफसरों ने लागत बढ़ा दी है.

यह है, औरंगाबाद के गांवों में आये बदलावों के निष्कर्ष. गांव के लगभग हर वर्ग के लोग जमा थे. उस गांव के अलावा आसपास के गांवजवार के कुछ लोग भी थे, अलगअलग पार्टी के समर्थक. पर, अमूमन इन बातों पर सब एकमत थे. अब गांव के लोग भय से मिली अपनी आजादी, दोबारा खोने को तैयार नहीं. वे कहते हैं, नीतीश कुमार से कोई निजी नाराजगी नहीं है. वह खुद काम कर रहे हैं.

उसका असर जमीन पर भी दिख रहा है. बेरोजगारों के लिए नौकरी के साथसाथ स्वरोजगार के द्वार खुले हैं. पर, भ्रष्टाचार बढ़ा है. अफसर इसके दोषी हैं. इसलिए लोग मानते हैं कि इस पर नियंत्रण के लिए अब जनता को और जगना होगा. वे कहते हैं कि अब अस्पताल में कमसेकम काम तो हो रहा है. पहले की तरह सिर्फ पोस्टमार्टम घर भर नहीं हैं.

स्कूलकॉलेज नियमित खुल रहे हैं. पहले ये फॉर्म भरने या रजिस्ट्रेशन कराने के अड्डे भर रह गये थे. अब शिक्षक रहे हैं. यह अलग बात है कि शिक्षा में कई गंभीर परेशानियां हैं, पर ये अचानक दूर भी नहीं हो सकतीं.

पूछता हूं, किस पार्टी के पक्ष में आम जनमत है? लोग कहते हैं, देखिए जहां तक हमारे इलाके का सवाल है, अलगअलग दलों के होते हुए भी हममें से कोई दोबारा पुराने दिनों की वापसी नहीं चाहता. फिर पूछता हूं, गांव की उन सरकारी योजनाओं के बारे में बताइए, जिनके माध्यम से हालात बदलने की कोशिश हो रही है.

लोग गिनाते हैं, इंदिरा आवास, मनरेगा, मध्याह्न् भोजन, आंगनबाड़ी, कृषि लोन, जनवितरण प्रणाली, सर्वशिक्षा अभियान वगैरह. एकएक की अच्छाईबुराई के बारे में उनसे सुनना चाहता हूं. उन्हीं के शब्दों में. संभव है, कोई तकनीकी या शब्दावली में चूक या गलती हो. पर, इस रिपोर्ट में दर्ज तथ्यभाव गांव के लोगों के हैं.

सूचनानुसार इंदिरा आवास योजना अच्छी तरह चल रही है. उसमें कड़ाई है. बिचौलिये लगभग गायब हैं. पैसा सीधे लाभुक को मिलता है. इसमें सख्त मॉनीटरिंग है. कृषि लोन भी मोटामोटी ठीक है. डीजल सब्सिडी में गड़बड़ी है. ट्रैक्टर, छिड़काव औजार, पंपसेट, हार्वेस्टर, बीजबुआई के यंत्र मिलते हैं. इसमें अनुदान ठीकठाक है. इससे खेती को लाभ है. जनवितरण प्रणाली भी ठीकठाक है.

अब लाभुक जागरूक हो गये हैं. काम छोड़ कर अनाज लेने जाते हैं. बीपीएललाल कार्डधारी को चावल मिलता है, तीन रुपये किलो. कुछ फ्री भी. इस दर पर वह खरीदता है. जरूरत भर रखता है, बाकि खुले बाजार में बेच देता है. मनरेगा में घोर भ्रष्टाचार है. एक परिवार में पांच लोग हैं, तो सबके जॉब कार्ड बने हैं.

एकदो आदमी काम करने जाते हैं. जॉब कार्ड का लेनदेन होता है. फर्ज करिए, परिवार में पांच आदमी हैं. एकदो आदमी काम पर गये. बाकी तीन कार्ड ऐसे ही दे दिये, ठेकेदार को. उनसे एकडेढ़ आदमी का पैसा ले लिया. बिना काम किये मुफ्त मजदूरी मिली. बाकी पैसा ठेकेदार या इंचार्ज ने कमा लिया. यह है मनरेगा का लोकप्रिय गणित.

फिर गांव के लोग ही बताते हैं कि इस राज्य सरकार के कार्यकाल में आर्थिक सशक्तीकरण के कदम उठे हैं. पूछता हूं, आर्थिक सशक्तीकरण से क्या मतलब है? गंवई भाषा में लोग कहते हैं, कक्षा एक से 10 तक के सभी बच्चों को वजीफा मिला है. मातापिता की नजर में बच्चे ही उनके भविष्य हैं.

धन हैं. जो आदमी बच्चों के भविष्य के लिए कदम उठाता है, स्वाभाविक रूप से वह मांबाप की सहानुभूति भी जीतता है. बच्चों के ड्रेस और साइकिल की बात है. अल्पसंख्यक बच्चों के लिए वजीफा का प्रावधान है. लोग बताते हैं कि दलितमहादलित के बीच भी एक मानसिक उत्साह है.

उनके टोले पर झंडा फहराने का काम उनके सबसे बुजुर्ग को मिला है. बीडीओ इसके इंचार्ज होते हैं. इस खर्च के लिए पांच सौ रुपये का प्रावधान है. रेडियो, पोशाक और बच्चों के ड्रेस की चर्चा होती है. बुनियादी शिक्षा के साथ तकनीकी शिक्षा को जोड़ कर, दलितमहादलित और अल्पसंख्यक को इनसे जोड़ने का काम हो रहा है. इस तरह गांववालों के ठेठ अंदाज में ये सारे काम समाज की आर्थिक गतिविधियों को बढ़ाने से ही जुड़े हैं और यह हो रहा है.

सोचता हूं, आज से कुछेक दशक पहले बिहार में सामाजिक कल्याण के ऐसे कामों पर कुछ बिचौलियों और राजनीतिक ताकतों का दबदबा था. उनका प्रभाव रीस कर ही नीचे पहुंचता था. सामान्य लोग तफसील में सरकारी कामकाज की चर्चा नहीं करते थे. पर, अब इन सरकारी कार्यक्रमों की व्यापक लोक जानकारी है.

यह युग बदलाव है. इसके संकेत अब ग्रासरूट पर भी मिलते हैं. दशकों पहले इन इलाकों में घूमा था. तब यहां सामाजिक तनाव चरम पर था. अब भी यह पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है. पर, दिन बदल गये हैं. तब खूनी संघर्ष का माहौल था. आज अर्थ का प्रभाव है. सब आर्थिक प्रगति में हिस्सेदारी चाहते हैं. धरातल पर पहुंचने के बाद एक और फर्क नजर आता है.

जिस समावेशी विकास या सबको साथ लेकर चलने की चर्चा पिछले कुछ वर्षो से बिहार की राजनीति में होती रही है, उसका असर नीचे तक है. लोग कहते हैं कि पहले लगता था कि सरकारें कुछ तबके, वर्ग, समूह या जाति के लिए हैं. पर, यह सरकार कुछ करे या करे, या किसी खास वर्ग या आधार के लिए अधिक कोशिश करे, लेकिन ऊपर से सरकार संकेत देती है कि यह सरकार सबकी है.

सबके लिए है. इससे सामाजिक तनाव धीरेधीरे कम होकर अतीत की चीज बना है. पूछता हूं, आज वोट पड़े, तो किसका पलड़ा भारी? बिना रुके लोग जवाब देते हैं, जो काम कर रहा है, उसका. बीच में पूछता हूं, लालू जी का समर्थन आधार कैसा है? लोग कहते हैं, उनका आधार है. वह भी मजबूत हैं.

गांव के लोग ही अब मानते हैं कि कई जगहों पर सरकार का दोष नहीं है, बल्कि जनता की मुख्य भूमिका है. जनता भी इस चौतरफा लूट की मुख्य भूमिका में है. पूछता हूं, जरा साफसाफ बताइए. एक साथ कई लोग बोल पड़ते हैं. कई चीजें गिनाते हैं. मसलन, आंगनबाड़ी कार्यक्रम. आंगनबाड़ी एक सुंदर योजना है. सुबह छह बजे स्कूल खुलने के आधे घंटे पहले तक बच्चों के रहने की जगह. सामान्यत: एक से 40 बच्चे रखे जाते हैं. पहले उन बच्चों की उम्र तीन से छह वर्ष के बीच होती थी, अब छह से नौ वर्ष तक के बच्चे भी आते हैं.

यह केंद्र एक सेविका और एक सहायिका के भरोसे चलता है. सेविका का दायित्व है, हर घर से बच्चों को लाना. स्वास्थ्य परीक्षण कराना. मनोरंजन के साथसाथ पढ़ने की व्यवस्था करना. खेलखेल में पढ़ाई का बंदोबस्त करना. साथ में गानाबजाना. यानी बच्चों के व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास करना. पर, आंगनबाड़ी की मूल समस्या है, इसकी सेविका या सहायिका प्रशिक्षित नहीं हैं.

गांववालों की नजर में जो स्वयंसेवी संस्थाएं इन्हें प्रशिक्षित करती हैं, उनको खुद व्यावहारिक ज्ञान नहीं है. गांव की समझ नहीं है. अब सरकार के इस सुंदर कार्यक्रम का धरातल पर असल रूप क्या है? जहां अच्छे इनसान हैं, ईमानदार लोग हैं, चरित्रवान हैं, वहां यह संस्था बेहतर है. अन्यथा दूध, फल, हॉरलिक्स, चॉकलेट या पोषाहार बेचने का धंधा इस संस्था का मुख्य काम है.

अब इसी में नयी योजना आयी है. दलितमहादलित वगैरह को जोड़ कर. इसमें सर्वशिक्षा के टोला सेवक भी हैं. हालांकि, आंगनबाड़ी में बहाली के लिए भौगोलिक चौहद्दी तय है. कैसे आंगनबाड़ी में नौकरी पाये, यह मुख्य लक्ष्य है. इससे कितना कमाएं, इसकी होड़ है. जब बड़े पैमाने पर समाज के लोगों में इस बात की होड़ है कि सरकार की अलगअलग योजनाओं से कैसे अधिक कमाएं, तो सरकार की कोई भी अच्छी या सर्वश्रेष्ठ सामाजिक योजना से श्रेष्ठ परिणाम कैसे निकलेगा?

यह लोक मानस कैसे बिगड़ा है. इसका श्रेय भी पिछले 30-40 वर्षो से राजनीति की रहनुमाई करनेवाले बड़े पदों पर बैठे लोगों को है. यह दौर लोभ और लालच का है. बातबात में जनता कहती है कि नेताओं ने लूट कर धन को विदेशों में रखा है.

इसलिए गांवगांव तक आम जनता में इस बात की होड़ है कि वह सरकारी योजनाओं से कैसे जुड़े? खुद धनवान हो. भले ही समाज टूटे या राज्य की दुर्दशा हो. गांव के लोग कहते हैं कि राज्य सरकार भ्रष्टाचारियों के खिलाफ जो आर्थिक या कानूनी कार्रवाई कर रही है. मसलन, छापे वगैरह मार रही है, वह बहुत जरूरी है. इससे अच्छा संदेश जा रहा है. पर, जब यह रोग महामारी हो, तब क्या रास्ता है?

लोगों की यह चर्चा सुन कर मस्तिष्क में यह बात उभरती है कि पिछले 30-40 वर्षो में कैसे भारतीय समाज टूटा है? पहले विदेशी आक्रमणकारी आये, हमने हमले झेले. पर, हमारा समाज टूटा नहीं था. गांव में समाज के पास अंदरूनी ताकत थी. सामाजिक जीवन के सरोकार थे. पंच और पंचायत की भूमिका में न्याय, धर्म, सच और ईश्वर के रूप की चर्चा होती थी.

आज उन सभी प्रतीकों को समाज ने मिटा दिया है, मूल्यों के स्तर पर. इसलिए पूरे देश में और बिहार में भी जरूरत महसूस होती है कि समाज के स्तर पर कोई पुनरुत्थान आंदोलन हो. रेनेसा या मूल्यों को, संस्कारों को या आदमी होने के लिए जरूरी गुणों को तरजीह देने का माहौल.

अच्छी सरकार हो, कर्मठ हो, अपने काम से समाज की दशादिशा बदलनी चाहती हो, उस समय एक अच्छे नैतिक और ईमानदार समाज की भी उतनी ही जरूरत है. सिर्फ अधिकार मांगनेवाले समाज की नहीं. फर्ज समझनेवाले लोगों की भी. अगर आज बिहार में फर्ज समझनेवाला, अपना दायित्व समझनेवाला समाज होता, तो बिहार की आर्थिक प्रगति और तेज होती.

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