राजनीतिक दलों को आरटीआइ के तहत आने का आदेश जारी करने वाले देश के मुख्य सूचना आय़ुक्त सत्यानंद मिश्र 18 सितंबर को सेवानिवृत्त हो गये हैं. मगर उनके योगदान को बरसों तक याद रखा जायेगा. अपनी सेवानिवृत्ति के अगले दिन उन्होंने पंचायतनामा के लिए संतोष कुमार सिंह से विशेष बातचीत करते हुए गांव और सूचना का अधिकार के मसले पर कई पहलुओं पर अपनी राय जाहिर की है. पेश है इस बातचीत के प्रमुख अंश:
आम जनता खासकर ग्रामीण इलाकों में लोगों की अक्सर शिकायत होती है, उनके द्वारा पूछे गये प्रश्नों का संतोष जनक उत्तर नहीं दिया जाता. अपील दर अपील उन्हें इतना थका दिया जाता है, या इस प्रक्रिया में इतना वक्त निकल जाता है कि लोग थक हार कर बैठ जाते हैं.
हो सकता है कि ऐसा होता हो, लेकिन आरटीआइ कानून की अपनी सीमाएं हैं. इन सीमाओं के पार जाकर आप किसी भी मुद्दे का समाधान नहीं तलाश सकते. होना तो यही चाहिए कि जनता को खुद-बखुद सूचनाएं प्रदान की जायें, ताकि किसी को कोई समस्या न हो. लेकिन यह मानकर बैठने से कि सिर्फ आरटीआइ के जरिए सूचनाएं मांगने मात्र से समस्या सुलझ जायेगी, उपयुक्त नहीं है. आरटीआइ एक टूल है, और इस टूल का विविध प्रकार से इस्तेमाल किया जा सकता है. अपील भी आरटीआइ की प्रक्रियाओं के तहत ही है. कानूनी प्रारूप का हिस्सा है, इसलिए हमें इन प्रक्रियाओं से घबड़ाना नहीं है, बल्कि यह समझना चाहिए कि जो भी सीमित सफलता मिली है, वह इसी प्रारूप के वजह से मिली है. आरटीआइ एक्ट के आठ वर्ष बीत जाने के बाद भी ऐसा लगता है कि ग्रामीण इलाकों की बात तो छोड़ ही दें शहरी क्षेत्र में भी मात्र 20 से 25 फीसदी लोग ही आरटीआइ कानून के सही इस्तेमाल की प्रविधि जानते हैं. ज्यादातर लोगों को प्रक्रियाओं की जानकारी नहीं है.
इसका मतलब यही हुआ कि प्रचार-प्रसार, कार्यशाला, सेमिनार आदि के आयोजन के बावजूद लोगों के पास इस कानून का पुख्ता ज्ञान नहीं है?
देखिए, सब जगह एक जैसी स्थिति नहीं है. ऐसा देखा गया है जिन इलाकों में सिविल सोसाइटी (एनजीओ) की गतिविधियां ज्यादा हैं, लोगों तक इनकी गहरी पहुंच है, उन इलाकों में आरटीआइ के इस्तेमाल की जानकारी ज्यादा लोगों को है. लोग अधिक से अधिक आरटीआइ का इस्तेमाल कर रहे हैं. ये संस्थाएं लोगों को कानून के प्रावधानों के विषय में अवेयर कर रही हैं. लेकिन एनजीओ की सक्रियता के अपने फायदें हैं तो नुकसान भी है. सिविल सोसाइटी आम जनता को आरटीआइ के विषय में जागरूक कर रही है तो उन्हें पंगू भी कर रही है. लोगों को इस बात के लिए प्रेरित किया जाता है कि आप आरटीआइ दाखिल करना चाहते हैं तो मेरे जरिए करें, वैसे में वही सवाल सामने आ पाते हैं जो सिविल सोसाइटी के अनुरूप हों. होना यह चाहिए कि आम जनता को सिर्फ रास्ता दिखाया जाये, उन्हें प्रेरित किया जाया, उन्हें सकारात्मक तरीके से और विवेक पूर्ण तरीके से इसके प्रावधानों के इस्तेमाल के लिए प्रेरित किया जाये.
ऐसे में क्या रास्ता दिखाई देता है? क्या पंचायतें इस दिशा में महत्वपूर्ण साबित हो सकती है?
निश्चित रूप से पंचायतों की इसमें अहम भूमिका है. ग्रामीण इलाकों में आरटीआइ कानून के प्रचार-प्रसार, इसके इस्तेमाल में पंचायतों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है. यह आरटीआइ के इस्तेमाल की महत्वपूर्ण इकाई साबित हो सकती है. सबसे बड़ी बात पंचायतों का दृष्टिकोण व्यापक है और इसकी स्थापना सरकार द्वारा की गयी है. पंचायत दोहरे स्तर पर इस दिशा में काम कर सकता है. एक तो स्थानीय लोगों को आरटीआइ कानून के इस्तेमाल के विषय में जानकारी देगा. साथ ही साथ जिला केंद्र व जिला स्तर पर जुड़े होने के कारण लोगों की समस्याओं और आकांक्षाओं को जिला पंचायत तक पहुंचायेगा. पंचायतों की मजबूती को देखते हुए जिला स्तर पर बैठे जिला अधिकारी और जिला संयोजक को पंचायतों द्वारा उठायी गयी मांग को दरकिनार करना मुश्किल होगा. पंचायत रिसोर्स भी मुहैया करा सकती है, और समस्या के समाधान का जरिया भी बन सकती है. इसलिए पंचायतों की भागीदारी बढ़ाना जरूरी है.
लेकिन भ्रष्टाचार की बेल पंचायत तक अपनी जड़ें फैला चुकी हैं? ऐसे में पंचायत के चुने हुए प्रतिनिधियों से यह अपेक्षा करना कि वे आरटीआइ के जरिए लोगों को अपने ही खिलाफ खड़ा होने के लिए हथियार मुहैया करायेंगे, मुश्किल लगता है?
पंचायत और पंचायत के कामकाज पर नियंत्रण रखने के लिए, उन्हें निर्देशित करने के लिए गांवो में ग्राम सभा भी है. ग्राम सभा एक बहुत ही सशक्त इकाई है. ग्राम सभा का मजबूत होना पंचायती राज व्यवस्था ही नहीं लोकतंत्र के मजबूती का द्योतक भी है. ग्राम सभा के जरिए पंचायतों पर दबाव बनाया जा सकता है. लेकिन अभी भी ग्रामसभाओं को मजबूत नहीं किया जा सका है. ग्राम सभा को कमजोर करने के लिए ग्रामीण भी दोषी हैं. नियमित रूप से ग्राम सभाओं का आयोजन किया जाये, उसमें पंचायतों के कामकाज, बजट आदि के साथ-साथ आरटीआइ की चर्चा हो तो जरूर इसका फायदा होगा.
सरकारी अधिकारी व कर्मचारियों की तरफ से अक्सर यह आरोप लगाया जाता है कि आरटीआइ एक्ट का दुरुपयोग हो रहा है? लोग व्यक्तिगत खुन्नस निकालने के लिए या फिर कभी-कभार ऐसे सवाल भी पूछते हैं, जिनका जनता से कोई लेना देना नहीं है? आप इन आरोपों में कितना सच मानते हैं?
ऐसा नहीं होता यह तो नहीं कहा जा सकता. लेकिन ऐसे मामले कम ही होते हैं. यह कहा जा सकता है कि सिर्फ 5 फीसदी मामलों में ही ऐसा होता है कि लोग उलूल-जुलूल प्रश्न पूछते हैं. कुछ ही लोग ऐसे होते हैं जो सिर्फ लोगों को परेशान करने के लिए प्रश्न पूछते हैं. लेकिन इसके साथ ही यह सवाल उठता है कि आखिर कौन सा ऐसा कानून है जिसका दुरूपयोग नहीं होता.
आरटीआई एक्टिविस्टों को डराने-धमकाने या कभी-कभार उनकी हत्या के मामले भी सामने आते रहते हैं? ऐसे में उनकी सुरक्षा को लेकर बहुत बड़ा सवाल खड़ा हो जाता है?
यह एक बड़ा कठिन मुद्दा है. संसद ने लोगों को आरटीआइ के इस्तेमाल का अधिकार दिया है, अगर इस अधिकार के इस्तेमाल में किसी तरह की बाधा आती है तो यह मूल भावना पर कुठाराघात जैसा है. इससे प्रजातंत्र पर प्रश्न चिह्न लगता है. लेकिन यह एक ऐसा तथ्य है कि इसको प्रमाणित कर पाना मुश्किल साबित होता है. इस बात का दावा नहीं किया जा सकता कि इस अमुक व्यक्ति को इसलिए सताया गया क्योंकि उसने किसी व्यक्ति या अधिकारी के खिलाफ आरटीआई दाखिल किया है. खैर, ऐसी घटनाओं पर लगाम लगाने के लिए ह्विसल ब्लोअर प्रोटेक्शन कानून प्रस्तावित है, अगर यह कानून पारित हो जाता है तो उम्मीद की जा सकती है, कि ऐसे लोगों सुरक्षा मिल पायेगी. उनकी गोपनीयता बनायी रखी जायेगी.
हालांकि राज्य सरकारों की कानून व्यव्स्था को बेहतर बनाने में अहम भूमिका है. बिहार सरकार में मुख्यमंत्री ने मार्च 2012 में ही यह प्रावधान किया है कि ऐसी घटनाओं को अंजाम देने वाले लोगों से निपटने के लिए शिकायत निवारण कक्ष बनाया जायेगा, और इस तरह के मामले अगर सामने आते हैं तो डीजीपी को इसकी जिम्मेवारी दी गयी है. यह भी किया जा सकता है कि लोग समूह में जनहित के मसलों पर आरटीआइ डालें. ऐसा किये जाने पर लोगों की सामूहिक जिम्मेवारी होगी और अगर कोई धमकाने की कोशिश करता है तो वह अपने मकसद में कामयाब नही होगा.
आपने राजनीतिक दलों को पब्लिक ऑथोरिटी मानते हुए उन्हें आरटीआई के दायरे में लाने की बात कही थी, लेकिन राजनीतिक दलों ने एकजुटता दिखाते हुए आरटीआइ एक्ट में अमेंडमेंट के जरिए फेरबदल किया? क्या कहेंगे?
सीआइसी ने आरटीआइ कानूनों के अनुरूप ही यह निर्णय दिया था कि राजनीतिक दलों को आररटीआइ के दायरे में आना चाहिए. हमें यह लगा था कि वे इसे स्वीकार करेंगे, क्योंकि आखिरकार इन्हीं लोगों ने आरटीआइ कानून को अम्लीजामा पहनाया था. लेकिन उनकी प्रतिक्रिया अप्रत्याशित थी. मुङो ऐसा लगता है कि उनमें से ज्यादातर लोग वास्तव में आरटीआइ एक्ट और सीआइसी द्वारा दिये राजनीतिक दलों को पब्लिक ऑथोरिटी मानने के हमारे ऑडर को ठीक से देखा नहीं. यही कारण है कि इसे लेकर अलग-अलग तर्क दिये गये.
किसी ने कहा कि अगर राजनीतिक दलों को आरटीआइ के दायरे में लाया गया तो इससे राजनीतिक दलों का काम करना मुश्किल हो जायेगा. किसी ने तर्क दिया कि वे पहले से ही चुनाव आयोग और आयकर विभाग को ये सारी सूचनाएं मुहैया कराते रहे हैं. आम जनता का नुमाइंदा होने व सिविल सोसाइटी के प्रतिनिधिक संस्था होने के तौर पर इन्हें चाहिए था कि ये सारी सूचनाएं जनता को मुहैया करायें और खुद ही इस पहल को स्वीकार करते हुए आरटीआइ के दायरे में आना स्वीकार करें. आखिरकार आरटीआइ कानून को बेहतर तरीके से चलाने की जिम्मेवारी राजनीतिक दलों की है.