भूमि अधिग्रहण अध्यादेश दोबारा जारी करने के बाद इस हफ्ते संसद में पुन: लाये गये विधेयक पर विवाद तेज होता जा रहा है.
सरकार और उद्योग जगत का तर्क विकास का है, तो इसके विरुद्ध खड़े राजनीतिक दल और किसान संगठन इसे पूंजीपतियों के हित साधन का एक खतरनाक तरीका मान रहे हैं. विपक्ष का कहना है कि देश को आर्थिक अवसरों की आवश्यकता है, लेकिन यह किसानों को नुकसान पहुंचा कर हासिल नहीं किया जा सकता है, वहीं सरकार विधेयक के पक्ष में जनमत तैयार करने का प्रयास कर रही है. इस मुद्दे के विभिन्न पहलुओं पर एक विमर्श आज के समय में..
प्रंजॉय गुहा ठाकुरता
आर्थिक मामलों के जानकार
अब भूमि अधिग्रहण का मुद्दा भावनात्मक के साथ राजनीतिक भी बन गया है. इसलिए सरकार को इस मुद्दे को प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाना चाहिए. सभी दलों की राय लेकर ही इस मुद्दे पर आगे बढ़ने की कोशिश करनी चाहिए
भूमि अधिग्रहण से संबंधित 2013 के कानून में बदलाव के लिए मोदी सरकार ने फिर से अध्यादेश लाया है, जिसे बीते सोमवार को लोकसभा में पेश कर दिया गया. लेकिन यह बदलाव आसान नहीं है, क्योंकि भाजपा के पास राज्यसभा में बहुमत नहीं है. भूमि अधिग्रहण कानून को लेकर विवाद की कई वजहें हैं.
पहला विश्व की कुल जनसंख्या में भारत की हिस्सेदारी 17 फीसदी है और जमीन में हिस्सेदारी महज 2.5 फीसदी. ऐसे में भारत में जमीन काफी कीमती और महत्वपूर्ण है. दूसरा, भले ही कृषि क्षेत्र का जीडीपी में योगदान 15 फीसदी है, लेकिन देश की 50 फीसदी से अधिक आबादी कृषि पर निर्भर है. ऐसे में अधिग्रहण के जरिये किसानों से जमीन ले लेना आम लोगों के लिए एक भावनात्मक मुद्दा है.
ब्रिटिश सरकार ने 1894 में भूमि अधिग्रहण कानून बनाया था और उसके लगभग 120 साल बाद 2013 में एक पूर्णत: नया कानून बना. यह कानून बनाने से पहले 2 साल तक गंभीर चर्चाएं हुईं. सुमित्र महाजन के नेतृत्व में बनी संसदीय समिति ने इस मुद्दे पर अलग-अलग क्षेत्रों के लोगों से चर्चा कर सरकार को 28 सिफारिशें दीं. इनमें से अधिकतर सिफारिशों को यूपीए सरकार ने मान लिया. यह कानून पिछले साल दिसंबर से लागू हो गया. सवाल उठता है कि आखिर एक साल में ऐसा क्या हो गया कि भाजपा सरकार के लिए यह कानून बदलना जरूरी हो गया? इसके लिए सरकार का तर्क है कि कई राज्य के मुख्यमंत्री इस कानून के खिलाफ थे.
तत्कालीन वित्त मंत्री चिदंबरम और आनंद शर्मा के विरोध का भी हवाला दिया गया. लेकिन, जब 2013 में भू अधिग्रहण संबंधी कानून बना था, तब उसमें सभी दलों की सहमति थी. जाहिर है, कानून में बदलाव की वजह दूसरी है. दरअसल, सरकार चुनावों में युवाओं को रोजगार देने का वादा कर सत्ता में आयी है. अब अगर निजी क्षेत्र में नये उद्योग नहीं लगेंगे, तो युवाओं को रोजगार कैसे मिलेगा? इसलिए सरकार विकास के नाम पर कॉरपोरेट सेक्टर की राह आसान करना चाहती है.
सरकार यह कह कर अध्यादेश लाती है कि 2013 के कई प्रावधानों को बदला जाना जरूरी है. लेकिन, 2013 के कानून में भी रेल, सिंचाई, सड़क प्रोजेक्ट के लिए मंजूरी का प्रावधान नहीं था. कहानी दूसरी है. असल में सरकार इसका बहाना बना कर पूरा कानून बदलना चाहती है.
आखिर क्या वजह है कि जमीन मालिकों से सहमति के प्रावधान और सामाजिक असर के आकलन के प्रावधान को हटा दिया गया है? नया कानून बनाने से पहले जनहित के मुद्दे को भी सही ढंग से परिभाषित नहीं किया गया है. यह कैसे तय होगा कि जमीन अधिग्रहण जनहित के लिए हो रहा है? निजी स्कूल और अस्पताल जनहित के लिए तो नहीं हैं. अधिग्रहण से पहले कौन गारंटी देगा कि जमीन का अधिग्रहण जनहित के लिए किया जायेगा? विवाद की वजह यही है.
विवाद के बाद सरकार ने नये अध्यादेश में 9 संशोधन किया है, लेकिन अब भी इस कानून में कुछ कमियां हैं. हालांकि विवाद को देखते हुए सरकार ने जमीन अधिग्रहण से पीड़ित परिवार के एक सदस्य को नौकरी देने का प्रावधान शामिल कर लिया है. सवाल है कि पहले इसे क्यों नहीं जोड़ा गया? देश में बहुत लोगों के पास जमीन नहीं है, लेकिन वे कृषि कार्य से जुड़े हैं. सामाजिक असर का आकलन नहीं होने से उनकी आजीविका का क्या होगा, इसका पता कैसे लगाया जायेगा?
पहले के कानून में भी भारत सरकार के कार्यक्रमों के लिए किसी अनुमति का प्रावधान नहीं था. 2013 के कानून में निजी क्षेत्र के 80 फीसदी और पीपीपी प्रोजेक्ट के लिए 70 फीसदी अनुमति का प्रावधान किया गया था. निजी क्षेत्र के लिए सरकार द्वारा जमीन अधिग्रहण करना ही सबसे विवादित मुद्दा बन जाता है. निजी क्षेत्र अगर खुद जमीन का अधिग्रहण करे तो विवाद खत्म हो जायेगा. सरकार चार गुणा मुआवजे की बात कर रही है.
लेकिन अधिकतर जगह लोग स्टैंप डय़ूटी बचाने के लिए कम कीमत पर जमीन की खरीद-बिक्री करते हैं. ऐसे में मुआवजे का फायदा लोगों को नहीं मिलनेवाला है. सरकार के सामने अब और समस्या खड़ी हो गयी है. बेमौसम बारिश के कारण रबी की फसल को काफी नुकसान पहुंचा है. इस प्रतिकूल माहौल में भूमि अधिग्रहण कानून लाना राजनीतिक तौर पर भी सही नहीं है.
मोदी सरकार के भूमि अधिग्रहण कानून के कारण विरोधी एकता मजबूत हुई है. तृणमूल कांग्रेस और वामदल इसके खिलाफ एक साथ हैं. सपा, बसपा भी इसके विरोध में हैं. यहां तक कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जुड़े भारतीय मजदूर संघ और स्वदेशी जागरण मंच भी इस कानून का विरोध कर रहे हैं. सोचना चाहिए कि आखिर इनके विरोध का क्या कारण है?
अब मोदी सरकार के सामने दो रास्ता है. पहला या तो सहमति के प्रावधान को लागू किया जाये, भले ही इसे 40-50 फीसदी कर दिया जाये और सामाजिक असर के आकलन को माने. दूसरा संसद का संयुक्त अधिवेशन बुलाकर इसे पारित करे. अन्नाद्रमुक और बीजद के सहयोग के बावजूद राज्यसभा से इसे पारित नहीं किया जा सकता है. भारत के संसदीय इतिहास में सिर्फ तीन बार ही कानून पास करने के लिए संयुक्त अधिवेशन बुलाया गया है. पहला, 1961 में दहेज निवारण अधिनियम पास कराने के लिए, दूसरा 1978 में बैंकिग सेवा आयोग का निरसन और तीसरा, 2002 में पोटा कानून पारित कराने के लिए. लेकिन राजनीतिक तौर पर सरकार का यह कदम आनेवाले समय में नुकसानदेह साबित हो सकता है.
इससे विपक्षी एकता मजबूत तो होगी ही, सरकार के लिए अन्य कानून को पारित कराने में भी दिक्कत आयेगी.
अब भूमि अधिग्रहण का मुद्दा भावनात्मक के साथ राजनीतिक भी बन गया है. इसलिए सरकार को इस मुद्दे को प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाना चाहिए. सभी दलों की राय लेकर ही इस मुद्दे पर आगे बढ़ने की कोशिश करनी चाहिए.
विनय तिवारी से बातचीत पर आधारित
नये अध्यादेश में प्रमुख संशोधन
केंद्र सरकार की ओर से संशोधित भूमि अधिग्रहण बिल बीते सोमवार को लोकसभा में पेश किया गया. इससे पहले भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास एवं पुनस्र्थापना में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार (संशोधन) विधेयक लोकसभा में पारित हो चुका था. इसे सरकार ने पिछले साल दिसंबर में अध्यादेश के जरिये लागू किया था. लेकिन राज्यसभा में इस विधेयक का तीखा विरोध हुआ, जहां सत्ता पक्ष को बहुमत नहीं है. ऐसे में सरकार ने पिछले दिनों संशोधित भूमि अधिग्रहण विधेयक को फिर से अध्यादेश के जरिये लागू किया था. मोदी सरकार के पहले के अध्यादेश में किये गये प्रमुख संशोधन इस प्रकार हैं
भूमि अधिग्रहण कानून, 2013 तथा भूमि अधिग्रहण विधेयक, 2015 में महत्वपूर्ण अंतर :
नये विधेयक में निम्न श्रेणियों में किसानों की सहमति आवश्यक नहीं है- रक्षा, ग्रामीण इंफ्रास्ट्रक्चर, सस्ते आवास, औद्योगिक गलियारा, और पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप योजनाओं समेत इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाएं जिनमें जमीन का मालिकाना केंद्र सरकार के पास हो; जबकि 2013 के कानून में प्रावधान था कि पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत आनेवाली परियोजनाओं के लिए 70 फीसदी तथा निजी क्षेत्र की परियोजनाओं के लिए 80 फीसदी जमीन मालिकों की सहमति अनिवार्य है.
भूमि अधिग्रहण कानून, 2013 में अधिग्रहण से पहले प्रभावित परिवारों की पहचान करने तथा परियोजना के संभावित सामाजिक प्रभाव के आकलन की व्यवस्था थी. उक्त कानून में सिंचित बहुफसलीय भूमि तथा कृषि भूमि के अधिग्रहण से संबंध में कुछ अनिवार्य शर्ते रखी गयी थीं, परंतु प्रस्तावित विधेयक में इन सीमाओं को सिरे से हटा दिया गया है, हालांकि संशोधित विधेयक में सामाजिक आकलन की बात मान ली गयी है.
पूर्ववर्ती कानून में प्रावधान था कि सिर्फ वैसी कंपनियां ही निजी योजनाओं के लिए जमीन लेने की अनुमति प्राप्त कर सकती हैं जो कंपनी एक्ट, 1956 के सेक्शन तीन के तहत पंजीकृत होंगी. लेकिन 2015 के विधेयक में व्यवस्था है कि कोई भी निजी संस्था, जो कि स्वयंसेवी या अन्य संस्था के साथ काम कर रही हो, निजी व्यवसाय के लिए जमीन प्राप्त कर सकती है.
पहले के कानून में स्पष्ट कहा गया था कि अगर अधिग्रहित भूमि पांच वर्षों तक बिना उपयोग के खाली पड़ी रहती है, उसे जमीन के मालिक के पास या भूमि बैंक को वापस कर दिया जायेगा. भूमि अधिग्रहण विधेयक, 2015 में इस नियम को पूरी तरह हटा दिया गया है.
पूर्व कानून में कहा गया था कि अगर सरकार कोई अपराध करती है, तो इसके लिए संबंधित विभाग के प्रमुख को जिम्मेवार माना जायेगा. उसे तभी दोषमुक्त माना जाता, जब वह अपनी अनभिज्ञता सिद्ध कर देता या यह साबित हो जाता कि उसने अपराध को रोकने की पूरी कोशिश की थी. नये विधेयक में ऐसे मुकदमे शुरू करने से पहले सरकार की अनुमति को आवश्यक बना दिया गया है.
मूल कानून में अधिग्रहित भूमि में से विकसित भूमि का 20 फीसदी प्रभावित लोगों के लिए आरक्षित रखने का प्रावधान है, पर नये विधेयक में इस संबंध में विशेष व्यवस्था नहीं की गयी है.
सिर्फ आधा फीसदी किसानों के पास है 10 एकड़ से ज्यादा जमीन
सेंटर फॉर स्टडीज ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएसडीएस) द्वारा 2013 के आखिर में 5,480 किसानों के बीच कराये गये सर्वेक्षण के अनुसार 62 फीसदी किसान वैकल्पिक रोजगार की स्थिति में खेती छोड़ने के इच्छुक हैं. 37 फीसदी किसान अपने बच्चों को खेती में नहीं लाना चाहते हैं.
हर किसान परिवार के ऊपर औसतन 47 हजार रुपये का कर्ज है. ग्रामीण परिवारों का 59 फीसदी हिस्सा भूमिहीन है. 28 फीसदी के पास आधे हेक्टेयर से कम जमीन का मालिकाना है. यही कारण है कि 87 फीसदी ग्रामीण आबादी खेती पर अपनी निर्भरता से उबरना चाहती है. किसानों की मात्र आधी फीसदी आबादी के पास 10 हेक्टेयर से अधिक जमीन है. इन्हीं किसानों पर भूमि अधिग्रहण का सर्वाधिक असर पड़ना संभावित है.
किसानों की बदहाली बढ़ायेगा यह अध्यादेश
मधुरेश कुमार
राष्ट्रीय समन्वयक
नेशनल एलायंस ऑफ पीपुल्स मुवमेंट
गहराते कृषि संकट से निपटने के लिए सरकार को तुरंत कारगर कदम उठाना चाहिए और भू अधिग्रहण संबंधी अपना अध्यादेश वापस लेना चाहिए. यही एकमात्र उपाय है, जो आसन्न हिंसक और विस्फोटक स्थिति को रोक सकता है
तमाम विरोधों के बावजूद मोदी सरकार ने किसान-मजदूर विरोधी भूमि अधिग्रहण विधेयक को फिर से 3 अप्रैल को अध्यादेश के जरिये लागू किया. देशभर से उठी विरोध की आवाजों और दिल्ली चुनावों में भाजपा की करारी हार से लोगों को लगा था कि सरकार के तेवर कुछ ढीले पड़ेंगे, लेकिन सरकार ने इसे लागू कराने की ठान ली है. इसे पिछले सोमवार को फिर से संसद में पेश कर दिया गया है.
1894के भूमि अधिग्रहण अधिनियम के अंतर्गत जबरन,अनुचित और अन्यायपूर्ण तरीके से जमीन अधिग्रहण के कड़वे अनुभवों के आधार पर, विविध जन आंदोलनों के जरिये लंबे संघर्ष के बाद, भूमि अधिग्रहण,पुनर्वास और पुनस्र्थापन अधिनियम, 2013मेंसमुचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार संसद द्वारा अधिनियमित किया गया था. एक दशक तक चले अभूतपूर्व देशव्यापी परामर्श,संसद में और बीजेपी के नेतृत्ववाली दो स्थायी समितियों में बड़े पैमाने पर बहस के बाद ही 2013का अधिनियम बना था.
उस वक्त वर्तमान स्पीकर और स्थायी समिति की अध्यक्ष सुमित्र महाजन के साथ बीजेपी खुलकर इस कानून के प्रावधानों का समर्थन कर रही थी. पूरे 2014 में सरकार ने 2013 के अधिनियम का कहीं भी उपयोग नहीं किया, अलबत्ता किसानों ने धारा 24 का उपयोग कर न्यायालयों से अपने हक की जरूर प्राप्ति की. इससे साफ जाहिर होता है कि मोदी सरकार का अध्यादेश गरीबों के विकास के लिए नहीं, इंडस्ट्री के झूठे संशय के आधार पर लाया गया है. ‘मेक इन इंडिया’ और ‘स्मार्ट सिटी’ बनाने के लिए रास्ता आसान करने की यह एक नाकाम कोशिश है, क्योंकि इससे बात बनेगी नहीं. आज भाजपा और उसकी सरकार के नुमाइंदे झूठे प्रचार में लगे हैं कि यह अध्यादेश किसान विरोधी नहीं है.
सरकार ने 2014 के अध्यादेश में संशोधन का ड्रामा भी किया है. इसे ड्रामा ही कहेंगे, क्योंकि इसमें किये गये संशोधन कागजी हैं और 2013 के कानून के मूल उद्देश्यों को खारिज करते हैं. 2013 का कानून कहीं न कहीं खेती की जमीन का हस्तांतरण, खाद्य सुरक्षा की अनदेखी, लोगों की जीविका खत्म करना, जबरदस्ती भूमि अधिग्रहण, अधिग्रहित भूमि को किसानों को वापसी आदि जैसे मुद्दों को कुछ हद तक संबोधित करता था.
सरकार जानती है कि जमीनें पीढ़ी दर पीढ़ी आजीविका मुहैय्या कराती हैं और मुआवजा कभी भी वैकल्पिक आजीविका नही दे सकते. यह सभी जानते हैं कि जब भारत में कृषि योग्य जमीनें व किसान नहीं बचेंगे, तो देश खाद्यान्न के मामले में ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका जैसे देशों पर निर्भर हो जायेगा.
साथ ही जमीन से जुदा हुए भूमिहीन किसान और खेत मजदूर तथा ग्रामीण दस्तकार, छोटे व्यापारी देश के नक्शे से धीरे-धीरे गायब हो जायेंगे. जमीनों के चार गुना मुआवजा देकर अधिग्रहण की बात कर रहे प्रधानमंत्री मोदी अपने आप को किसानों का बड़ा हितैषी बता रहे हैं, जबकि सच्चाई यह है कि भाजपा शासित राज्यों की सरकारें अति उपजाऊ जमीनों का भी मुआवजा मात्र दो से ढाई गुना पर निपटा रही हैं.
आज पूरे देश में एक ओर लाखों एकड़ जमीन सरकारी लैंड बैंक में मौजूद है, मसलन महाराष्ट्र सरकार के पास 2 लाख एकड़, मध्य प्रदेश में 30 हजार एकड़ आदि. सरकार के पास इस बात के पक्के आंकड़े नहीं हैं कि कितनी जमीन का अधिग्रहण किया गया है, उसमें कितनी अभी आवंटित नहीं हुई है. दूसरी ओर आधी से ज्यादा आवंटित भूमि पर लगे कारखाने बंद पड़े हैं या फिर बीमार है.
इस बात का भी पुख्ता आंकड़ा उपलब्ध नहीं है कि अधिग्रहण से कितने लोग विस्थापित हुए और उनमें से कितनों को पुनर्वासित किया गया है. मोटे अनुमानों के आधार पर आजादी के बाद से भू अधिग्रहण से 6 से 8 करोड़ लोग विस्थापित हुए हैं, जिनमें से मात्र 17 फीसदी को कुछ हद्द तक पुनर्वासित किया गया है. ऐसे में किसान और मजदूर सरकार के विकास के दावों को कैसे मान ले, यह सवाल खड़ा होता है.
अभी मार्च महीने में हुई बेमौसम बरसात और खराब मॉनसून की घोषणा सिर्फ एक ही बात की और इशारा करता है कि देश में बड़ी तबाही मचनेवाली है. पिछले तीन महीनों में ही 600 से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं और यह रफ्तार थमती नहीं दिखती. ऐसा लगता है जैसे सरकार एक घोर कृषि संकट के माध्यम से जबरदस्ती लोगों को खेती से हटाना चाहती है. 2007 में जब 113 साल बाद 1894 के कानून को बड़े पैमाने पर बदलने के लिए यूपीए सरकार ने पहल की थी, उस समय पूरे देश में आंदोलन की आग फैली हुई थी- नंदीग्राम, सिंगूर, कलिंगनगर आदि. लगता है वैसी ही स्थिति देश में फिर से आनेवाली है.
देश में गहराते कृषि संकट से निपटने के लिए सरकार को तुरंत कारगर कदम उठाना चाहिए और भू अधिग्रहण संबंधी अपना अध्यादेश वापस लेना चाहिए. यही एकमात्र उपाय है, जो आसन्न हिंसक और विस्फोटक स्थिति को रोक सकता है.
भूमि अधिग्रहण अध्यादेश से जुड़े महत्वपूर्ण दस्तावेज छुपा रही है मोदी सरकार?
केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रलय ने भूमि अधिग्रहण अध्यादेश, 2014 से संबंधित फाइल नोटिंग और पत्रचार को सार्वजनिक करने से मना कर दिया है. ओपेन सोसायटी इंस्टीट्यूट की फेलो चित्रंगदा चौधरी ने सूचना का अधिकार कानून (आरटीआइ एक्ट) के तहत ये सूचनाएं मांगी थी.
मंत्रलय ने अपने जवाब में लिखा है कि इस अध्यादेश से जुड़ी फाइल नोटिंग और पत्रचार के अनेक हिस्से आरटीआइ एक्ट के सेक्शन आठ (एक) में उल्लिखित व्यवस्था के तहत साझा करने की अनिवार्यता से मुक्त हैं और उन्हें उपलब्ध नहीं कराया जा रहा है. चौधरी के अनुसार, मंत्रलय ने अपने जवाब में छूट का उल्लेख तो किया है, लेकिन यह नहीं स्पष्ट किया है कि उक्त सेक्शन के 10 छूटों में से किस छूट के आधार पर अध्यादेश की सूचनाएं नहीं उपलब्ध करायी जा रही हैं.
कानून के मुताबिक वे सूचनाएं जिनके सार्वजनिक करने से देश की संप्रभुता व अखंडता, सुरक्षा, वाणिज्यिक क्षमता, व्यापारिक गोपनीय सूचनाएं या बौद्धिक परिसंपत्ति आदि पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है, जारी नहीं की जा सकती हैं. लेकिन इसमें यह भी कहा गया है कि जिन आधारों पर मंत्रिपरिषद निर्णय लेती है, उन्हें अंतिम निर्णय के बाद सार्वजनिक किया जाये.