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भारतीय रेल : कायाकल्प के लिए नयी सोच और राजनीतिक इच्छाशक्ति जरूरी

भारतीय जन-जीवन की आर्थिकी से लेकर सांस्कृतिक परिदृश्य तक भारतीय रेल एक सतत महत्वपूर्ण आधार और उपस्थिति है. इसीलिए उसकी अव्यवस्था और बदहाली राष्ट्रीय चिंता है. उसकी बेहतरी को लेकर बहसें घरों, नुक्कड़ों और ट्रेनों से लेकर संसद तक होती रहती है. मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल का अभी एक साल भी पूरा नहीं किया […]

भारतीय जन-जीवन की आर्थिकी से लेकर सांस्कृतिक परिदृश्य तक भारतीय रेल एक सतत महत्वपूर्ण आधार और उपस्थिति है. इसीलिए उसकी अव्यवस्था और बदहाली राष्ट्रीय चिंता है. उसकी बेहतरी को लेकर बहसें घरों, नुक्कड़ों और ट्रेनों से लेकर संसद तक होती रहती है.
मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल का अभी एक साल भी पूरा नहीं किया है, लेकिन रेल मंत्रलय का जिम्मा दो मंत्री संभाल चुके हैं. वर्तमान मंत्री सुरेश प्रभु ने रेल की दशा सुधारने के इरादे से कई समितियां बनायी हैं. कुछ प्रमुख समितियों की सिफारिशों पर आधारित है यह विमर्श आज के समय में..
अरविंद कुमार सिंह
पूर्व सलाहकार भारतीय रेल
तमाम समितियां रेलवे में कर्मचारियों की भारी अधिकता बता रही है, लेकिन यह गलत है. 1991 में 18.7 लाख रेल कर्मचारी थे, जो अब घट कर 13 लाख हो गए हैं. 2.85 लाख पद खाली पड़े हैं जिसमें डेढ़ लाख तो बेहद जरूरी संरक्षा श्रेणी से हैं. काम का बोझ कई गुना बढ़ गया है और ट्रेनों की संख्या तीन गुना हो गयी है.
तमाम चुनौतियों से जूझ रही भारतीय रेल को पटरी पर लाने के लिए रेल मंत्री सुरेश प्रभु फिलहाल समितियों के बीच में उलङो हुए हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रेलवे का कायाकल्प चाहते हैं और उसे देश की जीवनरेखा बताते हुए कई बैठकों में रेलवे को चाक-चौबंद करने की हिदायतें दे चुके हैं. सुरेश प्रभु को प्रयोगों का अधिकार भी दिया गया है.
रेल मंत्री भी हर संभव उपाय आजमा रहे हैं. कई नामी लोगों को वे सलाहकार बना रहे हैं और अनेक समितियां बना कर विभिन्न पहलुओं की पड़ताल कर रहे हैं. वे ट्रेड यूनियनों के साथ सहमति बनाने की कोशिश भी कर रहे हैं. वहीं रेलवे की संबंधी स्थायी संसदीय समिति रेल की दशा और दिशा को संतोषजनक नहीं मान रही है.
रेल मंत्री उद्योगपतियों को भरोसा दे रहे हैं कि उनके लिए निवेश की बाधाओं को समाप्त किया
जायेगा. हालांकि वे अपने हर भाषण में निजीकरण की संभावनाओं को खारिज कर रहे हैं, लेकिन निजी पूंजी को जरूरी भी बता रहे हैं.
उनके द्वारा गठित समितियों में एक के अध्यक्ष इ श्रीधरन ने कहा है कि शायद ही रेलवे के मुकाबले किसी और भारतीय संस्था ने इतनी ज्यादा समितियां बना कर समीक्षा की होगी, लेकिन विडंबना यह है कि सारी सिफारिशें आज भी धूल फांक रही हैं. हाल में बिबेक देबरॉय समिति की अंतरिम रिपोर्ट ने रेलवे के शांत माहौल को खास गरमा दिया है.
समिति की राय में रेलवे का काम केवल ट्रेन चलाना होना चाहिए, न कि स्कूल और अस्पताल. समिति ‘इंडियन रेलवे मैन्युफैरिंग कंपनी’ बनाने के पक्ष में है जिसके तहत रेलवे की सभी उत्पादन इकाइयों को लाया जाये तथा सरकार को प्राइवेट कंपनियों को यात्री एवं माल गाड़ी चलाने, कोच और इंजन के निर्माण की इजाजत देनी चाहिए. निजी क्षेत्र को माल डिब्बे, सवारी डिब्बे और इंजनों के निर्माण जैसी गतिविधियों को सौंपा जा सकता है.
इसी तरह स्कूल और अस्पताल चलाने और आरपीएफ जैसे कामों से भी रेलवे को खुद को दूर कर लेना चाहिए. रेलवे बोर्ड से परे रेलवे रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया का गठन होना चाहिए जिसके जिम्मे किराया और सेवा प्रभार तय करने के साथ तकनीकी स्तर बनाए रखने का काम हो. समिति रेलवे बोर्ड के कॉरपोरेट बोर्ड की तरह बनाना चाहती है.
लेकिन रेलवे कर्मचारी संगठनों ने इस समिति की सिफारिशों को खारिज कर दिया है. आल इंडिया रेलवे मेन्स फेडेरेशन के महासचिव शिव गोपाल मिश्र ने साफ किया है कि यह समिति रेलवे को एक निजी कंपनी में तब्दील करने का रोडमैप दिखाती है.
एक ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रेल मंत्री सुरेश प्रभु बार-बार यह वादा कर रहे हैं कि किसी दशा में रेलवे का निजीकरण नहीं होने दिया जाएगा, दूसरी तरफ कदम उसी दिशा में बढ़ रहे हैं.
रेलवे यूनियनें रेलवे की चिकित्सा सेवाओं एवं स्कूलों के निजीकरण के खिलाफ हैं. उसका मानना है कि कल्याण की तमाम योजनाएं दशको के संघर्ष के बाद हासिल हुई हैं और उसे किसी हालत में निजी हाथों को नही सौंपा जा सकता है. हालांकि लाभांश देयता, सब्सिडी के भुगतान, अनुसंधान एवं विकास केन्द्रों और प्रशिक्षण के लिए आईटी केन्द्रों एवं विश्वविद्यालयों की स्थापना जैसे बिंदुओं पर यूनियनें खिलाफ नही है.
दरअसल देबरॉय समिति की सिफारिशें 2001 की राकेश मोहन समिति के सुझावों की तरह है. इस समिति ने भी रेलवे की जमीनें बेचने से लेकर तमाम मसलों पर कुछ ऐसी ही सिफारिशें की थी, जो देबराय समिति ने की है. लेकिन उसे स्वीकार नही किया गया, और जिस रेल को उस समय राकेश मोहन समिति अंधेरी गली में फंसी बता रहे थे, वह 2005 में फायदे की रेल हो गयी. लालू प्रसाद के रेल मंत्री काल में जैसा कायाकल्प हुआ, उसे पूरी दुनिया ने सराहा.
सुरेश प्रभु ने विख्यात रेल विशेषज्ञ इ श्रीधरन की अध्यक्षता में जो समिति बनायी, उसने अपनी रिपोर्ट में माना है कि रेलवे को सालाना सामानों की खरीद में 10,000 करोड़ रुपए का चूना लग रहा है. खरीद अधिकारों को विकेंद्रित करने और अधिकार निचले स्तर पर देने पर इस लूट को रोका जा सकता है. खरीद का अधिकार चंद हाथों तक सीमित रहने के कारण भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है. उनकी नजर में रेलवे बोर्ड का गठन नीतिगत फैसले लेने और दिशानिर्देश देने के लिए हुआ था, लेकिन आज रेलवे बोर्ड इनमें से कोई काम नहीं कर रहा है.
रेल मंत्री ने वरिष्ठ रेल अधिकारी मोहम्मद जमशेद की अध्यक्षता में रेलवे में माल और यात्री परिवहन की संभावनाओं पर एक समिति बनायी जिसने 27 मार्च 2015 को अपनी रिपोर्ट में अगले चार सालों में माल ढुलाई क्षेत्र में 9 से 15 फीसदी बढ़ोत्तरी की संभावना जतायी है. लेकिन पिछले चार सालों की विकास दर को देखें, तो वह चार फीसदी से कम रही है.
रेल मंत्री रेल की वित्तीय दशा को सुधारने की मंशा से भारत सरकार के पूर्व सचिव डीके मित्तल की अध्यक्षता में 5 दिसंबर, 2014 को एक उच्च स्तरीय समिति गठित कर चुके हैं. इसके पहले दिनेश त्रिवेदी के कार्यकाल में प्रधानमंत्री के सलाहकार सैम पित्रोदा की अध्यक्षता में रेलवे के आधुनिकीकरण संबंधी विशेषज्ञ समिति गठित की गयी थी. उसने व्यापक अध्ययन के बाद केवल आधुनिकीकरण मद में 5 लाख 50 हजार करोड़ रुपए के निवेश की सिफारिश की. समिति ने पाया था कि तमाम उपायों से रेलवे 8 लाख 22 हजार करोड़ जुटा सकता है.
इसी दौरान काकोदकर समिति ने पांच साल में एक लाख करोड़ रुपए खर्च कर संरक्षा को दुरुस्त करने की सिफारिश की थी. ममता बनर्जी ने अपने कार्यकाल में बड़े विशेषज्ञों की मदद से विजन-2020 के तहत 10 वर्षीय आधुनिकीकरण योजना बनायी थी, और अब सुरेश प्रभु विजन 2030 पर काम कर रहे हैं और तमाम अधिकारी नए सपनों को दिखाने में लगे हैं.
दरअसल रेलवे के साथ कई दिक्कतें हैं जिसमें सबसे बड़ी चुनौती 40 फीसदी वह रेलवे नेटवर्क है, जिस पर लगभग 80 फीसदी यातायात चल रहा है. भीड़ कम करने, अनुरक्षण के लिए समय देने, बेहतर उत्पादकता एवं संरक्षा के लिए इन्हें अपग्रेड किए जाने और इनकी क्षमता का विस्तार किए जाने की अत्यंत आवश्यकता है. यह काम रेलवे को अपने संसाधनों से ही करना है.
हाल में आधारभूत परियोजनाओं में एफडीआइ का फैसला भी यूनियनों के विरोध के बावजूद हो गया है. इलेवेटेड रेल कॉरिडोर मुबई, हाइ स्पीड ट्रेनों और डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर, इंजन और कोच बनाने के कारखानों में 100 फीसदी एफडीआइ को मंजूरी दी जा चुकी है.
रेल मंत्री सुरेश प्रभु अगले पांच सालों में तमाम मदों में 8 लाख 56 हजार करोड़ रुपए से अधिक निवेश का ताना बाना बुन रहे है. पीपीपी से लेकर विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक और दूसरे रास्तों से धन जुटाने की कोशिशें कुछ रंग भी ला रही है. अगर रेलवे चालू परियोजाओं को पूरा करना चाहे तो उसके लिए ही रेलवे को पांच लाख करोड़ रुपए चाहिए, जिसमें से अकेले नयी रेल लाइनों के लिए 1.82 लाख करोड़ रुपए की दरकार है.
तमाम समितियां रेलवे में कर्मचारियों की भारी अधिकता बता रही है, लेकिन यह गलत है. 1991 में 18.7 लाख रेल कर्मचारी थे, जो अब घट कर 13 लाख हो गए हैं. 2.85 लाख पद खाली पड़े हैं जिसमें डेढ़ लाख तो बेहद जरूरी संरक्षा श्रेणी से हैं. काम का बोझ कई गुना बढ़ गया है और ट्रेनों की संख्या तीन गुना हो गयी है. रेलवे में सालाना 50 हजार लोग रिटायर हो रहे हैं, लेकिन अग्रिम योजना बना कर संरक्षा श्रेणी तक की भरती बेहद धीमी गति से हो रही है.
रेलवे में पीपीपी के तय लक्ष्य का 10 फीसदी संसाधन भी नही जुटा. उदारीकरण के बाद 1992 में रेलवे ने बोल्ट और ऑन योर वैगन स्कीम शुरू करते समय सालाना 500 करोड़ रुपए निवेश की उम्मीद लगायी था, लेकिन हासिल हुआ 40 करोड़ रुपए से भी कम. निजी निवेश के जरिए रेलवे के खाते में 2002 से 2010 के दौरान महज 4,428 करोड़ रुपए आये, जो उसके लिए ऊंट के मुह में जीरा से अधिक नहीं थे. रेलवे को बंदरगाह कनेक्टिविटी परियोजनाओं में ही पीपीपी से लाभ मिला.
बेशक भारतीय रेल राष्ट्र की जीवन-रेखा है. अपने 17 क्षेत्रीय रेलों और 68 मंडलों के प्रशासनिक तंत्र और करीब 65,000 किमी नेटवर्क के सहारे देश का सबसे बड़ा नियोजक और परिवहन का मुख्य आधार स्तंभ बनी हुई है. यह रोज 12,335 यात्री गाड़ियां चला रहा है और यात्री सेवाओं पर उसका घाटा लगातार बढ़ रहा हैं. 2001-02 में यात्री गाड़ियों की संख्या 8,897 और उन पर होने वाला घाटा 4,955 करोड़ था. अब गाड़ियां बढ़ कर 12,335 से अधिक हो गयी हैं और सालाना घाटा 24,600 करोड़ रुपए से अधिक हो गया है. हाल में संसदीय समिति ने पाया कि यात्री सुविधाओं की दशा अभी भी खराब है.
भारतीय रेल रफ्तार के मामले में भी फिसड्डी है. कोरिया,जापान और चीन में गाड़ियों की अधिकतम गति 350 किमी प्रति घंटे है. लेकिन भारत में केवल सबसे तेज रफ्तार 160 किमी दिल्ली- आगरा के बीच है. हमारी बड़ी लाइन की एक्सप्रेस गाड़ियों की औसत रफ्तार 50 किमी प्रति घंटा है, जबकि इएमयू 40 और पैसेंजर की 36 किमी से कुछ ज्यादा, और मालगाड़ी की रफ्तार 25 किमी से ज्यादा नहीं है.
इस तरह देखें तो भारतीय रेल को ठोस प्राथमिकताएं तय करने की जरूरत है. और दृढ़ इच्छाशीलता के साथ संगठन की ताकत और कमजोरियों दोनों की थाह लेते हुए रणनीतियां बनाने की जरूरत है. अगर ऐसा नहीं हुआ तो तमाम कमेटियों में उलझ कर भारतीय रेल दिशाहीनता का ही शिकार बन जायेगी.
श्रीधरन कमिटी
गठन : 14 नवंबर, 2014
सदस्य-संख्या : एक
कार्यकाल : तीन माह, अंतरिम रिपोर्ट दो सप्ताह के भीतर
उद्देश्य : व्यवस्था और प्रक्रिया संबंधी सुझाव देना ताकि निर्णय-प्रक्रिया में दक्षता, पारदर्शिता, विकेंद्रीकरण लाया जाए और रेल परियोजनाओं को तेजी से अमल में लाया जाए, तथा रेल मंत्री के निर्णयों को शीघ्रता से लागू करने के लिए निर्देशों की नियमावली तैयार करना.
स्थिति : श्रीधरन ने 27 नवंबर, 2014 को अंतरिम रिपोर्ट और 15 मार्च, 2015 को अंतिम रिपोर्ट दे दी.
प्रमुख सुझाव
त्नरेलवे बोर्ड की आलोचना : रक्षा क्षेत्र के बाद रेलवे खरीद करनेवाली सबसे बड़ी संस्था है जो लगभग हर साल एक लाख करोड़ रुपये खर्च करती है. इसमें आधी खरीद रेलवे बोर्ड करता है. श्रीधरन रिपोर्ट ने कहा है कि बोर्ड का गठन नीतियां और सिद्धांत तय करने के लिए किया गया था, लेकिन संस्था इन कर्तव्यों का निर्वाह नहीं कर रही है. रेलवे बोर्ड और आपूर्तिकर्ताओं का एक संगठित गिरोह बन गया है.
त्नविकेंद्रीकरण : कमिटी की राय में, अगर खरीद प्रक्रिया का विकेंद्रीकरण होता है, तो रेलवे करीब दस हजार करोड़ रुपये की सालाना बचत कर सकता है. इसमें वाणिज्यिक अधिकार महाप्रबंधकों को देने की सिफारिश की गयी है.
त्न सड़क और वायु यातायात के हाथों टैरिफ के नुकसान से बचना : माल ढुलाई में रेलवे का हिस्सा 1960-61 में 82 फीसदी से घटकर अब महज 30 फीसदी रह गयी है. यात्रियों के मामले में यह मात्र 12 फीसदी है. इस पर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है. रेलवे को अगले पांच वर्षों में 8.5 लाख करोड़ रुपये जुटाने हैं.
डीके मित्तल कमिटी
घाटे से बदहाल रेलवे की वित्तीय स्थिति की बेहतरी के उपाय सुझाने के उद्देश्य से चार दिसंबर, 2014 को रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने भारतीय प्रशासनिक सेवा के सेवानिवृत डीके मित्तल के नेतृत्व में एक नौ-सदस्यीय कमिटी का गठन किया था. कमिटी का कार्यकाल महज 18 दिन निर्धारित किया गया था. इस कमिटी के सदस्यों में भारतीय रेल के अंतर्गत आनेवाले सार्वजनिक उपक्रमों के प्रमुख तथा वित्तीय सलाहकार संस्थाओं- बोस्टन कंसल्टेटिंग ग्रुप और मेकिंजी- के प्रतिनिधि सदस्य थे. फरवरी में प्रभु द्वारा प्रस्तुत रेल बजट में अनेक प्रावधान 30 दिसंबर, 2014 को जमा की गयी डीके मित्तल कमिटी की रिपोर्ट पर आधारित थी.
प्रमुख सुझाव
रेल को भाड़े और किराये को नियमित रूप से कुछ वर्षों तक बढ़ाया जाना ताकि यह सड़क यातायात के स्तर तक पहुंच जाये तथा वृद्धि को रिजर्व बैंक द्वारा जारी किये जाने वाले उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के साथ जोड़ना चाहिए.
अत्यधिक सब्सिडाइज्ड उपनगरीय रेल और सेकेंड क्लास किराये में बढ़ोतरी करना.
हवाई जहाज की टिकटों की तरह उपलब्धता और समय के अनुसार किराया निर्धारित करना.
किराये के निर्धारण की न्यूनतम दूरी को घटाकर उपनगरीय ट्रेनों के लिए 20 किलोमीटर तथा मेल व एक्सप्रेस ट्रेनों के लिए 100 किलोमीटर करना.
रेल टैरिफ कमिटी की स्थापना करना.
निजीकरण नहीं, आंतरिक खामियों को दूर करे रेलवे
जेडी अग्रवाल
अर्थशास्त्री
रेलवे की मौजूदा हालत की वजह राजनीतिक कारण रहे हैं. संसाधन बढ़ाये बिना नयी ट्रेनों और योजनाओं की घोषणाएं की जाती रही है. यही वजह है कि आज सैकड़ों रेल परियाजनाएं अधर में लटकी पड़ी हुई हैं और रेलवे के पास इतना पैसा नहीं है कि इसे पूरा किया जा सके.
रेलवे में सुधार के लिए अर्थशास्त्री बिबेक देबरॉय और मेट्रोमैन श्रीधरन की आयी रिपोर्ट ने आमूल-चूल बदलाव के लिए कई अहम सिफारिशें की हैं. अगर इन सिफारिशों को सरकार स्वीकार कर ले तो रेलवे का कायाकाल्प हो सकता है. लेकिन देश के लिए रेलवे की महत्ता को देखते हुए सभी सिफारिशों को स्वीकार करना सरकार के लिए मुमकिन नहीं है. इसके पहले भी रेलवे की स्थिति सुधारने के लिए कमिटियां बनी, लेकिन उनकी सिफारिशों पर खास ध्यान नहीं दिया गया. ऐसी ही कमिटियां एयर इंडिया को लेकर बनीं. लेकिन सभी जानते हैं कि आज इसकी स्थिति क्या है?
सरकारी संस्थाओं को बेहतर बनाने का एक मात्र विकल्प निजीकरण नहीं हो सकता है. देबरॉय कमिटी ने रेलवे का घाटा कम करने के लिए निजी क्षेत्र को ट्रेन परिचालन करने की अनुमति देने की बात कही है. रेल बजट में भी ऐसी घोषणाएं की गयी थीं. सबसे अहम सवाल है कि रेलवे को पटरी पर लाने के लिए इसका प्रबंधन कैसे किया जाये. इसके लिए कुछ तात्कालिक कदम उठाने बेहद आवश्यक है.
विचार कितने भी अच्छे हों, लेकिन अगर उसका क्रियान्वयन सही तरीके से नहीं होगा तो हालात जस के तस बने रहेंगे. सबसे पहले रेलवे को सुरक्षा पर ध्यान देने की जरूरत है. पिछले दस साल के आंकड़ों पर गौर करें तो दुर्घटना दर कई गुणा बढ़ गयी है. रेलवे में दुर्घटना की मुख्य वजह प्रक्रियागत गलतियां रही है. तकनीकी गलतियां, जैसे सिग्नल की खराबी, इंटरलॉकिंग सिस्टम का पुराना होना आदि अहम हैं. इस पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है.
रेलवे ने अपना खर्च घटाने के लिए कर्मचारियों की संख्या में कमी की है, लेकिन सुरक्षा से जुड़े लगभग एक लाख पद रिक्त पड़े हैं. अधिकांश दुर्घटना ट्रेनों के पटरी से उतरने, आपसी टक्कर और मानव रहित क्रासिंग पर होते है. इसकी वजह पटरियों का पुराना होना और रॉलिंग स्टॉक की खराबी है.
रखरखाव का खराब प्रबंधन और तयशुदा प्रक्रिया का पालन नहीं होने के कारण हालात और खराब हुए हैं. बिबेक देबरॉय कमिटी ने रेलवे की नियुक्ति प्रक्रिया को बदलने की बात कही है. मौजूदा समय में रेलवे में कई स्तरों पर भर्तियां की जाती है. यूपीएससी से लेकर रेलवे बोर्ड के जरिये रेलवे में नियुक्तियां होती है. इस प्रक्रिया में बदलाव कर एकल प्रक्रिया को अपनाना चाहिए.
यह सही है कि रेलवे को गैर जरूरी कामों से दूरी बनानी चाहिए. रेलवे का काम स्कूल, अस्पताल, रेल डिब्बों और भवनों का निर्माण करना नहीं है. ऐसे कामों के चलते रेलवे का आकार काफी बड़ा हो गया है और इससे अतिरिक्त दबाव भी पड़ता है.
सबसे अहम सिफारिश है रेलवे का विकेंद्रीकरण करना. पिछले कुछ सालों में इस दिशा में काम हुए हैं, लेकिन यह सिर्फ एक स्तर तक पहुचा है. विकेंद्रीकरण से रेलवे के कामकाज में सुधार होगा. अच्छी बात यह है कि कमिटी ने जोन की कमाई का कुछ हिस्सा उस जोन को देने की बात कही गयी है. इससे वहां रेलवे के इंफ्रास्ट्रर को बेहतर करने में मदद मिलेगी. काफी अरसे से रेलवे बजट को खत्म करने की बात हो रही है. मौजूदा समय में इसकी उपयोगिता भी नहीं है.
मेरा मानना है कि यात्री ट्रेनों की बजाय मालवाहक ट्रेनों का निजीकरण करने सही होगा क्योंकि यात्री ट्रेनों के निजीकरण से किराये में बढ़ोतरी होगी, जो जनता के हित में नहीं होगा. आज भी अधिकांश लोगों के लिए सबसे सुगम और सस्ता साधन ट्रेन हैं. राजधानी और शताब्दी जैसी ट्रेनों को निजी क्षेत्र को सौंपा जा सकता है. पूरी तरह निजीकरण करने का कोई फायदा नहीं है. ब्रिटेन का उदाहरण हमारे सामने है. वर्ष 1994 में ब्रिटेन में रेल का निजीकरण कर दिया गया, लेकिन पिछले साल अधिकांश नेटवर्क को सरकार ने अपने नियंत्रण में ले लिया.
इससे यात्रियों की संख्या में काफी वृद्धि हुई और रोजगार के नये अवसर पैदा हुए हैं. ऐसे में भारतीय रेल को पटरी पर लाने के लिए ट्रेनों का परिचालन ठीक करने के साथ ही पटरियों के रखरखाव प्रक्रिया को बेहतर बनाना होगा.
भ्रष्टाचार को काबू में रखने से भी रेलवे अपने राजस्व को बढ़ा सकता है. श्रीधरन ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि गिरोहबंदी के कारण रेलवे को हर साल 10 हजार करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है.
कमिटी ने विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया को जबावदेह और पारदर्शी बनाने की बात भी कही है. रेलवे बोर्ड को खुद कोई व्यवसायिक जिम्मेवारी नहीं लेनी चाहिए और रेलवे जोन को अपनी जरूरत के लिहाज से निर्णय लेने की छूट मिलनी चाहिए. रेलवे की मौजूदा हालत की वजह राजनीतिक कारण रहे हैं. संसाधन बढ़ाये बिना नयी ट्रेनों और योजनाओं की घोषणाएं की जाती रही है. यही वजह है कि आज सैकड़ों रेल परियाजनाएं अधर में लटकी पड़ी हुई हैं और रेलवे के पास इतना पैसा नहीं है कि इसे पूरा किया जा सके.
कुछ समय पहले तक चीन रेल नेटवर्क के मामले में भारत से काफी पीछे था, लेकिन आज वह बहुत आगे है. उम्मीद है कि रेल मंत्री इन कमिटियों की कुछ अहम सिफारिशों को स्वीकार करेंगे. निजीकरण की बजाय प्रक्रियागत खामियों को दूर करते हुए इसे पटरी पर लाने की पहल होनी चाहिए. आने वाले समय में ठोस उपायों से रेलवे की स्थिति सुधरने की पूरी संभावना दिख रही है.
बिबेक देबरॉय पैनल
गठन : 23 सितंबर, 2014
सदस्य संख्या : नौ
सदस्य : अर्थशास्त्री बिबेक देबरॉय (अध्यक्ष), पूर्व कैबिनेट सचिव केएम चंद्रशेखर, उद्योगपति गुरचरण दास, नेशनल स्टिक एक्सचेंज के पूर्व महानिदेशक रवि नारायण, अर्थशास्त्री पार्था मुखोपाध्याय एवं वित्त मंत्रलय द्वारा नामित एक सदस्य.
कार्यकाल : अंतरिम रिपोर्ट 31 मार्च, 2015 को जमा. पूर्ण रिपोर्ट वर्ष 2015 के अंत तक.
उद्देश्य : रेलवे की वित्तीय आवश्यकताओं का आकलन और संसाधन जुटाने के लिए नीतिगत सुझाव, नीति-निर्माण और संचालन को अलग-अलग करने के लिए रेलवे बोर्ड के पुनर्गठन संबंधी सुझाव, रेलवे व अन्य सरकारी विभागों के अधिकारियों के एक्सचेंज के उपाय सुझाना, रेल टैरिफ ऑथोरिटी के गठन के तौर-तरीके सुझाना.
प्रमुख सुझाव
– वाणिज्यिक लेखा-जोखा की ओर रुख करना : व्यापार, गतिविधियों और सेवाओं के खर्च के आकलन, तथा लेखा तैयार करने और हिसाब रखने के भारतीय रेल के मौजूदा तौर-तरीके में सुधार. इसके वित्तीय लेखा-जोखा को नये तरीके से तैयार करने की आवश्यकता है जो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्य सिद्वांतों और नियमों के अनुरूप हों. स्तरीय लेखा-जोखा और वित्तीय सूचनाओं का समुचित सार्वजनिककरण न सिर्फ निवेशकों को सही तरीके से रेलवे में निवेश करने के लिए आवश्यक आकलन का आधार प्रदान करेगा, बल्कि रेलवे को भी अपनी नीतियों और सेवाओं के प्रभाव को समझने में मददगार होगा.
त्नबहाली और मानव-संसाधन प्रक्रियाओं में सुधार : अभी रेलवे में समूह ‘अ’ की आठ संगठित सेवाएं हैं. इन सेवाओं में बहाली संघ लोक सेवा आयोग (लोक सेवा और इंजीनियरिंग) परीक्षाओं और विभाग के समूह ‘ब’ के अधिकारियों की पदोन्नति के द्वारा की जाती है. मैकेनिकल इंजीनियरों की एक छोटी, पर महत्वपूर्ण बहाली स्पेशल क्लास रेलवे अप्रेंटिस परीक्षा और प्रशिक्षण के बाद की जाती है. इन आठ सेवाओं को आम तौर पर तकनीकी और गैर-तकनीकी सेवाओं की दो सामान्य श्रेणियों में रखा जा सकता है.
रेलवे को इन सेवाओं को मिलाकर समूह ‘अ’ की सेवाओं को दो भिन्न सेवाओं में बांट दिया जाना चाहिए : पांच तकनीकी सेवाओं को मिलाकर भारतीय रेल तकनीकी सेवा तथा तीन गैर-तकनीकी सेवाओं को मिलाकर भारतीय रेल लॉजिस्टिक्स सेवा.
त्नगैर-प्राथमिक क्षेत्रों से ध्यान हटाना : देबरॉय के अनुसार भारतीय रेल के अंतर्गत बहुत-सी ऐसी गतिविधियां हैं, जो रेल यातायात के मुख्य कार्य से संबंधित नहीं हैं. इनमें अस्पताल, विद्यालय, खान-पान, रियल इस्टेट, ईंजन, डिब्बा और कोच तथा इनके सामान बनाना आदि शामिल हैं. उनका कहना है कि हमने इन्हें बंद करने का सुझाव कतई नहीं दिया है. इस सूची में रेलवे सुरक्षा बल व विशेष सुरक्षा बल को भी जोड़ा जाना चाहिए.
ये काम आम तौर पर राज्य पुलिस के द्वारा अंजाम दिये जाने चाहिए और सुविधानुसार आउटसोर्स कर दिया जान चाहिए. इन सेवाओं के संचालन की जिम्मेवारी लेकर रेलवे ने एक केंद्रीय भीमकाय संगठन खड़ा कर दिया है. इन गतिविधियों की समीक्षा बहुत जरूरी हो गयी है.
निजी क्षेत्र से सही प्रतियोगिता के लिए भारतीय रेल को अपनी प्राथमिक गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित करना होगा और उपर्युक्त क्षेत्रों से हटना होगा. रेलवे स्कूलों का तुरंत केंद्रीय विद्यालय संगठन के साथ विलय कर देना चाहिए तथा निजी स्कूलों समेत वैकल्पिक स्कूलों में कर्मचारियों के बच्चों की शिक्षा पर अनुदान दिया जाना चाहिए.
– विकेंद्रीकरण : बिबेक देबरॉय ने स्पष्ट किया कि ‘हमने केंद्रीकरण के लिए ठोस सिफारिशें की हैं. हम महाप्रबंधक के स्तर पर विकेंद्रीकरण की बात नहीं कर रहे हैं, जो एक क्षेत्र के प्रभारी होते हैं. हम डिविजन के स्तर पर उपमहाप्रबंधक और स्टेशन अधीक्षक तक विकेंद्रीकरण करना चाहते हैं. इस दिशा में कुछ काम हुए हैं, पर वे अभी महाप्रबंधक तक ही सीमित हैं. आज एक आम यात्री के लिए कोई भी ऐसा एक व्यक्ति नहीं है, जो एक स्टेशन के लिए जिम्मेवार हो.
रिपोर्ट ने अधिकारों को विकेंद्रीकृत करने का सुझाव दिया है जिसमें अधिकारों, विशेषकर काम, भंडार में खरीद, सेवा या यहां तक कि राजस्व कमानेवाले वाणिज्यिक निविदाओं से संबंधित, को उपमहाप्रबंधक को देने की बात हुई है. इस बाबत मुख्य सुझाव हैं : वित्त पूरी तरह उपमहाप्रबंधक के पास हो, अतिरिक्त उपमहाप्रबंधक को आवश्यक रूप से प्रशासनिक श्रृंखला का हिस्सा होना चाहिए, डिविजन की आय का कुछ भाग डिविजन के पास भी रहना चाहिए.
– भारतीय रेल मैनुफैक्चरिंग कंपनी : देबरॉय का कहना है कि डिब्बे पहले से ही निजी क्षेत्र द्वारा बनाये जा रहे हैं. ऐसा ईंजन और कोच के साथ भी किया जा सकता है. अगर इनको सीमाओं से मुक्त नहीं किया गया तो मौजूदा उत्पादन ईकाईयां प्रतियोगिता का सामना नहीं कर सकेंगी. देबरॉय के अनुसार, ‘आपको इन्हें जंजीरों से मुक्त करना होगा. रेलवे के अंतर्गत जितनी गैर-प्राथमिक ईकाईयां हैं, उन्हें अलग कंपनी के अंतर्गत रखा जाना चाहिए. हम उन्हें निजी क्षेत्र के हाथों सौंपने का सुझाव नहीं दे रहे हैं, पर उन्हें वर्तमान व्यवस्था से आजाद करना जरूरी है.
– निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करना : रिपोर्ट के मुताबिक मालगाड़ी और यात्री गाड़ियों के संचालन में भारतीय रेल के साथ प्रतियोगिता के लिए निजी कंपनियों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए तथा रेलवे इंफ्रास्ट्रक्चर सेवाओं तथा उत्पादन और निर्माण जैसी गैर-प्राथमिक गतिविधियों में भी निजी क्षेत्र की भागीदारी की मंजूरी दी जानी चाहिए.
देबरॉय की राय में, ‘निजी कंपनियों को रेल में सक्रिय होने में परेशानी इसलिए है क्योंकि उनकी पहुंच पटरियों तक नहीं हैं. उनकी पटरियों तक पहुंच इसलिए नहीं है कि अनिवार्यत: भारतीय रेल अपनी ट्रेनों को वरीयता देता है. इसलिए हमने एक अलग ट्रैक होल्डिंग कंपनी बनाने का सुझाव दिया है, जो कि सार्वजनिक क्षेत्र में ही रहेगी. यह कंपनी भारतीय रेल और निजी कंपनियों के बीच निष्पक्ष रहेगी.’
– स्वतंत्र नियामक : इस रिपोर्ट में रेलवे रेगुलेटरी ऑथोरिटी ऑफ इंडिया नामक एक संवैधानिक संस्था बनाने का सुझाव दिया गया है, जिसका बजट अलग होगा ताकि वह रेल मंत्रलय से सही मायने में स्वतंत्र होकर काम कर सके. इस संस्था को आर्थिक नियमन का अधिकार होगा जिसमें आवश्यकतानुसार टैरिफ, संरक्षा, सभी कंपनियों के लिए सही पहुंच, सेवा स्तर, लाइसेंसऔर प्रतियोगिता बढ़ाना, सदस्यों की नियुक्ति और हटाने आदि से संबंधित रेगुलेशन का अधिकार होगा.
देबरॉय का मानना है कि रेल मंत्रलय को नीतियां बनानी चाहिए और उनके लागू करने की जिम्मेवारी नियामक संस्था पर होनी चाहिए. रेलवे बोर्ड सिर्फ भारतीय रेल की सार्वजनिक उपक्रमों की संस्था के रूप में काम करेगा.
– सामाजिक खर्च और उनके वहन के लिए ज्वाइंट वेंचर : नयी उपनगरीय पटरियों को राज्य सरकारों के साथ मिलकर बिछाया जाना चाहिए. रेल में कई सारे जोन और मंडल हैं जिनके पुनर्गठित किये जाने की आवश्यकता है. इसी आधार पर कमिटी ने कोलकाता मेट्रो को रेलवे तंत्र से अलग करने की सिफारिश की है. देबरॉय के अनुसार, ‘जब कोई अन्य मेट्रो भारतीय रेल का हिस्सा नहीं है, तो फिर कोलकाता मेट्रो को भी अलग होना चाहिए.’
उपनगरीय रेलों को ज्वाइंट वेंचर के तरीके से राज्य सरकारों के अधीन कर दिया जाना चाहिए. सस्ती सेवाओं का खर्च, जब तक किराये में वृद्धि नहीं की जाती है, राज्य सरकार के साथ आधा-आधा वहन किया जाये. माल भाड़े का निर्धारण बाजार के सिद्धांतों के अनुरूप होना चाहिए. जब उदारीकरण स्थापित हो जायेगा तो माल ढुलाई से संबंधित सामाजिक खर्च का बोझ रेल पर नहीं डाला जाना चाहिए.
– सरकार और रेलवे के बीच संबंध में बदलाव : रिपोर्ट ने एक महत्वपूर्ण सिफारिश में कहा है कि अलग से रेल बजट की व्यवस्था को धीरे-धीरे खत्म कर देना चाहिए तथा इसे आम बजट के साथ मिला देना चाहिए. देबरॉय की राय में केंद्र सरकार और रेलवे के संबंध बिल्कुल अलग-अलग होना चाहिए, व्यापक बजट समर्थन बंद हो, लाभांश देने की व्यवस्था खत्म हो. बजट खत्म होने से अंतत: रेल मंत्रलय समाप्त हो जायेगा और इसे यातायात मंत्रलय के साथ मिला देना चाहिए.
त्नसंसाधन बढ़ाना : निवेश के लिए संसाधन जुटाने के लिए एक निवेश सलाहकार कमिटी बनायी जाये जिसमें विशेषज्ञ, निवेश बैंकर, और सेबी, रिजर्व बैंक जैसे विभिन्न वित्तीय संस्थाओं के प्रतिनिधि हों. भारतीय रेल की परिसंपत्तियों के बदले संसाधन जुटाये जा सकते हैं. ऐसे निवेशों से कमाई के तौर-तरीकों को भी सलाहकार समिति के निगरानी में तैयार किया जाना चाहिए.
(साभार : द इकोनॉमिक टाइम्स)

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