स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन से जीएसएलवी-डी5 की बहुप्रतीक्षित उड़ान कुछ तकनीकी कारणों से सोमवार को टल गयी है. इस उड़ान पर पूरी दुनिया की नजर थी, क्योंकि इसरो की इस कामयाबी के साथ भारत न सिर्फ क्रायोजेनिक इंजन बनानेवाले चुनिंदा देशों की सूची में शुमार हो जायेगा, बल्कि उसके अन्य अभियानों को भी एक नयी ऊंचाई मिलेगी. क्रायोजेनिक इंजन और जीएसएलवी डी5 के बारे में जानकारी दे रहा है आज का नॉलेज.
प्रवीण कुमार
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के लिए ही नहीं, अंतरिक्ष अनुसंधान के लिहाज से देश लिए भी सोमवार, 19 अगस्त का दिन बेहद अहम माना जा रहा था. इस दिन भारत ने स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन युक्त भू-स्थैतिक प्रक्षेपण यान जीएसएलवी डी-5 का प्रक्षेपण करने की घोषणा की थी. इसकी उलटी गिनती भी शुरू हो चुकी थी. इस प्रक्षेपण पर पूरी दुनिया की नजर थी. लेकिन अंतिम वक्त में इसका प्रक्षेपण कुछ तकनीकी कारणों से फिलहाल टाल दिया गया है.
इस यान के जरिये करीब दो टन वजनी आधुनिक संचार उपग्रह जीसैट-14 को पृथ्वी की भू-स्थैतिक कक्षा में स्थापित किया जाना है. इस प्रक्षेपण की सफलता के बाद भारत उपग्रह भेजने व क्रायोजेनिक इंजन विकसित करने के मामले में कामयाबी के नये परचम फहरायेगा, क्योंकि इसके साथ ही भारी और जरूरी संचार उपग्रहों को प्रक्षेपित करने में आ रही मुख्य बाधाओं से इसरो पार पा लेगा. बड़ी बात यह भी है कि यह प्रक्षेपण अंतरिक्ष के क्षेत्र में उच्च तकनीक हासिल करने के मामले में भारत की आत्मनिर्भरता का संकेत होगा.
प्रक्षेपण की तैयारियां
1980 किलोग्राम वजनी इस उपग्रह के प्रक्षेपण की तैयारियां आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र के दूसरे लांच पैड पर काफी दिनों से चल रही थी. यदि इस प्रक्षेपण ने निर्धारित लक्ष्यों को हासिल कर लिया होता, तो क्रायोजेनिक इंजन विकसित करने के लिए पिछले करीब दो दशक से जारी जद्दोजहद और अथक प्रयासों पर पूरी तरह से सफलता की मुहर लग जाती. इस कामयाबी से कई अरब डॉलर के अंतरिक्ष प्रक्षेपण कारोबार में भी भारत की हिस्सेदारी तथा क्षमता में और अधिक वृद्धि होगी.
शुरुआती दौर की असफलता
हालांकि इससे पहले अप्रैल, 2010 में जीएसएलवी-डी3 पर स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन का पहला उड़ान परीक्षण तकनीकी खराबी के चलते विफल रहा था. उस समय उड़ान भरने के कुछ ही मिनट बाद वह यान समुद्र में गिर गया था. उसी वर्ष दिसंबर में रूसी क्रायोजेनिक इंजन संचालित जीएसएलवी भी उड़ान नहीं भर पाया था. अप्रैल, 2010 में किये गये प्रक्षेपण में देशी क्रायोजेनिक इंजन, स्टीयरिंग इंजन और गैस जेनरेटर चालू हो गये थे, लेकिन ये मात्र 800 मिलीसेकेंड तक ही कार्यरत रहे और ईंधन बूस्टर टबरे पंप यानी एफबीटीपी ने कार्य करना बंद कर दिया था. इस खराबी को रोकने के लिए इसरो ने पिछले तीन वर्षो में कई कदम उठाये. एफबीटीपी और ऑक्सिडाइजर टबरे पंप के डिजाइन में जरूरी बदलाव कर महेंद्रगिरी स्थित लिक्विड प्रोपल्सन स्पेस सेंटर में क्रायोजेनिक इंजन और संबंधित प्रणालियों को कई दौर के जटिल परीक्षणों से गुजारा गया.
क्रायोजेनिक इंजन की सफलता सुनिश्चित करने के लिए इसरो के वैज्ञानिकों ने देश में उपलब्ध तमाम तकनीकों का इस्तेमाल किया है. इसके तहत विभिन्न शैक्षिक संस्थाओं, शोध और विकास केंद्रों से भी विशेषज्ञों की सहायता ली गयी है. क्रायोजेनिक इंजन के विकास से जुड़े विशेषज्ञों में प्रोफेसर यूआर राव, प्रोफेसर आर नरसिम्हा और इसरो के रॉकेट कार्यक्रम से जुड़े वैज्ञानिक शामिल हैं.
क्या है क्रायोजेनिक इंजन
क्रायोजेनिक इंजन भी एक प्रकार का रॉकेट इंजन ही है, लेकिन इसमें इस्तेमाल किये जाने वाले ईंधन अथवा ऑक्सिडाइजर को अत्यंत निम्न तापक्रम पर रखना पड़ता है, ताकि ईंधन द्रव अवस्था में बना रहे. यह एक चुनौतीपूर्ण कार्य है. इसमें ईंधन के रूप में सामान्य तौर पर द्रव हाइड्रोजन जैसे तरलीकृत गैसों का इस्तेमाल किया जाता है और ऑक्सीजन ऑक्सिडाइजर का काम करता है. सामान्य ईंधनों को जलने के लिए ऑक्सीजन की जरूरत होती है, जो बाह्य वायुमंडल में मौजूद है. वहीं क्रायोजेनिक ईंधन ऑक्सीजन की पर्याप्त आपूर्ति नहीं होने पर भी आसानी से इंजन को चालू रखते हैं.
इस तरह की प्रणाली के बारे में सबसे पहले ऑस्ट्रिया के एयरोस्पेस इंजीनियर यूजेन सैंगर ने 1940 के दशक में बताया और सैटर्न फाइव रॉकेट में इसका इस्तेमाल किया गया था. गौरतलब है कि इसी यान के जरिये चांद पर पहला मानवयुक्त मिशन भेजा गया था.
रूस से हासिल पहली तकनीक
भारत ने शुरू में इन इंजनों की आपूर्ति और तकनीक हस्तांतरण के लिए रूस के साथ समझौता किया था, जिसके तहत 1990 के दशक में इसरो को सात इंजन मिले. लेकिन अमेरिका ने मिसाइल टेक्नोलॉजी कंट्रोल रिजीम के उल्लंघन का हवाला देकर क्रायोजेनिक इंजन के हस्तांतरण पर आपत्ति जतायी. इस प्रकार भारत के पास खुद का क्रायोजेनिक इंजन विकसित करने के अलावा कोई चारा नहीं बचा. कुछ इसी तरह की चुनौतियों का सामना परमाणु ऊर्जा के विकास में भी भारत को करना पड़ा था. लेकिन दृढ़ निश्चय और तकनीकी उन्नति के बूते भारत इन चुनौतियों से निबटने में कामयाब रहा है. इसी तरह से इसरो ने भी इन चुनौतियों का सामना डट कर किया और पूर्व इसरो अध्यक्ष प्रोफेसर यूआर राव के नेतृत्व में क्रायोजेनिक इंजन विकसित करने के लिए प्रतिबद्ध हुआ.
स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन विकसित करने की परियोजना को वर्ष 1993 में मंजूरी मिली थी. फिलहाल अमेरिका, जापान, चीन, रूस और यूरोपीय स्पेस एजेंसी ही क्रायोजेनिक इंजन से जुड़ी प्रौद्योगिकी में महारत हासिल कर पाये हैं.
भारत के लिए बड़ी चुनौती
भारत के लिहाज से क्रायोजेनिक प्रौद्योगिकी में सफलता हासिल करना अब भी एक चुनौती बना हुआ है. भारत ने अब तक सात जीएसएलवी यान प्रक्षेपित किया है, जिसमें से मात्र तीन ही सफल हुए हैं. इनमें से छह में रूस निर्मित और एक में स्वदेश में ही विकसित किये गये क्रायोजेनिक इंजन का इस्तेमाल किया गया है. इतना ही नहीं, प्रत्येक प्रक्षेपण की विफलता की वजहें भी अलग-अलग रही हैं, जो कि इसरो के प्रयासों को और दुश्कर बनाते हैं. कुछ प्रक्षेपण निर्माण और गुणवत्ता में खामियोंकी वजह से तो कुछ देश में विकसित क्रायोजेनिक इंजन की वजह से असफल रहे.
दुनियाभर में भारत की धमक
फिलहाल इसरो भारतीय राष्ट्रीय उपग्रह प्रणाली इनसैट श्रेणी के भारी संचार उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए यूरोपीय स्पेस एजेंसी की सेवाएं लेता है. हालांकि, भारत ने हल्के उपग्रहों को निर्धारित कक्षा में भेजने में महारत हासिल कर ली है. इसरो के ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान पीएसएलवी ने लगातार 23 सफल उड़ान भरी और 63 उपग्रहों को उनकी निर्धारित कक्षा में पहुंचाया है. इसीलिए पीएसएलवी को वर्कहॉर्स यान भी कहा जाता है. इनमें से 23 देशी और 35 विदेशी उपग्रह हैं. यानी उपग्रह प्रक्षेपण बाजार में इसरो ने अपना पैर फैलाना शुरू कर दिया है. कम शुल्क और सफलतापूर्वक प्रक्षेपण की वजहों से विकसित देशों समेत कई राष्ट्र अपने-अपने उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए इसरो के समक्ष कतारबद्ध हैं.
इतना हीं नहीं, चंद्रयान-1 को चंद्रमा की कक्षा में पहुंचाने में भी उन्नत पीएसएलवी के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है. दूरसंवेदी उपग्रहों का वजन कुछ किलोग्राम से लेकर करीब एक टन ही होता है. साथ ही, इन्हें ध्रुवीय कक्षा में ही पहुंचाया जाता है. यानी ये उपग्रह पृथ्वी की गति के साथ नहीं चलते और एक तय समय पर प्रतिदिन पृथ्वी के किसी खास हिस्से से गुजरते हैं.
संचार के क्षेत्र में तरक्की
आम तौर पर संचार उपग्रह दो से पांच टन वजनी होते हैं और इन्हें 36 हजार किलोमीटर ऊपर भू-स्थैतिक कक्षा (जियोस्टेशनरी ऑर्बिट) में पहुंचाना होता है, ताकि ये पृथ्वी के साथ-साथ गतिमान रह सकें. इससे इन उपग्रहों के उपयोगकर्ताओं को हर वक्त सेवाएं मिलती रहती हैं. देश की बढ़ती जरूरतों के मद्देनजर भारी उपग्रहों का प्रक्षेपण भी जरूरी है. इन उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए ही जीएसएलवी प्रक्षेपण यान का इस्तेमाल किया जाता है. लेकिन क्रायोजेनिक इंजन के मोरचे पर सफलता नहीं मिलने से भारत की स्थिति मजबूत नहीं रही है. जीएसएलवी दो टन से अधिक वजनी संचार उपग्रहों को पृथ्वी की भू-स्थैतिक कक्षा में स्थापित कर सकता है. इस तीन चरण के प्रक्षेपण वाहन में पहले चरण में ठोस बूस्टरों के साथ चार लिक्विड स्ट्रैप-ऑन बूस्टर लगे हैं, जबकि दूसरे चरण में द्रवीय ईंधन का इस्तेमाल किया गया है और अंतिम व क्रायोजेनिक चरण में स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन का इस्तेमाल किया गया है. इस स्वदेशी क्रोयोजेनिक इंजन को इसरो ने विकसित किया है.
सफलता के नये आयाम
क्रायोजेनिक इंजन के परीक्षण में सफलता मिलने का एक मतलब यह भी निकलेगा कि भारत इंटर-कांटीनेंटल मिसाइल प्रौद्योगिकी से लैस हो गया है. यानी इससे अन्य दूर के देशों तक मार करनेवाली मिसाइलें बनाना संभव होगा. इसलिए जीएसएलवी में इस्तेमाल होनेवाले इन स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजनों पर सिर्फ भारतीय वैज्ञानिकों की ही नहीं, पूरी दुनिया की नजरें टिकी हुई हैं. रक्षा जरूरतों के मद्देनजर भी भारत के लिए क्रायोजेनिक इंजन का निर्माण जरूरी है. उपग्रह का प्रक्षेपण तो भारत किसी और देश में जाकर भी कर सकता है. लेकिन लंबी दूरी की मिसाइलें बनाने के लिए उसे क्रायोजेनिक इंजनों की दरकार होगी.
इसके अलावा जियो-सिंक्रोनस सेटेलाइट लॉन्च वेहिकल का भी निर्माण किया जा रहा है. यह वर्ष 2017 तक चार हजार किलोग्राम के मानव निर्मित उपग्रह को मानवसहित अंतरिक्ष में भेजने में सक्षम होगा. क्रायोजेनिक इंजन के विकास के साथ ही इसरो ने केरोसीन ईंधन से चलने वाली सेमी-क्रायोजेनिक इंजन को अपने अंतरिक्ष यानों में प्रयोग करने के लिए एक कार्यक्रम बनाया है. भविष्य में अंतरिक्ष यानों के बूस्टर के लिए इन इंजनों का इस्तेमाल किया जायेगा.
जीएसएलवी-डी 5 का प्रक्षेपण टला
जीएसएलवी-डी5 के प्रक्षेपण के लिए आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा स्थित प्रक्षेपण केंद्र से उलटी गिनती रविवार को सुबह में 11:50 बजे ही शुरू हो गयी थी. स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन के इस प्रक्षेपण को देश में विकसित प्रौद्योगिकी की क्षमता को परखने के लिहाज से बेहद अहम माना जा रहा था. इसकी सफलता पर इसरो समेत पूरे देश की नजर टिकी हुई थी. इसकी एक वजह यह है कि तीन वर्ष पूर्व इसका पहला परीक्षण असफल रहा था. आंध्र प्रदेश के श्रीहरिकोटा स्थित प्रक्षेपण केंद्र से जीएसएलवी-डी5 का प्रक्षेपण सोमवार शाम को 4:50 पर किया जाना था, जिसे आखिरी समय में टाल दिया गया. इस रॉकेट की लागत करीब 160 करोड़ रुपये है, जबकि इसके उपग्रह पर 45 करोड़ का खर्च आया है. जीएसएलवी-डी5 अपने साथ 1980 किलोग्राम भार के संचार उपग्रह जीसैट- 14 को अपने साथ ले जायेगा. देश में संचार सुविधाओं को उन्नत बनाने हेतु इस तरह के जीएसएलवी के लिए ऐसे क्रायोजेनिक इंजनों की दरकार है, जो पांच टन से ज्यादा वजन के उपकरणों को अंतरिक्ष में ले जाने में सक्षम हों. जीएसएलवी की क्षमता फिलहाल डेढ़ टन तक वजन के उपकरण को ले जाने की ही है.