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हमारे विकास मॉडल के केंद्र में हो आम आदमी

– जेएनयू के प्रोफेसर अरुण कुमार जाने–माने अर्थशास्‍त्री हैं. कालेधन पर उनकी किताब ‘ब्लैक इकोनॉमी इन इंडिया’ दुनियाभर में चर्चित रही है. अब अपनी नयी किताब ‘इंडियन इकोनॉमी सिन्स इंडिपेंडेंस : परसिस्टिंग कॉलोनियल डिसरप्शन’ में उन्होंने आजादी के बाद देश की अर्थव्यवस्था के तमाम कामयाब व नाकामयाब पहलुओं पर विस्तार से प्रकाश डाला है. भारत […]

जेएनयू के प्रोफेसर अरुण कुमार जानेमाने अर्थशास्‍त्री हैं. कालेधन पर उनकी किताब ब्लैक इकोनॉमी इन इंडियादुनियाभर में चर्चित रही है. अब अपनी नयी किताब इंडियन इकोनॉमी सिन्स इंडिपेंडेंस : परसिस्टिंग कॉलोनियल डिसरप्शनमें उन्होंने आजादी के बाद देश की अर्थव्यवस्था के तमाम कामयाब नाकामयाब पहलुओं पर विस्तार से प्रकाश डाला है. भारत में कैसा हो विकास मॉडल, क्यों बरकरार है आर्थिक असमानता, क्यों बढ़ रहा है कालाधन, कैसा है हमारा नेतृत्व जैसे अनेक मुद्दों पर विनय तिवारी ने उनसे लंबी बातचीत की.

* आजादी के बाद, खास कर आर्थिक उदारीकरण के बाद की भारतीय अर्थव्यवस्था पर अनेक किताबें पहले भी प्रकाशित हो चुकी हैं. फिर एक नयी किताब लिखने की जरूरत क्यों पड़ी?

भारतीय अर्थशास्त्र और पब्लिक फाइनांस मैं काफी समय से पढ़ाता रहा हूं. मैंने देखा कि आज के छात्र समझते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था 1991 से यानी उदारीकरण के बाद शुरू हुई. उन्हें 1950 की अर्थव्यवस्था और विकास की समस्या के बारे में जानकारी नहीं हैं. अब तक भारतीय अर्थव्यवस्था पर जितनी किताबें आयी हैं उनमें ज्यादातर संपादित किताबें हैं और किसी खास विषय के बारे में ही जानकारी उपलब्ध हैं. मैंने सोचा कि छात्रों को भारतीय अर्थव्यवस्था की समग्र जानकारी हो, इसलिए यह किताब लिखा.

इस किताब में अर्थव्यवस्था के सभी पहलुओं का जिक्र किया गया है. समाज में सब चीजें एकदूसरे से जुड़ी होती हैं. महत्वपूर्ण यह है कि गरीबी, शिक्षा, स्वास्थ्य के क्षेत्र में समाज को कितनी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है. इन समस्याओं का कारण एक है या अनेक, इसे समझना बेहद जरूरी है. आजादी के बाद कैसे चीजें नियंत्रण से बाहर होती गयीं, किताब में इसका भी जिक्र है.

आजादी के बाद शासन की जिम्मेवारी संभालनेवालों ने अपने निजी हितों को तवज्जो देना शुरू कर दिया और यह धीरेधीरे व्यापक रूप लेता गया. इससे राष्ट्रीय आंदोलन की सोच पीछे छूट गयी. कई सफलताओं के बावजूद कई असफलताएं, मसलन गरीबी, कुपोषण, अशिक्षा, बढ़ता प्रदूषण अब भी चिंता के विषय हैं. किताब में देश की सफलताओं और असफलताओं को ऐतिहासिक संदर्भो में समझाने की कोशिश की गयी है.

* आपने लिखा है कि किसी भी देश के विकास में नेतृत्व की भूमिका काफी महत्वपूर्ण होती है और भारत में आजादी के बाद से ही नेतृत्व कमजोर रहा है. तो देश को एक मजबूत नेतृत्व कैसे मिल सकता है? नेतृत्व की कमजोरी से भारत को कितना नुकसान हुआ है?

किसी भी देश के विकास में नेतृत्व का अहम योगदान होता है, क्योंकि इसका असर सभी संस्थाओं पर पड़ता है. नेतृत्व की कमजोरी का असर हर ओर दिखायी देता है. भारतीय नेतृत्व की कमजोरी की जड़ें औपनिवेशिक काल से जुड़ी हुई हैं और यही वजह है कि आजादी के बाद इसकी गुणवत्ता में तेजी से गिरावट आयी. लॉर्ड मैकाले की नीति अपना कर ब्रिटिश शासकों ने अपने और आम लोगों के बीच एक संभ्रांत वर्ग तैयार किया. इसी वर्ग ने राष्ट्रीय आंदोलन की अगुवाई की और फिर आजाद भारत का शासक वर्ग बना. उस समय कांग्रेस में कई दिग्गज नेता थे, लेकिन विकास की उनकी सोच पश्चिमी मॉडल पर ही आधारित थी. इसलिए कांग्रेस की गलत नीतियों के कारण समस्याएं गंभीर होती चली गयी.

नेतृत्व आखिर कैसे भटका, यह बड़ा सवाल है. ऐसा इसलिए हुआ कि वे बुनियादी समझ विकसित नहीं कर पाये. बुनियादी समस्या के कारण समाज का ढ़ांचा टूटा. किसी भी समस्या का ऐतिहासिक पहलू होता है. यही कारण है कि टॉल्सटाय ने कहा था कि केवल 20 हजार लोग 20 करोड़ लोगों पर आखिर कैसे हावी हो गये. अंगरेजों ने कोई लड़ाई नहीं लड़ी. उन्होंने भारतीयों की हर कमजोरी को और बढ़ा दिया. आजादी के 65 साल बाद यह कमजोरी बढ़ी ही है. यही वजह है कि न्यायपालिका सहित सभी महत्वपूर्ण संस्थाओं पर असर पड़ा है.

समस्या यह है कि आज का संभ्रात वर्ग समझता है कि वह बहुत अच्छा कर रहा है. बुनियादी समस्याओं की ओर उसका ध्यान नहीं जाता है. किसी भी काम के लिए पहले उसकी समझ होना जरूरी है. जब समझ और दर्द हो तभी काम किया जा सकता है. भारतीय नेतृत्व के पास यही बुनियादी कमजोरी है.

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* आपने पूंजीवादी और साम्यवादी अर्थव्यवस्था के इतर मौजूदा आर्थिक हालात में एक वैकल्पिक मॉडल अपनाने की जरूरत पर जोर दिया है. यह मॉडल क्या है और भारत में इसकी जरूरत क्यों है?

गांधी जी का मानना था कि आर्थिक नीति के केंद्र में सबसे निचला व्यक्ति होना चाहिए. लेकिन 1991 से पहले और उसके बाद भी आर्थिक नीतियों में आम आदमी की बुनियादी जरूरतों को हल करने पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया. 1950 से ही आर्थिक नीतियों का मुख्य मकसद निवेश बढ़ाना रहा है, कि रोजगार. होना यह चाहिए था कि हम रोजगार और पर्यावरण संरक्षण पर ध्यान देते. प्रदूषण से आम आदमी प्रभावित होता है. कई जगहों पर पीने का पानी प्रदूषित हो गया है.

विकास ऐसा होना चाहिए जिसमें हर व्यक्ति को उसका लाभ मिले, पर्यावरण संरक्षण हो और रोजगार के अवसर बढ़ें. देश का हर व्यक्ति कैसे उत्पादक हो, इस पर ध्यान देने की जरूरत है. सभी को शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधा समान रूप से उपलब्ध हो, तभी समाज में बराबरी आयेगी. मौजूदा शिक्षा इतनी महंगी हो गयी है कि लोगों को बराबरी का मौका ही नहीं मिल पा रहा.

गांधी जी ने कहा था कि आम लोगों की जरूरत के लिए संसाधन पर्याप्त हैं, लेकिन उनके लालच के लिए नहीं. मौजूदा अर्थव्यवस्था उपभोग पर आधारित है. लोग सोचते हैं कि और अच्छा जीवन हो, सारी सुखसुविधाएं मिलें, भले ही पर्यावरण पर और दूसरों पर इसका प्रतिकूल असर पड़ता हो. ऐसे हालात को बदलने के लिए ही एक वैकल्पिक मॉडल की जरूरत है, जिसमें उपभोक्तावाद हो. भारत ही ऐसा देश है, जो यह मॉडल दे सकता है. क्यूबा जैसे छोटे देश में स्वास्थ्य सुविधा काफी अच्छी है.

भारत, चीन, ब्राजील जैसे बड़े देशों में सिर्फ भारत के पास ही वैकल्पिक आर्थिक मॉडल देने की क्षमता है. भारत में इतने संसाधन हैं कि यहां सभी को बुनियादी सुविधा मिल सकती है. इससे वैश्वीकरण के दौर में भारत अलगथलग नहीं पड़ेगा. आज आयात काफी अधिक क्यों है, क्योंकि हम फिजूलखर्ची कर रहे हैं. देश में पब्लिक ट्रांसपोर्स सिस्टम पर्याप्त नहीं है. लोग निजी कार की बजाय पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करने लगें तो पेट्रो पदार्थ की खपत दस गुनी कम हो जायेगी.

* पूरी लोकतांत्रिक प्रणाली अत्यंत महंगी होती जा रही है. विधायकों और सांसदों की विलासित बढ़ती जा रही है. नेताओं की सुरक्षा पर खर्चे बढ़े हैं. अरबपति सांसदों की संख्या बढ़ रही है. राजनीतिक दलों को हजारों करोड़ रुपये के चंदे मिल रहे हैं. यह धनतंत्र है या लोकतंत्र? धनतंत्र के सहारे देश का भला कैसे हो सकता है?

इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझने की जरूरत है. दक्षिण अफ्रीका और भारत के राष्ट्रीय आंदोलन में बुनियादी अंतर रहा है. भारत के राष्ट्रीय आंदोलन की अगुवाई संभ्रात वर्ग के हाथों में रही, जबकि दक्षिण अफ्रीका का राष्ट्रीय आंदोलन आम लोगों के बीच से निकला. नेल्सन मंडेला और काले लोगों ने इसमें बराबर की भागीदारी निभायी. ऐसे में वहां की लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोगों की भागीदारी अधिक है, जबकि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था केंद्रीकृत कर दी गयी.

भारत में राजनेता अपने आप को शासक मानते हैं, जबकि यूरोप तथा अमेरिका में नौकरशाह और राजनेता खुद को पब्लिक सर्वेट मानते हैं. भारत में लोगों को सार्वजनिक सुविधाएं नहीं मिल रही हैं. जनता परेशान है. शासक वर्ग अपने हितों को पूरा करने पर ध्यान दे रहा है. जब शासक वर्ग पर देश हित के बजाय खुद का हित हावी होने लगे तो व्यवस्था में खामियां आती ही हैं. इससे भ्रष्टाचार बढ़ने लगा. नेताओं, नौकरशाहों और अपराधियों के बीच सांठगांठ बन गयी. इससे क्रोनी कैपिटलिज्मने जन्म लिया. इस क्रोनी कैपिटलिज्म से कालेधन की अर्थव्यवस्था का विस्तार हुआ. संसाधनों की खुली लूट होने लगी.

पूरी व्यवस्था कुछ लोगों के हाथों में सिमट गयी. देश में संभ्रांत वर्ग केंद्रित नीति अपनायी गयी. इससे संसद में करोड़पति सांसद आने लगे. राजनीतिक पार्टियां अमीरों का संगठन बन कर रह गयीं. लेकिन लोगों के पास इसका विकल्प नहीं है. पिछले कुछ दशकों से सभी प्रधानमंत्रियों के करीबियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं. प्रधानमंत्री भले ईमानदार रहे हों, लेकिन उन्होंने भ्रष्ट व्यवस्था को चलने दिया. इसमें नेतृत्व की कमजोरी साफ तौर पर दिख रही है.

भ्रष्टाचार के कारण पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था कमजोर हुई है. भ्रष्टाचार के कारण ही लोकतांत्रिक प्रणाली महंगी भी हुई है. नेताओं में विलासिता बढ़ती जा रही है. सुरक्षा घेरे में रहना स्टेटस सिंबलबन गया है. कालेधन के कारण चुनाव प्रणाली महंगी हो गयी है. यही कारण है कि अरबपति सांसदों और विधायकों की संख्या लगातार बढ़ रही है. असल में विकास का मौजूदा मॉडल सही नहीं है. यह लोकतंत्र नहीं बल्कि धनतंत्र है. इसी धनतंत्र के कारण नक्सलवाद फैल रहा है. सत्ता के लिए आम लोगों की बुनियादी जरूरतों की बजाय कॉरपोरेट के हित महत्वपूर्ण हो गये हैं.

दरअसल आजादी के बाद संस्थाओं को विकसित करने की जरूरत थी, लेकिन इन्हें राजनीतिक हित साधने का औजार बना दिया गया. राजनीति पर परिवारवाद हावी होता चला गया. इससे पूरी व्यवस्था भ्रष्ट बन गयी. इस व्यवस्था से देश का भला नहीं हो सकता है. मौजूदा शासन प्रणाली और सोच को बदलने की जरूरत है.

* कालाधन पर आपकी पुस्तक काफी चर्चित रही है. विदेशों में भारत का कितना कालाधन है. यह भारत की अर्थव्यवस्था को किस तरह नुकसान पहुंचा रहा है?

कालाधन को लेकर कोई स्पष्ट आंकड़ा नहीं है, लेकिन एक अनुमान के मुताबिक भारतीयों के पास दो से ढाई ट्रिलियन डॉलर कालाधन है. यह नेताओं, नौकरशाहों और पूंजीपतियों का है. 1991 में जब ब्रिटेन में बीसीसीआइ बैंक दिवालिया हो गया था, तो इसमें कई भारतीयों का भी पैसा डूब गया था.

भारत में 70 के दशक से कालेधन के प्रवाह में तेजी आयी है. कालेधन का मतलब है कि आपकी अर्थव्यवस्था से पैसा बाहर जा रहा है. इससे बाजार में पूंजी की कमी हो जाती है. पूंजी की कमी से विकास प्रभावित होता है. नीतियां असफल होती हैं. मौद्रिक नीति असफल होती है. महंगाई बढ़ती है. शिक्षा, स्वास्थ्य के विकास पर प्रतिकूल असर पड़ता है. सामाजिक कल्याण की योजनाएं प्रभावित होती हैं. कालाधन बढ़ने के कारण ही भारत की विकास दर पांच फीसदी से नीचे पहुंच गयी है.

अगर कालाधन नहीं होता तो आज भारत दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश होता. यहां के लोगों की सालाना आय 11 हजार डॉलर के आसपास होती और अर्थव्यवस्था 11 ट्रिलियन डॉलर की होती. अगर कालाधन नहीं होता तो देश में लाखों स्कूल, हॉस्पीटल और अन्य ढ़ांचागत सुविधाओं का बड़े पैमाने पर विकास हुआ होता. लेकिन आज कालेधन की अर्थव्यवस्था जीडीपी का 50 फीसदी हो गयी है. कालेधन का प्रभाव आम लोगों के जीवन पर सीधे तौर पर पड़ता है. अन्य देशों ने इससे निबटने की पहल की है, लेकिन भारत सरकार इस दिशा में कोई भी कदम उठाने से हिचकिचाती रही है.

* आज भारतीय अर्थव्यवस्था 1991 की तरह संकट में है. इस संकट की वजह क्या है और इससे कैसे निबटा जा सकता है?

मौजूदा आर्थिक संकट की बड़ी वजह कालाधन ही है. भ्रष्टाचार और घोटालों के उजागर होने से निवेश कम होने लगा है. घोटालों से लोगों में उपजे गुस्से के कारण नौकरशाह और राजनेता नीतिगत निर्णय लेने में डरने लगे, जिससे नीतिगत स्तर पर ठहराव गया. देश का निजी क्षेत्र भ्रष्ट हो गया है. वह जानता है कि नेताओं से कैसे काम कराया जाता है. अभी क्रोनी कैपिटलिज्म के आधार पर निवेश हो रहा था. सांठगांठ कर सभी कमा रहे थे. वह मॉडल अब टूट गया है. लेकिन इसके बदले सरकार के पास निवेश का कोई नया मॉडल नहीं है. इससे अर्थव्यवस्था कमजोर हुई है.

वैश्वीकरण की प्रक्रिया नयी नहीं, सदियों पुरानी है. पर पुरानी व्यवस्था में निवेश दोतरफा होता था, नयी व्यवस्था में एकतरफा निवेश हो रहा है. अब सारे विचार बाहर से आने लगे हैं, हमने अपना कुछ भी विकसित नहीं किया. आज सफल छात्र होने का मतलब विदेश में शिक्षा हासिल करना हो गया है. इसी कारण सभी विकासशील देशों की हालत खराब हो गयी है. एकतरफा वैश्वीकरण से उन्हें काफी नुकसान हुआ है.

सभी दौर के विकास के मॉडल अलगअलग होते हैं. 1991 के बाद का मॉडल बाजार केंद्रित है. आज बाजार सबकुछ में प्रवेश कर गया है. सबकुछ में बाजार की सोच हावी हो गयी है. बाजार की सोच हावी होने से राष्ट्रीय नीति कमजोर होती चली गयी है. मौजूदा आर्थिक संकट की प्रमुख वजह यही है. किसी देश की नीति दूसरे देश में भी सफल नहीं हो सकती, क्योंकि सबके भौगोलिक हालात और समस्याएं अलगअलग होती है. इसलिए मौजूदा आर्थिक हालात से पार पाने के लिए भारत को अपने हितों वाली नीतियों को लागू करना होगा.

* अरुण कुमार

प्रोफेसर अरुण कुमार जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) में सेंटर ऑफ इकोनॉमिक स्टडीज एंड प्लानिंग विभाग के प्रमुख हैं. पब्लिक फाइनांस, मैक्रो इकोनॉमिक्स, ग्रोथ इकोनॉमिक्स और डेवलपमेंटल इकोनॉमिक्स में इन्हें विशेषज्ञता हासिल है. 1970 में दिल्ली विवि से बीएससी फिजिक्स में गोल्ड मेडलिस्ट रहे अरुण कुमार ने फिजिक्स से ही एमएससी की और इकोनॉमिक्स से पीएचडी किया. 1984 से जेएनयू में अध्यापन का कार्य शुरू करनेवाले अरुण कुमार ने 1999 में चर्चित किताब ब्लैक इकोनॉमी इन इंडियालिखी. इस किताब में भारत में कालेधन की अर्थव्यवस्था और उससे भारत को हो रहे नुकसान का विश्‍लेषण किया गया है. कालेधन पर उनके कई लेख अंतरराष्ट्रीय जर्नलों में छपते रहे हैं. हाल ही में उन्होंने आजादी के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था के समक्ष चुनौतियों और खामियों पर आधारित किताब इंडियन इकोनॉमी सींस इंडिपेंडेंस : परसिस्टिंग कोलेनियल डिसरप्शनलिखी है. विजन बुक्स द्वारा प्रकाशित इस किताब में अर्थव्यवस्था और समाज के विभिन्न पहलुओं का विश्‍लेषण किया गया है. इसमें पूंजीवादी और साम्यवादी व्यवस्था के इतर एक वैकल्पिक आर्थिक मॉडल अपनाने पर भी जोर दिया गया है.

– देश में सिर्फ तीन फीसदी समाज समृद्ध है. यही समाज देश को चला रहा है और संसाधनों तक इस तबके की ही पहुंच है. इस वर्ग को सारी सुखसुविधाएं चाहिए. ये रोज सांठगांठ करते हैं. इन्हें देश से कोई मतलब नहीं है. इस वर्ग का समाज से भावनात्मक लगाव खत्म हो गया है. इनकी करतूतों का देश के गरीबों पर क्या असर पड़ रहा है, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं है. वे सिर्फ अपने हक के लिए देश को चला रहे हैं.

– शर्मनाक है यह असमानता

* आपका कहना है कि आर्थिक असमानता की बड़ी वजह मैकाले की शिक्षा नीति है, जो आम लोगों और संभ्रांत वर्ग के बीच फासले को बरकरार रखने के लिए तैयार की गयी थी. मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में क्या खामी है और नयी शिक्षा व्यवस्था कैसी होनी चाहिए?

शिक्षा किसी भी देश के निर्माण का महत्वपूर्ण अंग होती है. मैकाले ने अंगरेजी शासन को कायम रखने के लिए संभ्रांत वर्ग तैयार करनेवाली शिक्षा नीति को बढ़ावा दिया. आजादी के बाद भी आधुनिकता के नाम पर यही नीतियां अपनायी गयीं. इससे समाज में शिक्षा के स्तर पर असमानता बढ़ी. अमीर अच्छी शिक्षा हासिल कर आर्थिक तौर पर संपन्न होने लगे और गरीब पैसे के अभाव में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा हासिल करने से वंचित होने लगे. इससे समाज में आर्थिक असमानता बढ़ी है. राष्ट्र निर्माण में शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि सभी चीजों को प्रभावित करती है.

शिक्षा मौजूदा और भविष्य के समाज का निर्धारण करती है. शिक्षा का मतलब सिर्फ साक्षरता नहीं है, बल्कि इसका राष्ट्र निर्माण में उपयोग होता है. शिक्षा का प्रयोग स्वतंत्र विकास के लिए किया जा सकता है. मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में ज्ञान विकसित करने पर जोर नहीं दिया गया. बेहतर संस्थानों में दाखिले के लिए रट्टा मारने की प्रवृति बढ़ती जा रही है. इससे शोध नहीं हो रहा है. बड़ी कंपनियों में भी रिसर्च नहीं हो पा रहा है. इसकी वजह है शिक्षा के क्षेत्र में सरकार का गैर जरूरी हस्तक्षेप.

* देश में आर्थिक विषमता अलगअलग राज्यों में तेजी से बढ़ी है. कुछ राज्य तेजी से आगे बढ़े है, कुछ पीछे छूट गये हैं, जैसे बिहार, झारखंड आदि.इनका भविष्य क्या है?

राज्यों में बाजार डॉलर से प्रभावित है. समृद्ध राज्यों में लोगों की खरीदने की शक्ति अधिक है, जबकि गरीब राज्यों में कालाधन अधिक था. जहां गवर्नेस सुधरा है, वहां स्थितियां बदली हैं. लेकिन यह स्थिति कुछ समय के लिए ही है. पिछड़े राज्य कृषि प्रधान रहे हैं, जबकि अमीर राज्यों में सेवा क्षेत्र का विकास काफी तेजी से हुआ है.

उदारीकरण के बाद कृषि क्षेत्र की अनदेखी हुई है. अगर कृषि का आधुनिकीकरण किया गया होता, तो आज कृषि क्षेत्र की स्थिति बेहतर होती. हमें ध्यान रखना होगा कि बाजार गरीबी को खत्म नहीं कर सकता है, क्योंकि इससे आय के वितरण में असमानता खत्म नहीं होती है. जबतक बाजारवाद रहेगा, असमानता बनी रहेगी.

बिहार ने पिछले कुछ सालों में आर्थिक विकास के मोरचे पर अच्छी सफलता हासिल की है, पर इसे लंबे समय तक बनाये रखना मुश्किल होगा. बिहार एक कृषि प्रधान राज्य है. वहां कृषि के विकास को तवज्जो देकर बेहतर परिणाम हासिल किया जा सकता है. विकास की समग्र सोच के साथ बेहतर गवर्नेस को अपना कर पिछड़े राज्य आगे बढ़ सकते हैं. सिर्फ निजी पूंजी के भरोसे विकास नहीं किया जा सकता है.

* योजना आयोग के एक पूर्व सदस्य जयदेव शेट्टी ने 1981-82 में कहा था कि लगभग 20 लाख लोग (बिचौलिये) ऐसे हैं, जिनका अर्थव्यवस्था के उत्पादन में एक पैसे का योगदान नहीं है, पर वे दलाली कर पांचसितारा जीवन जीते हैं. तब की स्थिति ऐसी थी, तो आज हालात कैसे होंगे?

पहले की तुलना में हालात खराब हुए हैं. बाजारबाद हावी रहेगा तो ऐसी व्यवस्था बनी रहेगी. क्रोनी कैपिटलिज्म इसी पर आधारित है. बिचौलियों की बढ़ती संख्या के कारण ही कालाधन बढ़ा है. देश में सिर्फ 3 फीसदी समाज समृद्ध है. यही समाज देश को चला रहा है और संसाधनों तक इस तबके की ही पहुंच है. इस वर्ग को सारी सुखसुविधाएं चाहिए. ये रोज सांठगांठ करते हैं. इन्हें देश से कोई मतलब नहीं है. इस वर्ग का समाज से भावनात्मक लगाव खत्म हो गया है.

इनकी करतूतों का देश के गरीबों पर क्या असर पड़ रहा है, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं है. इस वर्ग को अपने लिए 24 घंटे बिजली, पानी और अच्छी सड़कें चाहिए. वे अपने हक के लिए देश को चला रहे हैं. हर स्तर पर बिचौलिये हावी हो गये हैं. इससे गरीबों को काफी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है. हाल में उजागर हुए घोटालों में भी बिचौलियों की भूमिका सामने आयी है.

* योजना आयोग द्वारा हाल में जारी गरीबी के आंकड़ों को आप कैसे देखते हैं. ऐसे आंकड़ों में गरीबी उन्मूलन और समाज कल्याण पर कितना ध्यान रखा जाता है और कितनी राजनीति होती है?

सरकार गरीबी के आंकड़े को सब्सिडी कम करने के लिहाज से देखती है. इसका राजनीतिक मकसद भी होता है. लेकिन गरीबी सामाजिक होती है. हम जानवर को गरीब नहीं मानते हैं. सामाजिक बदलाव से गरीबी बदलेगी. गरीबी के आकलन का पैमाना जगह और समय के लिहाज से तय होना चाहिए. जैसे अगर लद्दाख में किसी के पास अच्छा कपड़ा नहीं होगा तो उसका जीना मुश्किल हो जायेगा. जबकि तमिलनाडु में छप्पर के नीचे लुंगी में भी जिंदगी गुजारी जा सकती है. ऐसे में सभी जगह की गरीबी अलगअलग होती है. वैसे ही 60 के दशक में गरीबी का पैमाना अलग था, आज इसके मानक बदल गये हैं.

देश में 40 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं. उन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य नहीं मिलेगी तो वे गरीब ही रहेंगे. सरकारी आंकड़े यह दर्शाने की कोशिश करते हैं कि उसकी नीतियां सफल रही है. साथ ही यह दिखाना है कि नयी आर्थिक नीति लागू होने के बाद गरीबों की संख्या में व्यापक कमी आयी है. जबतक बदलते स्वरूप के आधार पर इसका निर्धारण नहीं होगा, गरीबी की हकीकत को हम नहीं समझ पायेंगे. आजादी के 65 साल बीतने के बाद भी आधे से अधिक लोगों के 30 रुपये रोजाना पर जीवन यापन करने पर हमें शर्म आनी चाहिए.

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