अमिताभ कुमार पटना को लेकर बहुत पजेसिव लगते हैं, लेकिन निराश भी. वह कहते हैं कि कहीं भी जाइए, जैसे ही लोगों को पता चलता है कि मैं बिहार का हूं, लोग नीतीश और लालू की बात करने लगते हैं. मैं इस पर बात नहीं करना चाहता. मैं तो अपने माता-पिता की बात करना चाहता हूं जो पटना में रहते हैं. पटना पर अपनी पुस्तक ‘ए मैटर ऑफ रैट्स’ का जिक्र करते हुए वह कहते हैं कि डूबते जहाज से सबसे पहले चूहे भागते हैं. मैं भी चूहा हूं जो पटना से भाग गया. लेकिन वह तुरंत साफ करते हैं कि मैं पटना को डूबता हुआ जहाज नहीं मानता, लेकिन अपने को चूहा मानता हूं. मैंने अमिताभ से शिक्षा पर बात की, हिंदी साहित्य और हिंदी समाज के बीच बढ़ रही दूरियों पर बात की. यह भी पूछा कि वे बिहार में आ रहे बदलावों को कैसे देखते हैं? वह कहानियां सोचने लगते हैं कि अपनी बात कहने के लिए. उम्मीद और निराशा की जीवंत कहानियां, जो जवाब भी देती हैं और सवाल भी करती हैं हम सबसे.. बहुत गंभीर सवाल.. पढ़िए अमिताभ कुमार से बातचीत की दूसरी और अंतिम किस्त.
पटना पर बात करना अमिताभ को बहुत अच्छा लगता है. वह डूब कर बात करते हैं.. बोलते–बोलते चुप हो जाते हैं.. छत की ओर ताकने लगते हैं और फिर शुरू हो जाते हैं– जब डेविड डेविडार ने मुझसे कहा कि हम आठ शहरों पर सीरीज करना चाहते हैं. सीरीज ऑन आइकोनिक सिटीज. मेरा पहला खयाल था– नहीं. मैंने अपने एक दोस्त सिद्धार्थ चौधरी का नाम लिया जिसने पटना पर किताब लिखी है, पटना रफकट. लेकिन उसने (डेविडार) कहा कि नहीं, आप ही लिखिए. मैंने उन लोगों से कभी पूछा नहीं, लेकिन जानना चाहूंगा कि उन्होंने पटना को क्यों चुना? दिल्ली–बंबई में बैठे लोग जो इधर नहीं आये हैं, इधर क्या, किसी छोटे शहर में नहीं आये हैं, वे क्या सोचते हैं कि पटना भारत का भविष्य है? हो सकता है. पटना ने अक्सर भविष्य को परिभाषित किया है. 1977 या 78 में किताब निकली थी कि ‘बिहार शोड द वे’. रघु राय की तसवीरें और सुनंदा के दत्ता रे की कमेंटरी थी उसमें. फोटो में जेपी आंदोलन का इतिहास. उसको देखें तो लगता है कि बिहार ने वाकई रास्ता दिखाया. लेकिन क्या आज भी बिहार उस स्थिति में है? है तो किस तरह से? मैं उस एडिटर के दिमाग में घुस कर जानना चाहता हूं कि उसने क्या सोचा होगा? उसने क्यों सोचा कि पटना एक आइकोनिक सिटी है. लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा हूं. दिल्ली है, चेन्नई है, कोलकाता है, मुंबई है. इन शहरों पर लिखा जा रहा है. ये शहर तो आइकोनिक हो सकते हैं, लेकिन पटना क्यों?
अमिताभ सोचने लगते हैं और फिर एकदम वापस लौटते हैं और बोलते हैं- मैं लिखना चाहता हूं. यहां मेडिकल सेल्समैन बहुत हैं. एक जमाना था, जब आप यहां किडनैपर बनते तो अच्छा पैसा कमाते. लेकिन वह एक पासिंग फेज था. लेकिन दवा का बिजनेस ज्यादा टिकाऊ है, क्योंकि बिहार में बीमार लोग बहुत हैं. लेकिन इसकी इकोनॉमी क्या है? एक मेरा दोस्त है, जिसने बहुत प्यारा पीस लिखा- दवा की भी जात होती है. उसके पिताजी बीमार हुए. वह डॉक्टर के पास गया. फिर परचा लेकर दवा की दुकान पर गया. दुकानदार ने पूछा, परचा लिखनेवाला डॉक्टर भूमिहार है क्या? उसने ऐसा क्यों पूछा? क्योंकि जो दवाएं परचे में लिखी थीं, उनको बनानेवाली कंपनियां भूमिहारों की थीं. तो राजपूत, भूमिहार, ब्राrाण.. मैं बहुत इच्छुक हूं यह जानने को कि अगर जान यहां बचती है, तो जाति से बचती है क्या? यह मैं समझना चाहता हूं.
फिर वह अपनी किताब ‘ए मैटर ऑफ रैट्स’ की ओर मुड़ते हैं. मैंने अपनी किताब में तीन तरह के पटना की बात की है. अगर आप लेखक हैं और रियलिटी को छूना चाहते हैं, तो जो अपनी जान के लिए लड़ रहा है, वह सबसे रियल है. आज सुबह जो बच्चा मेरी बहन के नर्सिग होम में लाया गया, मैं उसमें इंटरेस्टेड हूं. जन्म के दस मिनट बाद यहां आया. वह किस तरह सांस ले रहा है, किस तरह कराह रहा है, मैं ऐसी स्टोरी लिखना चाहता हूं. मैं पटना पर किताब लिखने भी इसी रुचि के साथ आया. जैसे सुबोध गुप्ता थे. मैं जानना चाहता था कि वे लोग आज जो ‘कुछ’ हैं, वे कैसे बने. उनकी यात्र क्या रही? हमारे स्कूल से जो लोग निकले, वे कहां गये? मैं यहां के लोगों की कहानियों में रुचि रखता हूं. मैंने अपनी किताब में लोगों की कहानियां ही सुनायी हैं. इस किताब को लिखने का किस्सा भी रोचक है. मैं जब इस किताब के लिए काम करके वापस अपने कॉलेज में गया, तो वहां क्रिएटिव राइटिंग का एक कोर्स पढ़ाना था, जिसमें 12-15 स्टूडेंट थे. मैंने उन स्टूडेंट्स से कहा कि सब लोग रोज टहलें और रोज 150 शब्द लिखें. मैं भी लिखने लगा. टहला तो मैं नहीं, यह बात मैं स्वीकार करूंगा. लेकिन लिखा जरूर. जब कोर्स खत्म हुआ तो हमारे स्टूडेंट्स ने 150 डॉलर का वाकिंग शू मुङो भेंट किया. ..अमिताभ बोलते हैं- भाईजी, इहां एजूकेशन की बात भी हम कह दिये हैं.
अब बात बदलावों की. अमिताभ फिर कहानी सोचने लगते हैं. अपना पेन उंगलियों में नचाते हैं और फिर बोलना शुरू कर देते हैं.. यह सही है कि लालू के समय में एक तरह का मिसरूल था, सड़कें खराब थीं, इतने बजे के बाद आप इस रोड पर नहीं जा सकते थे आदि आदि. मेरी एक किताब है ‘होम प्रोडक्ट्स’. इसका एक कैरेक्टर है जो मनोज वाजपेयी जैसा है. मैं उससे मुंबई में मिला. अमेरिका में मिला. उसका गांव मेरे गांव के पास है. मैं उसके गांव में गया. मैं बेतिया गया उससे मिलने के लिए, उसके बाद टाइम्स ऑफ इंडिया में मेरी एक रिपोर्ट आयी थी– एरिया ऑफ डार्कनेस. रात को जब बिजली नहीं रहती तो शहरों में कैसे लोग अपनी प्राइवेसी रिवील करते हैं, गलियों में. और जब कोई गाड़ी आ गुजरती है तो वे कैसा महसूस करते हैं. अंधेरा उनकी प्राइवेसी को उधेड़ रहा होता है. तो बेतिया में जिस आदमी से मिलने गया था, उसके घर के बाहर बड़ा–सा गेट था जिसमें चेन बंधी थी. अंदर भी उसी तरह से था. कुछ देर रुकना पड़ा, चिल्लाना पड़ा, तब कोई आदमी आया. उसके साथ मैं अंदर गया और फिर एक गेट था, वह खुला तब कहीं जाकर मैं उस आदमी तक पहुंचा. मुङो लगता है कि अब यहां बदलाव आ गया है. जो स्वाभाविक भय का माहौल था, अब वह नहीं दिखायी देता. लेकिन सिर्फ सड़कें बन जाने से तो सबकुछ बदल नहीं जाता. लोग कहते हैं कि पटना में मॉल बन गया. हम जिस दिन मॉल देखने गये, उसी दिन वहां एक बाप अपनी बेटी को बचाने की कोशिश में गाड़ी से कुचल गया. बड़े–बड़े रोड बन गये, लेकिन आप जाइए एक्सीडेंट भी देखिए. मैं हाइवे पर जा रहा हूं. देख रहा हूं कि बड़ा–सा जाम है. पता किया तो पता चला कि एक मरीज सरकारी अस्पताल में मर गया क्योंकि डॉक्टर साहब वहां नहीं थे. मरीज मर गया, लोग इसलिए जाम किये हुए थे. ये वास्तविकता भी है. हम विकास के हाइवे पर तो हैं, लेकिन हाइवे शवों से भरा हुआ है. भूख से बदहाल भिखारी, अनपढ़ बच्चे.. द फ्यूचर इज ग्रिम.
हमें बड़ा ताज्जुब होता है. बोरिंग रोड चले जाइए. प्रभात खबर के कार्यालय से निकलिए और बायें मुड़िए. अंगरेजी में कहूंगा- शियर एकरेज ऑफ साइनेज. लगता है जैसे उद्योगों या उद्यमशीलता का विस्फोट हो रहा है. मैं नहीं जानता कि काला पैसा है या कैसा पैसा है, लेकिन दिखने लगता है कि उद्यमशीलता इतनी ज्यादा है. लेकिन यह उद्यमशीलता नहीं है, यह कुछ हद तक कंज्यूमरिज्म को फीड करने का तरीका है. प्रोडक्शन क्या हो रहा है, मैं नहीं जानता. हम इनवर्टर तो बेच रहे हैं, लेकिन बिजली नहीं बना पा रहे. एसी बेच रहे हैं, लेकिन एसी बना नहीं पा रहे. मैं इकॉनोमिस्ट नहीं हूं, लेकिन मुङो लगता है कि यह हमारी अर्थव्यवस्था का खोखलापन है. मेरे स्कूल के दोस्त हैं जो, उनसे मैं पिछले साल मिला. वे जब फेसबुक पर पोस्ट करते हैं तो उनके पोस्ट यह बताते हैं कि उनके इतने साथी आइएएस में चले गये, इतने आइएफएस हो गये. ये या वो. मुङो हमेशा लगता है कि यही एक हमारी इंडस्ट्री हो गयी है- अफसरों का उत्पादन. हमारे लेखक कहां हैं, हमारे इनवेंटर कहां हैं? कितने लोग हैं? रूल्स को फॉलो करना, लागू करना, तोड़ना हम अच्छी तरह से जानते हैं. और कुछ बना रहे हैं या नहीं, मैं निश्चित तौर पर कह नहीं सकता. बहुत चीजें इंटरप्राइजिंग हो रही होंगी, लेकिन मैं पूछना चाहता हूं कि इतने साइनबोर्ड हैं, इतनी चीजें बेची जा रही हैं, लेकिन ये चीजें बन कहां रही हैं? लोग कहेंगे न भाई कि अब होटल बहुत अच्छे हैं. चाइनीज फूड खा सकते हैं. फास्ट फूड खा सकते हैं. लेकिन बुक स्टोर कहां हैं? हमारे बुक स्टोर क्या बेच रहे हैं? या तो राबर्ट लुडलुम बिक रहे हैं, जॉन हेडली चेइज की किताबें बिक रही हैं या टेक्स्ट बुक बिक रही हैं. साहित्य कहां है? सीरियस नॉन-फिक्शन कहां है? यह मेरी शिकायत है. लोग हमेशा कहेंगे खुदाबख्श लाइब्रेरी. कितने लोग वहां जाते हैं? कितनी नयी चीजें वहां हैं?
अमिताभ ने एक लंबा पॉज लिया. फिर बोले- और क्या बात करनी है? लिटरेचर कह रहे थे आप? अब लिटरेचर पर आयें? मैंने कहा कि बिलकुल और सवाल दाग दिया, कुछ और रोचक किस्सों की उम्मीद में- हमारी सोसाइटी से साहित्य क्यों दूर हो रहा है? क्या ऐसा हो भी रहा है? या मैं गलत सवाल कर रहा हूं? अमिताभ थोड़ी देर चुप रहे, फिर बोले- एक अमेरिकन राइटर थी यूडोरा वेल्टी. उसे पुलित्जर भी मिला था. उसका देहांत हो गया है. उसने न्यूयॉर्कर में एक एप्लीकेशन दी थी कि मुङो नौकरी दे दीजिए. उसका जो एप्लीकेशन लेटर था, जैसे कोई अपना रंगीन दुपट्टा लहरा रहा हो. उसमें कोई औपचारिकता नहीं थी कि कोई सूट-टाई पहन कर आये और कहे कि मुङो नौकरी चाहिए. वह अपने एप्लीकेशन लेटर से एक एलान करती है, बड़े स्टाइल में. हमने कई दिनों पहले उस लेटर का लिंक शशि थरूर को दिया कि आप इसे रिट्वीट कर दीजिए. शशि थरूर के लाखों फालोवर हैं, इसलिए हमने उनसे रिट्वीट करने को कहा कि जिससे लोग जानें कि एप्लीकेशन लेटर किस तरह लिखा जा सकता है. (आप इस एप्लीकेशन लेटर को www.lettersofnote. com/2012/10/how-i-would-like-to-work-for-you.html पर पढ़ सकते हैं.
लिटरेचर वाले सवाल पर मैं कहना चाहता हूं– यहां पर खासतौर पर.. वी आर प्रिजनर्स ऑफ द फॉर्म. मतलब यहां सब फिक्स है कि यह भाषा कहानी की है, यह भाषा पत्रकारिता की है, यह भाषा मेम्वायर की है आदि आदि. हम लोग न मिश्रण की अनुमति देते हैं और न नये प्रयोगों की. हम लोग खाने में मिलावट तो करते हैं, लेकिन लिखने में नहीं. और मेरी कोशिश यह है और मेरा सुझाव भी होगा कि लिखने में भी मिश्रण और मिलावट की जाये. साहित्य और हमारी संवेदनशीलता, सिर्फ यही नहीं, हमारे एप्लीकेशन लेटर, हमारे व्यक्तिगत लेटर बहुत तय और संकुचित खांचे में ही रहते हैं. इसे तोड़ना चाहिए. हमारा समाज दरअसल तय खांचों में ही जीता है. मुङो लगता है कि हमें इस संकुचन को तोड़ कर नयी चीजें रचने की ओर बढ़ना चाहिए. वह सवाल पूछते हैं, जो लोग अंगरेजी नहीं पढ़ते, वे लोग भी क्या चेतन भगत वगैरह को पढ़ते हैं? फिर चुप हो जाते हैं अमिताभ. थोड़ी देर बाद आहिस्ते से बोलते हैं.. मिक्स्ड फॉर्म्स.. लिटरेचर से जो यहां एक्सपेक्टेशन है न.. आप जरा टिप टॉप आयें, टिप टो पर आयें, रूम में घुसें और फार्मल वे में.. मुङो लगता है कि हमारी सोसाइटी पूरे तौर पर ब्यूरोक्रेटिक सोसाइटी है. मैकाले के हम सभी पोते–पोतियां हैं. हिंदी से ज्यादा अंगरेजी.. हिंदी राइटिंग में.. हिंदी जर्नलिज्म में भी थोड़ा–सा.. कभी–कभी कोई कह सकता है कि ये तो टैबलॉयड कल्चर है, मैं ऐसा नहीं सोचता. एक वल्गैरिटी है उसमें. जो वल्गैरिटी मुङो बहुत डेमोक्रेटिक लगती है.. सड़क छाप, मुङो वह बड़ी डेमोक्रेटिक लगती है. एक स्वैगर (लोच) है जो अंगरेजी में नहीं है. अंगरेजी की कहानियां पढ़ें. वे सब पालतू लगती हैं. वे टेम्ड हैं. उनमें जंगलीपन नहीं है. मैं अपनी इस किताब में कुछ प्रयोग कर रहा हूं.
वे सवाल पूछते हैं कि कितने रिपोर्टर हैं इस देश में जो कहानीकार भी हैं? मुङो बहुत रु चि होगी यह देखने में कि रिपोर्टर रिपोर्टिग करें और साथ–साथ कुछ नयी चीज बनायें जो रिपोर्टिग से बिलकुल अलग हो. उसमें वे शब्दों के सहारे थोड़ा डांस करें. मैं ऐसा कुछ करना चाहूंगा. मैं उन लोगों में बहुत इंटरेस्टेड हूं. एक जेफ डायर है, उसने एक किताब लिखी है. जैसे टामस मान की कहानी है न, डेथ इन वेनिस. उससे कुछ मिलता–जुलता नाम है.. शायद जेफ इन वेनिस, जेफ इन वाराणसी. ये बंदा जो है न, उस तरह की लिखाई करता है.. एक इंच का स्पेस नैरेशन में रहता है. पूरा आर्ट इसी एक इंच में रहता है. इस तरह की राइटिंग बहुत रोचक होती है.
अमिताभ ज्यादा देर तक पटना से बाहर नहीं रह पाते. वे फिर लौटते हैं और कहते हैं कि मुङो लग रहा है कि मैं साहित्य को लेकर एक स्टोरी सुनाऊं- जब मैं पीएचडी कर रहा था, मैं पटना आया. मेरे पिता जी के एक मित्र थे प्रो आरएस शर्मा जो ऐंसिएंट इंडियन हिस्ट्री के नामी विद्वान थे. मैं उनके पास गया और बातें हो रही थीं. उन्होंने बताया कि जब हम लोग कॉलेज में थे, हम लोगों ने सोचा. भाई हम लोग सब कम्युनिस्ट हैं. हमारा जो हास्टल ब्वॉय है, उससे हमें अच्छा व्यवहार करना चाहिए. उसका नाम अक्लू था. हम लोगों ने हास्टल में उसे बुलाया और कहा, आज से हम सब आपको अक्लू जी कह कर बुलायेंगे. हम लोगों ने उससे कहा कि कुर्सी पर बैठिए. लेकिन उसने कहा कि हम कुर्सी पर नहीं बैठेंगे. हमने उससे फिर कहा कि नहीं-नहीं, आप बैठिए. हम लोगों ने उसे पकड़ कर कुर्सी पर बैठा दिया. लेकिन वह जब उठा तो फिर लौट कर नहीं आया. उन्होंने (प्रो शर्मा) पूछा, अक्लू कुर्सी पर क्यों नहीं बैठा? मैंने सोचा, वाह! यह लिटरेचर है. प्रो शर्मा इतिहास को इसी तरह की स्टोरी टेलिंग के जरिये पढ़ाते थे. हां, तो हम इस तरह की कहानी लिखना चाहते हैं कि अक्लू कुर्सी पर क्यों नहीं बैठा. मेरी किताब में जिक्र है अरविंद एन दास वाली कहानी का- एक मां और बेटा ट्रेन में सफर कर रहे हैं. मां कहती है कि मैं कभी-कभी सोचती हूं कि जिस तरह के हालात हैं, मुङो लगता है कि मैं खुदकुशी कर लूं. लड़का कहता है कि तुम क्यों खुदकुशी करोगी. बेहतर होगा कि बाबूजी (बाबू जी अस्पताल में भर्ती हैं) को मार दिया जाये. उनको मार देंगे तो प्रोविडेंट फंड मिलेगा.. और अरविंद एन दास कहते हैं कि वह बच्चा उस समय 12 साल का था. यह कहानी मैंने अपनी किताब में नैरेट भी की है. मुङो तो वह स्टोरी टेलिंग अच्छी लगती है. यह साहित्य है, यह इतिहास है, यह समाजशास्त्र है, यह मनोविज्ञान है. सोसाइटी के बारे में एक कम्प्लीट स्टेटमेंट.
वह एक कहानी और सुनाते हैं– पिछली गर्मी में जब मैं आ रहा था तो दिल्ली में रुका और वहां आशीष नंदी से मिलने गया. आशीष नंदी को मैं बहुत पसंद करता हूं. आशीष नंदी से कहा कि सुना है कि आप सुबह टहलने जाते हैं. मैं भी कल साथ टहलना चाहूंगा. वह ईस्ट निजामुद्दीन में रहते हैं और टहलने जाते हैं हुमायूं के मकबरे के पास. सुबह उनको वहां मैं मिला. मैंने उनको अरविंद एन दास की यह कहानी सुनायी. उन्होंने कहा कि मेरे पास भी एक कहानी है और उसमें भी अरविंद एन दास हैं. उन्होंने कहा कि आज से 20 साल पहले मैं न्यूज में अक्सर पढ़ता था कि बंदूक की नोक पर विवाहयोग्य लड़कों की शादी दबंग लोग अपनी लड़की से करा देते हैं. तो मैंने (आशीष नंदी) अरविंद एन दास से पूछा कि भाई ये कहानियां रोज सुनते हैं. लड़की के परिवार को डर नहीं होता कि इस तरह की शादी के बाद उनकी लड़की के साथ ससुराल में र्दुव्यवहार किया जायेगा? अरविंद एन दास का जवाब था कि नहीं, यह भी बिहार है जहां एक भी ऐसा केस नहीं है जिसमें लड़की को प्रताड़ित किया गया हो या घर से निकाल दिया गया हो. लड़की जब परिवार में आ गयी तो परिवार का ही हिस्सा हो गयी. एक तरफ वह बिहार जहां बंदूक की नोक पर शादी करायी जाती है और दूसरी तरफ वह बिहार जहां शादी हो जाने के बाद लड़की को अपने परिवार का हिस्सा मान लिया जाता है. दैट टू इज बिहार. यह स्टोरी भी और ‘हिस्टोरी’ भी है.
(..तभी अमिताभ कुमार का फोन बजता है. वे अपने एक मित्र का नाम लेते हैं और कहते हैं कि उसको टेक्स्ट कर देता हूं. वह बहुत इरीटेटिंग भी है. फोन उठा लूंगा तो डेढ़ घंटे तक बतियाते रहेंगे.) दैट टू इज बिहार कि अक्लू कुर्सी पर क्यों नहीं बैठा और दैट टू इज बिहार कि लड़की को स्वीकार कर लिया.
सुबह जब मेरे पिता जी टहलने जाते हैं तो मैं देखता हूं कि वे लिंप करते हैं. उनके साथ वे भी दिखाई देते हैं जो बहुत बूढ़े हैं. और मैं सोचता हूं कि इन सारे लोगों के जो बच्चे हैं जो दिल्ली में होंगे, मुंबई में होंगे, बेंगलुरु में होंगे, अमेरिका में होंगे. यह फीलिंग.. लोग मुझसे भी पूछेंगे.
लोग पूछते हैं कि भाई क्या नीतीश के आने से कुछ इंप्रूवमेंट हुआ है. आइ डोंट केयर. लेकिन हम जानना चाहेंगे कि मेरी मां, जो पिछली बार अपने बालों में कंघी नहीं कर पाती थी, क्या अब कोई और चीज भी नहीं कर पाती है. मुङो लगता है कि ऐसे बहुत से लोग होंगे जो ऐसा ही कुछ जानना चाहते होंगे. यह यूनिवर्सल चीज नहीं है, क्योंकि हर घर का बच्चा तो दूसरे शहरों या विदेश में नहीं है, मुसहर का बच्चा तो विदेश में नहीं है. जब मैं अपनी माता को देखता हूं, पिता को देखता हूं, तो मुङो लगता है कि पटना इज एन एजीइंग सिटी.
मेरे एक मित्र हैं अमित चौधरी जो कोलकाता के बंगाली राइटर हैं. उन्होंने कोलकाता पर एक किताब लिखी है. उनका कहना है कि दिल्ली इज एबाउट पावर, मुंबई इज एबाउट मनी बट कोलकाता इज एबाउट पेरेंट्स. मैं कहना चाहूंगा कि पटना इज आलसो एबाउट पेरेंट्स एंड चिल्ड्रेन. पटना की जब बात उठायी जाती है तो हमेशा नीतीश व लालू के बारे में सवाल पूछेंगे. लेकिन हमें यह अधिकार है कि हम कहें कि जब पटना की बात होती है तो हम अपने माता–पिता के बारे में बात करना चाहेंगे, बच्चों के बारे में बात करना चाहेंगे.
जब डेविड डेविडार ने कमीशन किया मुङो, तो उसने मॉडल दिया, एक लेख जो 40 के दशक में न्यूयॉर्कर में छपा, ईबी व्हाइट ने लिखा था. यह बाद में छोटी–सी किताब के रूप में प्रकाशित हुआ. यह किताब 9/11 के बाद फिर चर्चित हुई, क्योंकि इस किताब में कहा गया था कि न्यूयॉर्क को हवाई जहाजों से खतरा है. ब्रुकलिन में एक पेड़ है पुराना–सा, जिसे वह बचाये रखना चाहता है. यदि वह पेड़ खत्म हो जाये तो न्यूयॉर्क नहीं रहेगा. वह पेड़ हमारे लिये हमारे मां–बाप हैं. यदि उनको कुछ हो जाये तो हमारा रिश्ता इस शहर से टूट जायेगा.
कल एक सज्जन आये थे, उन्होंने कहा कि वह बिहार पर किताब लिखना चाहते हैं. लेकिन उन्होंने निश्चय किया है कि इसमें बिहार के लिए कोई स्टार्क शब्द नहीं होगा. दूसरे शब्दों में स्टीरियो टाइप नहीं होगी यह किताब. हमारे एक मित्र आये थे खाने पर और वही उनको लेकर आये थे. उनकी बात सुन कर मैं सोचने लगा कि मैंने कैसे लिखी है. तो मैंने सोचा, एक दूसरा प्रिंसिपल भी हो सकता है और वह यह कि किसी स्टीरियोटाइप से शुरू करें और फिर उसे सिर के बल उल्टा कर दूं. अगर मैं शुरू करता हूं इस बात से कि चूहे मेरी मां के डेंचर्स उठा के ले गये, अखबारों में मैंने पढ़ा कि चूहे जब्तशुदा शराब को पी रहे थे, चूहों ने प्लेटफार्म के नीचे इतना खोद डाला कि प्लेटफार्म ढह गया. यह बिलकुल स्टीरियोटिपिकल इमेज है. लेकिन जब हम चैप्टर के अंत तक आते हैं, मैंने इस इमेज को बिलकुल उलट दिया. चूहा तो मैं हूं, वह जिसने अपने शहर को छोड़ दिया.
मुङो नर्वसनेस है कि बिहार के एडिटर्स क्या इस बात पर ध्यान देंगे कि मैं शुरुआत तो बहुत जानी-पहचानी चीज से करता हूं, लेकिन फिर इसे एलिमिनेट कर देता हूं. जो डिजाइनर हैं किताब के, उन्होंने बहुत लिटरली ले लिया है ‘मैटर ऑफ रैट्स’ को. मेरा मतलब यह नहीं था कि सारे चूहे इस सिटी को घेरे हुए हैं. मैं तो कहता हूं कि चूहे तो भाग गये पटना से. यदि यहां के यूथ्स से अगर पूछा जाये कि पढ़ाई को लेकर उनका सबसे अच्छा एक्सपीरिएंस क्या है, तो वे क्या चूज करेंगे. और यदि मैं अपने कॉलेज में यूथ्स से पूछूं, तो वह क्या कहेंगे. यह जानना रोचक होगा. मेरे स्टूडेंट्स कहेंगे कि मैं आयी थी, यहां प्री-मेड स्टूडेंट बनने के लिए जिससे मैं डाक्टर बन सकूं. लेकिन यहां हमारे टीचर ने कहा कि चलो मेक्सिको के बार्डर पर, देखते हैं कि किस तरह माइग्रेंट्स के साथ बरताव होता है. फिर मैं पर्यावरण कार्यकर्ता बन गयी या फिर इमीग्रेंट अधिकारों की वकील बन गयी. मेरी जिंदगी में जबरदस्त बदलाव आ गया. अमिताभ कहते हैं कि यह यहां भी हो सकता है. लेकिन मुङो लगता है, यहां मोस्ट ट्रांसफार्मिग चीज होगी.. पिछड़े या दलित तबके से आनेवाले छात्र को पैट्रोनेज या मेंटरशिप. इससे उसकी एंट्री होती है उस सोसाइटी में जिसका वह हिस्सा बनना चाहता है. जबकि अमेरिकी समझ में रेडिकल शिफ्ट का मामला है, एप्टिमोलोजिकल डिस्प्लेसमेंट. वहां तो सभी को प्रिविलेज है.
वह एक दूसरा किस्सा शुरू कर देते हैं- एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट में एक व्यक्ति मिला. मैंने उससे पूछा कि अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में करप्शन को किस तरह से देखते हैं? उसने कहा कि मेरे पिता जी कहते थे कि पहले जब वह काम करते थे, करप्शन दिखायी देता था.. वह अफसर बेईमान है.. वह अफसर ईमानदार है. लेकिन अब यह दिखायी नहीं देता. करप्शन स्ट्रक्चरल हो गया है. यह अब हमारे स्ट्रक्चर का हिस्सा हो गया है. लोग जब इस तरह की थ्योरी बनाने लगते हैं, तो फिर मुङो सुधार की गुंजाइश नहीं दिखायी देती. रोड बन गये हैं, सेफ्टी है थोड़ी, मगर क्या सचमुच कुछ बदला है?
मैं जब पिछली बार आया था, तो एक सज्जन से पूछा कि चीटिंग में क्या फर्क हो गया है. उन्होंने कहा कि तीन स्टेज का करप्शन होता है. एक करप्शन होता है प्रताप सिंह कैरों का. आप कहते हैं जो हुआ, वह गलत है. लेकिन फिर आप दूसरे स्टेज पर पहुंचते हैं और कोशिश करते हैं करप्शन को जस्टीफाई करने की. जैसे इंदिरा गांधी ने कहा कि करप्शन इज ए ग्लोबल प्राब्लम. करप्शन इज नाट ओनली अवर प्राब्लम. वी हैव टू साल्व इट. तीसरा स्टेज है शेमलेस रिबटल का. उनका उदाहरण था हर्षद मेहता का. उन्होंने कहा कि पटना में तो करप्शन इस तीसरी स्टेज से भी आगे बढ़ चुका है. ..क्यों नहीं, एक करोड़ क्यों नहीं लेंगे..बिहार इससे आगे भी जा चुका है. लोग शायद इसे स्वीकार कर चुके हैं.
ये सज्जन यह भी बता रहे थे कि बिहार में इम्तिहान में जो चीटिंग होती है.. राजनेताओं से लेकर छात्र तक चीटिंग को जस्टीफाई करते हैं, व्याख्यायित करते हैं और पकड़े जाने पर आंदोलन तक चलाने लगते हैं. वीमेंस कालेज में एक औरत को पकड़ा गया, चीटिंग करते हुए. टीचर ने कहा कि आपको शर्म नहीं आती चीटिंग करते हुए. उस औरत ने कहा कि मुङो इस सब्जेक्ट में बाहर से मदद नहीं मिल पायी, इसलिए यहीं ले आयी. एक दूसरी औरत पकड़ी गयी, तो उसने टीचर से कहा कि आप किस तरह की टीचर हैं, अपने समुदाय के लोगों को ही पकड़ रही हैं. आपमें कंपैशन है ही नहीं. यानी हमने विकास किया है, लेकिन साथ में अपने स्ट्रक्चर में करप्शन को भी विकसित कर लिया है.
इसके बाद अमिताभ चुप हो जाते हैं ..फिर मेरी ओर देखते हैं और पूछते हैं- भाईजी, हो गया. मैं कहता हूं- जी.बोरिंग रोड चले जाइए. प्रभात खबर के कार्यालय से निकलिए और बायें मुड़िए. अंगरेजी में कहूंगा– शियर एकरेज ऑफ साइनेज. लगता है जैसे उद्योगों या उद्यमशीलता का विस्फोट हो रहा है. मैं नहीं जानता कि काला पैसा है या कैसा पैसा है, लेकिन दिखने लगता है कि उद्यमशीलता इतनी ज्यादा है. लेकिन यह उद्यमशीलता नहीं है, यह कुछ हद तक कंज्यूमरिज्म को फीड करने का तरीका है. प्रोडक्शन क्या हो रहा है, मैं नहीं जानता. हम इनवर्टर तो बेच रहे हैं, लेकिन बिजली नहीं बना पा रहे. एसी बेच रहे हैं, लेकिन एसी बना नहीं पा रहे. मैं इकॉनोमिस्ट नहीं हूं, लेकिन मुङो लगता है कि यह हमारी अर्थव्यवस्था का खोखलापन है. मेरे स्कूल के दोस्त हैं जो, उनसे मैं पिछले साल मिला. वे जब फेसबुक पर पोस्ट करते हैं तो उनके पोस्ट यह बताते हैं कि उनके इतने साथी आइएएस में चले गये, इतने आइएफएस हो गये. ये या वो. मुङो हमेशा लगता है कि यही एक हमारी इंडस्ट्री हो गयी है– अफसरों का उत्पादन. हमारे लेखक कहां हैं, हमारे इनवेंटर कहां हैं?