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दिल्ली विस चुनाव पर विशेष : पढ़ें राम बहादुर की राय, ”किरण के आने से पासा पलट गया है”

‘आप’ के किसी भी नेता को यह अनुमान नहीं था कि किरण बेदी भाजपा में शामिल हो सकती हैं. इस लिहाज से ‘आप’ सदमे में है. हालांकि वैसे नेता जो खुद को स्थापित नेता मानते हैं और मुख्यमंत्री पद की दौर में शामिल मानते हैं, उनकी तरफ से यह प्रयास हो सकता है किरण बेदी […]

‘आप’ के किसी भी नेता को यह अनुमान नहीं था कि किरण बेदी भाजपा में शामिल हो सकती हैं. इस लिहाज से ‘आप’ सदमे में है. हालांकि वैसे नेता जो खुद को स्थापित नेता मानते हैं और मुख्यमंत्री पद की दौर में शामिल मानते हैं, उनकी तरफ से यह प्रयास हो सकता है किरण बेदी को बेहतर सफलता न मिले, लेकिन आम कार्यकर्ता में अपार उत्साह है.

दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद से विधानसभा चुनाव के लिए कमर कस लिया था. उधर, अन्य राज्यों में नरेंद्र मोदी की अगुआई में मिली सफलता से अभिभूत भाजपा ने दिल्ली के लिए भी अपने चुनाव अभियान की शुरुआत चुनाव की घोषणा होने से पहले ही रामलीला मैदान में बड़ी रैली के आयोजन के साथ किया. प्रधानमंत्री ने अपने चिरपरिचित अंदाज में जिस तरह की बातें जनता के सामने रखीं, उससे साफ है कि दिल्ली का चुनाव दो निर्णायक मुद्दों पर लड़ा जायेगा- पूर्ण बहुमत और संपूर्ण विकास. प्रधानमंत्री ने रामलीला मैदान के अपने एतिहासिक सभा में एक तरफ भाजपा कार्यकर्ताओं और नेताओं के साथ ही जनता के लिए लक्ष्य सामने रखा. साथ ही केजरीवाल द्वारा लगाये गये कई आरोपों पर जवाब भी दिया.

दिल्ली चुनाव की सही रूपरेखा सामने रखने के लिए यह जरूरी है हम उसके इतिहास की भी पड़ताल करें. यह सवाल बार-बार उठाया जा रहा है कि क्या दिल्ली में मुकाबला पिछली बार की तरह त्रिकोणीय होगा. वैसे दिल्ली का चुनाव में हमेशा से ही सीधा मुकाबला रहा है, हालांकि प्रत्येक चुनाव में कोशिश होती रही है कि मुकाबले को त्रिकोणीय बनाया जाये. लगभग हरेक चुनाव में हिंदी भाषी प्रदेश के क्षेत्रीय दल अपने प्रभाव क्षेत्र के विस्तार की संभावना को टटोलते हुए दिल्ली के विधानसभा चुनाव में प्रत्याशी उतारकर उलट फेर करने की जुगत भिड़ाते रहे हैं. लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिलती थी. पिछले विधानसभा चुनाव को अपवाद माना जाना चाहिए, क्योंकि वह एक बड़े अभियान से तैयार जनमत के बाद हुआ. वह चुनाव भ्रष्टाचार के मुद्दे पर हुआ, और चुनाव में जो जनमत मिला, वह कांग्रेस की भ्रष्ट सरकार के खिलाफ था. आम आदमी पार्टी जो कि अभियान से निकली हुई पार्टी थी ने इस माहौल का राजनीतिक फायदा उठाया. तब कांग्रेस और भाजपा दोनों दलों को, यहां तक कि आम आदमी पार्टी को भी यह अंदाजा नहीं था कि उन्हें इतनी बड़ी सफलता मिलेगी.

अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी उस सफलता के लिए तैयार नहीं थे जो उन्हें अचानक मिल गयी थी. आम आदमी पार्टी का कंधा वैसा मजबूत नहीं था, जिससे वह उस बोझ को संभाल सके. नया आया हुआ राजनीतिक दायित्व एक दिमागी संतुलन की मांग करता है. जो आप की एनजीओ संस्कृति से बेमेल था. दिल्ली में आप को सरकार बनाने का अवसर मिला. आम आदमी पार्टी कांग्रेस या भाजपा का सहयोग लेकर स्थिर सरकार चला सकती थी. लेकिन उन्होंने वैसा नहीं किया. प्रधानमंत्री न ेरामलीला मैदान से ठीक ही कहा कि एक मुख्यमंत्री अगर धरने पर बैठे और गणतंत्र दिवस के समारोह को अराजकता में बदलने के कुचक्र में शामिल हो जाये तो जिन लोगों ने वोट देकर अपना विश्वास जताया, वे अफसोस के गहरे अंधकूप में ही पड़े रहने के लिए अभिशप्त हुए. प्रधानमंत्री ने मंच से दिल्ली की जनता के सामने उनके इस कृत्य को सामने रखा. अपनी क्षमता को न समझते हुए दिल्ली में सरकार बनाकर चलाने के बजाय लोकसभा चुनाव की तैयारी में लग गये. पूरे देश में 433 सीट पर चुनाव लड़ने वाली आप को मात्र पंजाब की चार सीटों पर छोड़ कर हर जगह असफलता मिली. इस पराजय ने उन्हें चौराहे पर ला खड़ा किया. इस हार का पार्टी पर भयानक असर हुआ. कई संस्थापक सदस्यों ने पार्टी छोड़ दी. जो लोग हैं, और जिनके विषय में यह कहा जा सकता है कि वे अरविंद केजरीवाल से बेहतर हैं, पार्टी में उनकी साख नहीं है. लोकसभा चुनाव में मिली हार के बावजूद अभी भी यह पार्टी राजनीतिक दल बनने के रास्ते पर आगे नहीं बढ़ी है. अभी भी यह एकल संस्था है, जिसमें एक ही नेता है और वही उसका संविधान है. एक तरह से आम आदमी पार्टी अभी भी पहचान के संकट से गुजर रही है. दिल्ली में वैसे तो मुख्य मुकाबला भाजपा और आप के बीच ही दिख रहा है.

आप अपने आक्रामक प्रचार बैनर और बड़े-बड़े होर्डिंग्स के जरिये चुनावी फिजा बदलने की कोशिश में लगी हुई है, लेकिन इन होर्डिगों पर जो बातें लिखी हुई हैं, उनसे ही साफ है कि केजरीवाल अपने ऊपर लगाये आरोपों पर जवाब देने की बजाय सिर्फ आश्वासन की राजनीति कर रहे हैं और इस आश्वासन की बदौलत वे जनता से 5 वर्ष के लिए चुनने की अपील कर रह हैं. अगर भाजपा के लिहाज से चुनाव को देखें तो वैसे तो दिल्ली का चुनाव अन्य राज्यों के चुनाव से ज्यादा महत्वपूर्ण है. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय महत्व के इस चुनाव में भाजपा कोई खतरा मोल लेना नहीं चाहेगी. भाजपा हालाकि मोदी की धुरी पर ही चुनाव लड़ने जा रही है, लेकिन जिस तरह से भाजपा ने अन्ना की सहयोगी रहीं किरण बेदी को पार्टी में शामिल किया है, उससे पासा बिल्कुल पलट गया है. अब तक इस बात को लेकर चर्चा होती थी कि भाजपा चुनाव जीत सकती है, कांटे की टक्कर है, हार भी सकती है, लेकिन किरण बेदी के शामिल होने से यह साफ हो गया है कि अब भाजपा चुनाव जीतेगी. भाजपा भले ही किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद का घोषित उम्मीदवार न बनाये, लेकिन लगता है कि पार्टी ने मन बना लिया है कि किरण बेदी के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ा जाएगा. किरण बेदी का शामिल होना ठीक उसी तरह से है जिस तरह से 3 फरवरी 1977 को जगजीवन राम, हेमवती नंदन बहुगुणा, और नंदिनी सत्पथी ने कांग्रेस से अलग होकर कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी बनायी. जैसे ही इनके कांग्रेस से अलग होने की घोषणा हुई पूरे देश में उत्साह की लहर दौर गयी.

किरण बेदी के आने दो तरह का प्रभाव होगा. अरविंद केजरीवाल की पार्टी में जो किरण बेदी के समर्थक है, वे राजनीतिक रूप से आप से अलग होकर भाजपा के साथ जुड़ेंगे. दूसरा, किरण बेदी के आने से दिल्ली की याददाश्त में किरण बेदी की जो पैठ है और क्रेन बेदी से लेकर अन्ना आंदोलन तक ऐसे पचासों किस्से हैं जो उनकी प्रसिद्धि और ख्याति को बढ़ाती है.

मेरा अनुमान है कि किरण बेदी के भाजपा में आने से पार्टी को 5 फीसदी वोटों का इजाफा होगा. एक महत्वपूर्ण बात यह है कि आप के किसी भी नेता को यह अनुमान नहीं था कि किरण बेदी भाजपा में शामिल हो सकती हैं या भाजपा उन्हें चेहरा बनाकर चुनाव लड़ सकती है. इस लिहाज से आप सदमे में है. हालांकि वैसे नेता जो खुद को स्थापित नेता मानते हैं और मुख्यमंत्री पद की दौर में शामिल मानते हैं, उनकी तरफ से यह प्रयास हो सकता है किरण बेदी को बेहतर सफलता न मिले, लेकिन आम कार्यकर्ता में अपार उत्साह है और इसका फायदा भाजपा को मिलेगा.

(संतोष कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)

राम बहादुर राय

वरिष्ठ पत्रकार

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