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बेघर बच्चे पढ़ रहे नामी स्कूलों में

शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीइ) की बिहार-झारखंड में भले दुर्दशा हो, पर सब जगह ऐसा नहीं है. जहां लोग इसके इस्तेमाल को लेकर सक्रियता दिखा रहे हैं, वहां सकारात्मक नतीजे भी सामने आ रहे हैं. सेंट्रल डेस्क बेंगलुरु में आरटीइ की मदद से 22 ऐसे बच्चों की जिंदगी संवर रही है, जिनके मां-बाप कभी उन्हें […]

शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीइ) की बिहार-झारखंड में भले दुर्दशा हो, पर सब जगह ऐसा नहीं है. जहां लोग इसके इस्तेमाल को लेकर सक्रियता दिखा रहे हैं, वहां सकारात्मक नतीजे भी सामने आ रहे हैं.

सेंट्रल डेस्क

बेंगलुरु में आरटीइ की मदद से 22 ऐसे बच्चों की जिंदगी संवर रही है, जिनके मां-बाप कभी उन्हें अच्छी शिक्षा दिला पाने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे. ये बच्चे मध्य प्रदेश के अशोक नगर जिले के माधवगढ़ गांव के मूलवासी हैं और एक खानाबदोश जनजाति से ताल्लुक रखते हैं. बेंगलुरु में इनके मां-बाप मजदूरी करते हैं.

ये बच्चे होसाहल्ली के सरकारी मॉडल प्राथमिक स्कूल के दो कमरों में रहते हैं. यहं पर उनका अपना सामान है और खाने-पीने का इंतजाम है. सुबह बच्चे एक-दूसरे की मदद करते हुए तैयार होते हैं और शहर के नामी निजी स्कूलों में पढ़ने के लिए रवाना होते हैं. इन 22 में से 18 बच्चों को निजी, गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों में आरटीइ कोटा के तहत दाखिला मिला है.

साउथ रेंज 2 की प्रखंड शिक्षा अधिकारी (बीइओ) नागरत्नम्मा डी ने पिछले साल नवंबर में इन बच्चों को स्कूल न जानेवाले बच्चों के सर्वेक्षण के दौरान चिह्न्ति किया था. इसके बाद इन बच्चों को टेंट स्कूल में रखा गया, ताकि इन्हें आम स्कूलों में भेजने से पहले उसके लिए तैयार किया जा सके. वह कहती हैं, ‘इनके मां-बाप अनमने थे, पर बच्चे पढ़ने के लिए उत्साहित थे. इसलिए, हमने इनका आरटीइ कोटा के तहत निजी स्कूलों में दाखिला करवाया और इनके सरकारी स्कूल में रहने का इंतजाम किया.’

एक साल पहले तक इन बच्चों की जिंदगी बिल्कुल जुदा थी. ट्रैफिक सिग्नलों पर ये बच्चे भीख मांगते थे और गुब्बारे बेचते थे. इनके मां-बाप प्रवासी मजदूर हैं और सड़कों पर गुजारा करते हैं. इनकी इतनी कमाई नहीं होती कि अपने और बच्चों के सिर पर छत का इंतजाम कर सकें. इन बच्चों में सबसे बड़ा, 12 साल का मेला कहता है, ‘हमने कभी स्कूल जा पाने के बारे में सोचा भी नहीं था, क्योंकि हमारे मां-बाप एक शहर से दूसरे शहर में जाते रहते हैं.’

सादिक पाशा इन बच्चों के वार्डन भी हैं और ऑटो ड्राइवर भी. जब भी कोई इन बच्चों के बारे में उनसे बात करता है, तो उनकी छाती चौड़ी हो जाती है. वह इनकी तारीफ करते नहीं थकते कि कैसे इतने कम समय में इन बच्चों ने अंगरेजी के बहुत से शब्द सीख लिये हैं और खुद से टाई बांधना सीख लिया है. वह कहते हैं, ‘जब ये बच्चे आये थे तो पेंसिल तक पकड़ना नहीं जानते थे, लेकिन अब क्या कमाल की इनकी लिखावट है.’ चार लड़कियां- साक्षी, आरती, सन्निधि और आंचल आरएनएस विद्यानिकेतन में पढ़ती हैं. इनकी शिक्षिकाएं कहती हैं कि चारों बहुत तेजदिमाग हैं और पढ़ाई-लिखाई के साथ अन्य गतिविधियों में भी बहुत तेजी से तरक्की कर रही हैं. वे इनकी कॉपियां दिखाते हुए कहती हैं कि स्माइली और स्टार की बढ़ती तादाद बताती है कि ये लगातार बेहतर कर रही हैं. क्रिसमस की छुट्टी शुरू होने से पहले ही इन बच्चों ने छुट्टी का होमवर्क पूरा कर लिया था. कुछ बच्चे होली एंजेल्स स्कूल में पढ़ते हैं, वो भी अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं.

स्कूल में रहनेवाली दो लड़कियों की मां जयंती सभी बच्चों की देखभाल करती हैं. वह बताती हैं, ‘शुरू में हमें यकीन नहीं था कि इससे कुछ होनेवाला है. लेकिन अब मुङो लगता है कि मेरे बच्चे गुब्बारे बेचने के लिए नहीं हैं. अपने बच्चों के दाखिले के समय मुङो अंगूठे का निशान लगाना पढ़ा. मैं चाहती हूं कि मेरी बेटियां पढ़ें और वो करें जो मैं नहीं कर सकी.’

कर्नाटक का शिक्षा विभाग इस रिपोर्ट को मानव संसाधन विकास मंत्रलय भेजने की योजना बना रहा है, ताकि इसे ‘सफलता की कहानी’ के रूप में प्रचारित किया जा सके. (साभार : द हिंदू)

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