महाराष्ट्र और हरियाणा के विधान सभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को मिली बढ़त भारतीय राजनीति में नए दौर की शुरुआत की तरह है.
लोकसभा चुनावों के बाद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की स्वीकार्यता की अग्निपरीक्षा के रूप में देखे जा रहे इन दोनों विधान सभा चुनावों ने भाजपा को सही मायनों में देश की प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी के रूप में स्थापित कर दिया है.
इन राज्यों में मिली सफलता भाजपा को अन्य राज्यों में अपना प्रभाव बढ़ाने में मदद करेगी.
लेकिन इस जीत से क्षेत्रीय दलों के भाजपा के ख़िलाफ़ एकजुट होने की मांग भी ज़ोर पकड़ सकती है.
पढ़ें प्रमोद जोशी का विश्लेषण विस्तार से
हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव परिणामों का रुख़ तीन बातों की ओर इशारा कर रहा है. भाजपा निर्विवाद रूप से देश की सबसे प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी बन चुकी है.
दूसरी ओर कांग्रेस के सामने क्षेत्रीय दल बनने का ख़तरा है. और क्षेत्रीय दलों के पराभव का नया दौर शुरू हो गया है.
भाजपा का बढ़ा हुआ आत्मविश्वास उसे अब दिल्ली विधानसभा के चुनाव कराने को प्रेरित करेगा. ‘मोदी लहर’ और अमित शाह के नए नेतृत्व को मान्यता मिलेगी.
लोकसभा चुनाव के बाद हुए 13 राज्यों के उप चुनावों का निष्कर्ष था कि ‘मोदी मैजिक’ ख़त्म हो गया, पर लगता है कि जादू बरक़रार है.
मोदी के आलोचकों ने उन्हें निरंकुश नेता साबित करने की कोशिश की, पर मोदी को इस छवि से नुक़सान के बजाय फ़ायदा हुआ है. लगता है कि भारतीय वोटर एक ‘ताक़तवर नेता’ को स्थापित करना चाहता है.
आत्मविश्वास और महत्वाकांक्षाएं
गठबंधन सहयोगियों के बगैर महाराष्ट्र और हरियाणा में मिली सफलता से भाजपा का आत्मविश्वास और महत्वाकांक्षाएं बढ़ेंगी. पर एनडीए अप्रासंगिक नहीं होगा. अलबत्ता उन क्षेत्रीय दलों के लिए यह ख़तरे की घंटी है, जिनके पास करिश्माई नेता नहीं हैं.
हाँ अब उन पार्टियों की ओर से राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा-विरोधी मोर्चा बनाने की मुहिम ज़ोर पकड़ेगी, जिनके सामने अस्तित्व का संकट है. यह एकता विचारधारा या नेता के इर्द-गिर्द ही हो सकती है. दोनों बातें अभी नज़र नहीं आतीं.
महाराष्ट्र में शिवसेना और भारतीय जनता पार्टी के पच्चीस साल पुराने गठबंधन का टूटना एक नए दौर की आहट दे रहा है.
महाराष्ट्र के क्षत्रप थे बाला साहेब ठाकरे और शरद पवार. उद्धव ठाकरे बाला साहेब के वारिस तो साबित हुए, क्षत्रप नहीं. मोदी की चमक के सामने उनका सूर्यास्त हो गया.
जोखिम का फ़ायदा
भाजपा नेतृत्व ने जोखिम उठाकर जो फ़ैसला किया उसका परिणाम यह हुआ कि प्रदेश में भाजपा नंबर एक पार्टी बन गई है.
हरियाणा में भी पार्टी का लगभग एकछत्र राज कायम हो रहा है. दोनों राज्यों में बहुकोणीय मुक़ाबलों का होना भाजपा को प्रतिष्ठापित कराने में सबसे महत्वपूर्ण कारण साबित हुआ.
उपचुनावों के मुद्दे स्थानीय थे. उनमें प्रभावी वोटर भी वही नहीं था, जो लोकसभा चुनाव में मोदी की जीत का कारण बना था. इस वजह से उपचुनावों में वोट प्रतिशत काफ़ी कम था.
इसके विपरीत हरियाणा और महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव में रिकॉर्ड मतदान इस बात को रेखांकित करता है कि ‘मोदी माइनस भाजपा’ को हराया जा सकता है, पर ‘मोदी प्लस’ से गुणात्मक फ़र्क़ पड़ जाता है.
भाजपा को मिली सफलता उसे सहयोगियों पर अपनी निर्भरता कम करने का मौक़ा देगी. पर इसका मतलब यह नहीं कि पंजाब में अकाली दल और आंध्र में तेलगुदेशम पार्टी (तेदेपा) के साथ उसके रिश्ते रातों-रात बदल जाएंगे.
जनाधार
आंध्र प्रदेश और पंजाब में भाजपा का आधार इतना मज़बूत नहीं है कि वह अकेले चल सके.
पंजाब में अकाली दल का साथ लोकसभा चुनाव में भाजपा पर भारी पड़ा था. अरुण जेटली की हार के पीछे एक बड़ा कारण अकाली दल की अलोकप्रियता भी थी.
लेकिन हरियाणा में भाजपा की जीत पंजाब में उसकी आत्मनिर्भरता को बढ़ाएगी.
दिल्ली में चुनाव हुए और वहाँ भाजपा सरकार बनी तो उत्तर भारत में भाजपा कार्यकर्ताओं के आत्मविश्वास में वृद्धि होगी. पर उसके सामने उत्तर प्रदेश और बिहार फिर भी पहेली बने रहेंगे.
देश में गठबंधन युग ख़त्म नहीं होगा. हमारी सामाजिक संरचना को देखते हुए राज्यों में क्षेत्रीय क्षत्रप रहेंगे.
जहाँ भाजपा के अपने क्षत्रप हैं वहाँ की बात अलग है, पर जिन राज्यों में उसकी उपस्थिति नई है वहाँ उसे स्थानीय सहयोगियों की ज़रूरत होगी ही, जैसे तमिलनाडु, केरल और आंध्र. अपवाद बंगाल है जहाँ उसने बगैर किसी सहयोगी के प्रवेश किया है.
गठबंधन का सूत्र
गठबंधनों का फॉर्मूला है कि राज्य में क्षेत्रीय दल की प्रमुखता और केंद्र में राष्ट्रीय दल की सत्ता.
हरियाणा और महाराष्ट्र में इस सूत्र के पलट जाने का बड़ा कारण यह है कि शिव सेना के पास अब क्षेत्रीय क्षत्रप नहीं हैं. और न हरियाणा में देवी लाल जैसा नेता. इनकी जगह मोदी ने ले ली. यह बात सभी राज्यों पर लागू नहीं होगी.
मोदी के उत्थान के समांतर कांग्रेसी नेतृत्व का पराभव हो रहा है. उसके पास अब ऐसा कोई नेता नहीं है जो ‘फ्रंट’ से लीड करे.
कुछ महीनों बाद झारखंड और जम्मू-कश्मीर में चुनाव होंगे, शायद दिल्ली में भी. फिर 2015 में बिहार, 2016 में बंगाल, तमिलनाडु, असम और केरल विधानसभाओं के. कांग्रेस के लिए उम्मीद की किरण कहीं नहीं है.
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