तिरुकुरल में कहा गया है कि राजा विश्व पर शासन करता है और न्याय राजा पर.
बंगलौर की एक विशेष अदालत ने तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे जयललिता को भ्रष्टाचार के आरोपों में चार साल की सज़ा सुनाकर राज्य की राजनीति में एक ऐसा शून्य पैदा कर दिया है जिसे लंबे समय तक भरा नहीं जा सकेगा.
अदालत के फ़ैसले का मतलब जयललिता की राज्य विधानसभा की सदस्यता और तमिलनाडु की मुख्यमंत्री का ओहदा, दोनों ही उनके पास नहीं रहेंगे.
बेशक वे अपील में जाएंगी और ये भी मुमकिन है कि उन्हें इस सज़ा पर अदालत का स्टे ऑर्डर भी मिल जाए.
लेकिन जब तक दोषी ठहराए जाने के फ़ैसले पर अदालत का स्टे नहीं मिलता, जयललिता दस सालों तक किसी निर्वाचित पद के लिए अयोग्य ही रहेंगी.
भाजपा सांसद नवजोत सिंह सिद्धू और गुजरात की पूर्व मंत्री माया कोडनानी के मामले में भी यही हुआ था.
राजनीतिक रंजिश
अदालत के फ़ैसले ने भारत के उन राजनीतिज्ञों को भी एक स्पष्ट संदेश दिया है जो आमदनी के ज्ञात स्रोतों से अधिक संपत्ति रखने के आरोपों का सामना कर रहे हैं.
इनमें से कई ने तो साफ़ तौर पर अकूत जायदाद और कारोबारी हित बना लिए हैं.
लेकिन हक़ीक़त में भारत के ज़्यादातर राजनीतिज्ञ ये समझते हैं कि जयललिता का मामला एक अपवाद है, ऐसा हर मुक़दमे में हो, ज़रूरी नहीं.
18 साल पुराना ये मुक़दमा द्रमुक नेता करुणानिधि से उनकी सियासी अदावत का नतीजा है. करुणानिधि ने सत्ता में रहते हुए ज़रूरी साक्ष्य इकट्ठा करने में ज़रा भी ढील नहीं दी.
ये मामला राजनीतिज्ञों को एक और सबक़ भी देता है कि राजनीतिक विरोधियों से रंजिश एक हद के भीतर ही होनी चाहिए.
भ्रष्टाचार के आरोप हर तरह से लगाएं लेकिन मामले को सियासी मैदान से बाहर न ले जाएं.
कठपुतली सरकार
चूंकि जयललिता अन्नाद्रमुक की एकमात्र निर्विवाद नेता हैं इसलिए उत्तराधिकारी के तौर पर उनकी पसंद से हमें अचंभित नहीं होनी चाहिए.
नरेंद्र मोदी, मायावती, ममता बनर्जी और व्यक्ति केंद्रित नेताओं की तरह जयललिता को भी किसी डिप्टी पर यक़ीन नहीं है. उनके यहां सत्ता के ढांचे में कोई नंबर दो, तीन या चार नहीं है.
साल 2001 में एक अन्य मामले में जब सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा था तो तमिलनाडु की मुख्यमंत्री ने खड़ाऊं सरकार चलाने के लिए ओ पन्नीरसेल्वम को सत्ता सौंपी थी.
इस बार भी जयललिता उन्हें मौक़ा दे सकती हैं या फिर किसी और को, लेकिन उसे कठपुतली सरकार के तौर पर ही देखा जाएगा.
चेन्नई में ऐसे क़यास लगाए जा रहे हैं कि राज्य की पूर्व मुख्य सचिव और जयललिता की विश्वस्त शीला बालकृष्णन को मुख्यमंत्री की ज़िम्मेदारी मिल सकती है.
पार्टी से संवाद
बेशक, एक बात तो तय है कि अन्नाद्रमुक और सरकार के नेता के तौर पर अम्मा का क़द घटेगा नहीं.
मुख्यमंत्री रहते हुए भी वे सबके सामने कम ही आती थीं लेकिन उनकी सत्ता को हर जगह महसूस किया जा सकता है.
अगर कुछ नहीं हुआ तो कोई ये उम्मीद कर सकता है कि अम्मा के नाम और उनकी छवि को नई ऊँचाई पर पहुँचाने की कोशिश की जाएगी और शनिवार के फ़ैसले को ‘राजनैतिक बदले’ की कार्रवाई क़रार दिया जा सकता है.
लेकिन बहुत उस सहूलियत पर निर्भर करेगा कि जेल में रहते हुए जयललिता अपनी पार्टी से किस तरह से संवाद बना कर रख पाएंगी.
अगर वे तमिलनाडु में अपनी सज़ा पूरी करती हैं या फिर अपील की सुनवाई के दौरान ज़मानत पर रिहा हो जाती हैं तो कोई बहुत ज़्यादा मुश्किल नहीं होगी.
लेकिन अगर उन्हें कर्नाटक में रखा जाता है तो बिना किसी रोक टोक के सरकार और पार्टी के संवाद क़ायम करना कोई आसान काम नहीं होगा.
द्रमुक
राजनीतिक संदर्भों में देखें तो लोगों की दिलचस्पी इस बात में ज़्यादा होगी कि तमिलनाडु के दूसरे राजनीतिक दलों का अगला क़दम क्या होगा बनिस्बत इस बात के कि जयललिता अपने वफ़ादारों में किसे चुनती हैं.
अन्नाद्रमुक की राजनीतिक विरोधी द्रमुक ख़ुद भी भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी हुई है और उसके नेता एम करुणानिधि को घरेलू झगड़ों से निपटना पड़ रहा है.
2011 के विधानसभा चुनावों में द्रमुक बुरी तरह परास्त हो गई थी और लोकसभा चुनावों में वह अपना खाता भी नहीं खोल पाई.
इसमें कोई शक नहीं कि जयललिता को मिली सज़ा से द्रमुक के नेतृत्व और उसके कैडर का उत्साह बढ़ेगा लेकिन राज्य विधानसभा चुनावों में अभी दो साल बाक़ी है.
और फ़िलहाल राज्य में निकाय स्तर का भी कोई चुनाव नहीं है जिसमें वो अपनी क़ाबिलियत दिखा सकें.
राजनीतिक हिसाब
फ़िलहाल पूरे देश की नज़र राज्य में क़ानून और व्यवस्था पर रहेंगे. अन्नाद्रमुक और द्रमुक के पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच झड़पों की ख़बर आनी शुरू हो गई है.
जयललिता को ये समझना होगा कि अगर इस तरह की हिंसक झड़पों पर रोक न लगाई गई तो उनके विरोधी राज्य में राष्ट्रपति शासन की मांग शुरू कर देंगे और शायद वे जल्द चुनावों के लिए भी कहना शुरू कर दें.
अगर ऐसा हुआ तो उनके राजनीतिक हिसाब का दिन वक़्त से पहले से आ जाएगा. और वे ऐसा होने देती हैं तो ये उनकी राजनीतिक मूर्खता ही कही जाएगी.
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