भारत के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी चार दिन के वियतनाम दौरे पर गए हैं. दोनों देशों के बीच तेल-गैस समेत कई व्यापारिक समझौतों पर हस्ताक्षर होने की संभावना है.
इनमें भारत की ओएनजीसी विदेश लिमिटेड और वियतनाम की पेट्रो वियतनाम के बीच साउथ चाइना सी में तेल निकालने संबंधी समझौता भी शामिल है.
चीन इस क़दम का विरोध करता रहा है.
भारत और वियतनाम के बीच होने जा रहे इस तेल समझौते का क्या महत्व है और भारत की ऊर्जा ज़रूरतें इससे कितनी पूरी होंगी, यही जानने के लिए बीबीसी संवाददाता संदीप सोनी ने बात की ऊर्जा मामलों के जानकार नरेंद्र तनेजा से.
वियतनाम में मौजूदगी
नरेंद्र तनेजा के मुताबिक तेल के मामले में भारत और वियतनाम के संबंध बहुत पुराने हैं. जब इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं तब वियतनाम ने भारतीय कंपनियों को तेल खोज के लिए आमंत्रित किया था.
वियतनाम ने तब मित्रता के तहत भारत को दो ब्लॉक दिए थे. बाद में इन ब्लॉक्स में ब्रितानी कंपनी ब्रिटिश पेट्रोलियम और नॉर्वे की कंपनी ने भी हिस्सेदारी ख़रीदी.
अहमियत
वियतनाम के साथ संभावित तेल-गैस समझौतों को नरेंद्र तनेजा ख़ासी अहमियत देते हैं. उनका मानना है कि भारत ही नहीं समूचे एशिया में ऊर्जा की भारी कमी है.
वैसे भी तेल खोज में लगी भारतीय कंपनियां अस्सी के दशक से ही वियतनाम में हैं.
साउथ चाइना सी में सीमा विवाद तो बहुत बाद की बात है.
उनका मानना है कि वियतनाम के साथ संभावित समझौतों की अहमियत इसलिए भी है कि भारत अस्सी फ़ीसदी तेल आयात करता है और दिन पर दिन बढ़ रही मांग को देखते हुए आयातित तेल की हिस्सेदारी नब्बे फ़ीसदी तक पहुंच जाने का अनुमान है.
तनेजा के मुताबिक, "ऐसे में विदेशों में तेल के जितने अधिक भंडार भारत को मिलेंगे, देश की अर्थव्यवस्था के लिए उतना ही बेहतर होगा. यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत अपने विदेशी मुद्रा भंडार का लगभग 60 प्रतिशत इस्तेमाल ऊर्जा ज़रूरतों को आयात करने पर करता है."
चीन की आपत्ति
वियतनाम के साथ समझौतों पर चीन की आपत्ति कितना मायने रखेगी?
इस सवाल पर तनेजा कहते हैं कि क्योंकि चीन ब्रिक्स (ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ़्रीका) का सदस्य देश है और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग कुछ दिनों बाद भारत दौरे पर आने वाले हैं, इसलिए उम्मीद की जानी चाहिए कि वह वियतनाम के साथ समुद्री विवाद को भारत के साथ तेल समझौते में आड़े नहीं आने देगा.
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