।। मोहन गुरुस्वामी ।।
(वरिष्ठ अर्थशास्त्री)
यह स्वागतयोग्य स्थिति है कि अब हमारे देश की कूटनीति आर्थिकी से निर्देशित हो रही है, न कि भौगोलिक-राजनीति के आधार से. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हालिया जापान यात्रा कुल मिलाकर अच्छी और उपयोगी रही है. जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने नरेंद्र मोदी की बेहतरीन आगवानी में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी. दोनों नेताओं ने अगले पांच वर्षों में भारत में जापान द्वारा 35 बिलियन डॉलर के निवेश पर सहमति बनायी. इस धनराशि का एक बड़ा हिस्सा इंफ्रास्ट्रक्चर की दीर्घकालीन योजनाओं में निवेशित होगा.
अब भारत दौर पर आ रहे चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग नरेंद्र मोदी से मिलकर भारत-चीन संबंधों को बेहतरी की दिशा में ले जाने के लिए समर्पित प्रयास करेंगे. उनकी इस यात्रा का एक मुख्य बिंदु भारत में चीन के आर्थिक निवेश का आकार और क्षेत्र भी होगा.
फिलहाल मोदी सरकार के समक्ष अनेक चुनौतियां हैं. अंतरराष्ट्रीय मामलों के संदर्भ में सबसे जरूरी और महत्वपूर्ण कार्य चीन के साथ विवादों को सुलझाना है. नयी सरकार ने ढांचागत विकास में विस्तार करते हुए सौ नये और आधुनिक शहरों के निर्माण, उच्च गति का रेल नेटवर्क बनाने, नदियों की साफ-सफाई करने और भारत को सेवा क्षेत्र पर आधारित देश की जगह एक औद्योगिक राष्ट्र के रूप में स्थापित करने की योजनाएं बनायी है. इन परियोजनाओं के लिए बहुत बडे़ पैमाने पर निवेश की जरूरत है, जिसकी हमने कल्पना भी नहीं की है. मेरे साधारण आकलन के अनुसार इन प्रस्तावित परिवर्तनों के लिए अगले दशक तक करीब दो ट्रिलियन डॉलर यानी 1200 लाख करोड़ रुपये के निवेश की आवश्यकता है. इतनी बड़ी धनराशि कहां से आयेगी?
अभी चीन और जापान ही ऐसे देश हैं, जिनके पास आरक्षित निधि है और जो भारत को इन वृहत परियोजनाओं के लिए धन दे सकते हैं. चीन के पास लगभग चार ट्रिलियन डॉलर और जापान के पास एक ट्रिलियन डॉलर से कुछ अधिक धन जमा है. भारत को इन दोनों या किसी एक के पास जाना होगा. ये ही हमारी योजनाओं को अमलीजामा पहना सकते हैं. बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए जिस तरह के निवेश की जरूरत भारत को है, वह बहुत विशाल है और उसका स्वरूप दीर्घकालीन है. निजी क्षेत्र द्वारा किये गये निवेश का आकार बहुत छोटा है. इसीलिए, भारत को इन दोनों देशों की सरकारों को अपना आर्थिक साझेदार बनाना होगा.
अब से 2060 तक भारत की जनसंख्या का स्वरूप बहुत अनुकूल है और तब तक देश को एक आधुनिक और समृद्ध राष्ट्र के रूप में निश्चित रूप से परिवर्तित हो जाना चाहिए. 2060 के बाद हमारे देश की जनसंख्या के वृद्ध होते जाने और निर्भरता अनुपात बढ़ते जाने के कारण स्थिति प्रतिकूल होने लगेगी. इस तरह, सिर्फ समय ही धन नहीं है, बल्कि धन भी समय है. वर्तमान ही समय है और वह हमारा है. लेकिन अपने राष्ट्र के निर्माण के लिए हमें ॠण की तलाश करनी होगी.
2010 में चीन का सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) जापान से अधिक हो गया, लेकिन जापान की प्रति व्यक्ति जीडीपी चीन से दस गुणा अधिक है तथा चीन की जनसंख्या जापान से दस गुणा अधिक है. 2013 में क्रय क्षमता समतुल्यता (परचेजिंग पॉवर पैरिटी) के आधार पर भारत की जीडीपी भी जापान से अधिक हो गयी, लेकिन चीन की तरह भारत भी प्रति व्यक्ति आंकड़ों के हिसाब से जापान से कई गुणा गरीब है. अब जबकि वृद्ध होती जनसंख्या और इस कारण उपभोग में आती कमी को देख कर लगता है कि जापान जीडीपी विकास की सीमा तक पहुंच गया है, उसे देश से बाहर निवेश करने की आवश्यकता है ताकि आय की आमद बरकरार रहे.
यह कुछ ऐसा ही है, जैसे कोई सेवानिवृत्त व्यक्ति पेंशन कोष की आय से जीवन बसर करता है. इस कारण जापान भी निवेश के ऐसे अवसरों की तलाश में है, जिससे उसके देशवासियों का उच्च जीवन स्तर बना रह सके. जापान के सॉफ्ट पॉवर के मूल में उसकी यह आवश्यकता और भारत में निवेश करने और तकनीक देने की क्षमता है, जैसा कि उसने कुछ दशक पहले चीन में किया था.
एक-दूसरे को बडे़ अविश्वास से देखनेवाले चीन और जापान का आपसी व्यापार व वाणिज्य भी खूब होता है. 2012 में दोनों देशों के बीच 334 बिलियन डॉलर का व्यापार था और इसमें लगातार बढ़ोतरी हो रही है. इसकी तुलना में भारत और जापान के बीच व्यापार 18 बिलियन डॉलर से कुछ कम ही है. चीन किसी भी अन्य देश से अधिक जापान से आयात करता है. उसके द्वारा आयातित वस्तुओं में बहुत-सी चीजें ऐसी हैं, जो चीन के आर्थिक विकास के लिए अपरिहार्य हैं. जैसे- निर्यात-तंत्र के लिए उच्च तकनीकी अवयव और उद्योग के लिए बुनियादी मशीनरी.
2000 के बाद से जापान ने तकरीबन एक ट्रिलियन डॉलर का दूसरे देशों में निवेश किया है, जिसमें 122.4 बिलियन चीन में निवेशित था. इसी अवधि के दौरान भारत में जापान का कुल निवेश लगभग 20.2 बिलियन डॉलर था, जिसमें 2.8 बिलियन डॉलर सिर्फ 2012-13 में निवेश हुआ था.
चीन और जापान दोनों ने अपने प्रतिस्पर्धात्मक बढ़त के आधार पर अमेरिकी बाजार तक पहुंच बना कर अपनी बड़ी अर्थिक प्रगति को हासिल किया है. उन्होंने सस्ता निर्यात किया और बदले में जोरदार कमाई की. भारत पुराने श्रम कानूनों और अपेक्षाकृत अनुत्पादक श्रमिक नैतिकता की चपेट में है. और उच्च लागत वाले उत्पादक के बतौर घिसट-घिसटकर चल रहा है. यह कभी भी व्यापार अधिशेषों पर आधारित अर्थव्यवस्था नहीं हो सकता है. मध्यवर्गीय समाज के रूप में परिवर्तित होने के लिए इसमें बड़ी मात्रा में पूंजी के निवेश की आवश्यकता है.
अभी जो स्थिति है, उसमें अमेरिका के लिए हमें पूंजी दे पाना मुमकिन नहीं है, क्योंकि उसकी माली हालत बहुत खस्ता है. अमेरिकी हमें हिस्सेदार बनने के लिए कहते तो हैं, लेकिन इस संदर्भ में बातें ही बड़ी-बड़ी होती हैं, उनमें सार बहुत कम होता है. भारत को ऐसे सहयोगियों की जरूरत है जो वहां धन लगा सकें, जहां हमें जरूरत है. भारत के लिए ऐसी जरूरी हिस्सेदारी सिर्फ चीन और जापान ही उपलब्ध करा सकते हैं. इसलिए हमें यह या वह के चयन से बचना चाहिए.
हम इन दोनों देशों के सामने उनके पास जमा भारी धनराशि, जिससे अभी उन्हें बहुत कम आमदनी हो रही है, के निवेश के लिए संभावनाएं प्रस्तुत करनी चाहिए. मनमोहन सरकार अमेरिका की तरफ झुकती रही थी. नरेंद्र मोदी के साथ यह अच्छी बात है कि उनके साथ अमेरिका से लगाव होने की कोई वैचारिक या सांस्कृतिक स्थिति नहीं है. एक कुशल गुजराती की तरह उन्हें भारत के लाभ के लिए उचित सौदा करना चाहिए. उन्हें उभरते भू-राजनीतिक परिदृश्य को वास्तविकता के साथ देखना चाहिए तथा चीन और जापान के बीच एक को चुनने के पचडे़ में नहीं पड़ना चाहिए. भारत के पास इन दोनों देशों के लिए आर्थिक रूप से बहुत जगह है.