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स्‍मृति शेष,बिपन चंद्र पर पढ़ें प्रो एस इरफान हबीब का आलेख

।। प्रो एस इरफान हबीब।। (इतिहासकार) प्रो बिपन चंद्र हमारी पीढ़ी के इतिहास के शोधकर्ताओं के लिए बडे़ प्रेरणादायक इतिहासकार रहे हैं. शहीद भगत सिंह और उनके साथियों की विचारधारा पर आधारित मेरी किताब बहरों को सुनाने के लिए का श्रेय प्रोफेसर चंद्र को ही जाता है और मैंने यह किताब उन्हें समर्पित भी की […]

।। प्रो एस इरफान हबीब।।

(इतिहासकार)
प्रो बिपन चंद्र हमारी पीढ़ी के इतिहास के शोधकर्ताओं के लिए बडे़ प्रेरणादायक इतिहासकार रहे हैं. शहीद भगत सिंह और उनके साथियों की विचारधारा पर आधारित मेरी किताब बहरों को सुनाने के लिए का श्रेय प्रोफेसर चंद्र को ही जाता है और मैंने यह किताब उन्हें समर्पित भी की है. उन्होंने 1972-73 में क्रांतिकारियों पर एक लेख लिखा था, जिसका मेरे ऊपर बहुत प्रभाव पड़ा था. उस लेख को पढ़ कर मुझे लगा कि भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत क्रांतिकारियों की विचारधारा का गहन अध्ययन किया जाना चाहिए. इसका परिणाम यह किताब थी, जिसमें पहली बार वैचारिक आधार पर क्रांतिकारियों को समझने की कोशिश हुई थी.
हमारे देश में इतिहास लेखन और शोध के क्षेत्र में प्रो बिपन चंद्र की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. अपने जीवन के अंतिम वर्षों में नेशनल बुक ट्रस्ट के अध्यक्ष के रूप में भी उनकी सक्रियता पहले की ही तरह बनी हुई थी. उनके कुछ वर्षों के कार्यकाल में ट्रस्ट की गतिविधियों में उल्लेखनीय तेजी आयी और अनेक नयी किताबें प्रकाशित हुईं. कमजोर स्वास्थ्य और बढ़ती उम्र के बावजूद उनका पूरे समर्पण के साथ निरंतर कार्यशील रहना एक मिसाल है, जिससे हम सभी को सीखना चाहिए.
बहुत से लोग उन्हें राष्ट्रवादी इतिहास लेखन की परंपरा से जोड़ कर देखते हैं, लेकिन मुझे यह स्वीकार्य नहीं है. उन्होंने अपने शोध और लेखन की शुरुआत मार्क्सवादी इतिहासकार के रूप में की थी. लेकिन, पिछले 25-30 वर्षों से उन्होंने मार्क्सवादी हठधर्मिता से अपने को दूर कर लिया था और अपनी पूर्ववर्ती समझ में संशोधन भी किया था. इस प्रक्रिया में उन्होंने अपने प्रारंभिक कार्यों से भी दूरी बना ली थी. आर्थिक राष्ट्रवाद पर उनकी किताब उनके शुरू के लेखन का हिस्सा हैं और यह इस विषय पर सबसे महत्वपूर्ण कामों में से एक है. लेकिन, बाद में प्रो चंद्र उन समझदारियों से परे जाकर देश के आधुनिक इतिहास की पड़ताल का प्रयास करने लगे थे.
अपने परवर्ती दौर में प्रो चंद्र का मानना था कि मार्क्सवादी दृष्टिकोण भारतीय इतिहास के आधुनिक चरण को समझने के लिए नाकाफी है और इतिहास को सही परिप्रेक्ष्य में स्थापित करने के लिए राष्ट्रीय और स्थानीय सोच व भावनाओं को भी मद्देनजर रखना आवश्यक है, क्योंकि इतिहास-निर्माण की प्रक्रिया में इन तत्वों की भी विशिष्ट भूमिका होती है. लेकिन उन्होंने वामपंथी इतिहासलेखन की परंपरा के प्रति हमेशा पक्षधरता दिखायी. यह भी उल्लेखनीय है कि राष्ट्रवादी इतिहास लेखन की एक भिन्न परंपरा है जिससे आर सी मजूमदार जैसे वरिष्ठ और इतिहासकारों का नाम जुड़ा हुआ है. आजकल तो राष्ट्रवाद व राष्ट्रवादी इतिहास की परिभाषा भी कुछ और ही हो गयी है.
उन्हें जाननेवाले प्रो चंद्र को एक महान इतिहासकार के रूप में ही नहीं, बल्कि एक उत्कृष्ट व्यक्ति के रूप में भी याद करेंगे. अपने छात्रों के साथ उनका आत्मीय संबंध था और सेवानिवृत्ति के बहुत समय बाद भी उनके छात्रों और सहयोगियों का उनसे जीवंत संबंध बना रहा था.
प्रो बिपन चंद्र को याद करते हुए इस तथ्य को भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि वे उन गिने-चुने इतिहासकारों में से थे, जिन्हें सिर्फ इतिहासकार या इतिहास के छात्र या शोधार्थी ही नहीं पढ़ते थे, बल्कि आम पाठकों को भी उनके काम में बहुत दिलचस्पी थी, जो उनकी किताबों की लोकप्रियता से प्रमाणित होती है. उन्होंने एनसीइआरटी के विद्यालयी पाठ्यक्रम की किताबें भी लिखीं, जिन्हें पढ़ कर कई पीढि़यों ने भारतीय इतिहास की समझ पायी है. लोक सेवा परीक्षाओं के लिए भी उनकी किताबें बहुत महत्वपूर्ण रही हैं. इस तरह उनके ऐतिहासिक लेखन का प्रभाव बहुत व्यापक रहा है. आधुनिक भारत के बारे में किसी भी अन्य इतिहासकार से कहीं अधिक उनके लेखन का देश पर प्रभाव रहा है और यह बहुत लंबे अरसे तक बना रहेगा.
प्रो बिपन चंद्र का जाना आज इसलिए भी एक बड़ा झटका है, क्योंकि एक बार फिर हमारे समय इतिहास को सतही दक्षिणपंथी रुझान देने की कोशिश हो रही है. इतिहास को लेकर अलग-अलग समझ और विचार का होना स्वाभाविक है, लेकिन इतिहास-लेखन के जो मानदंड हैं, उनसे परे जाकर इतिहास लिखने और रचने की कोशिश खतरनाक है. ऐसे अनेक लेखक हुए हैं, जिनके लेखन से वामपंथी या उदारवादी इतिहासकार असहमत हैं, लेकिन उनके काम को खारिज नहीं किया जा सकता है, क्योंकि उन्होंने इतिहास-लेखन के मानदंडों का पालन किया है. प्रो आरसी मजूमदार का लेखन एक महत्वपूर्ण उदाहरण है.
अब ऐसी बातें सुनने में आ रही हैं कि पुराणों के आधार पर इतिहास की रचना की जायेगी. इतिहास किसी एक आधार पर कैसे लिखा जा सकता है! डीडी कोशांबी और रोमिला थापर जैसे इतिहासकारों ने भी पुराणों को ऐतिहासिक स्रोत के रूप में इस्तेमाल किया है, लेकिन उनके साथ अन्य स्रोतों और जानकारियों का भी समावेश किया है. इतिहास-रचना का यही तरीका हो सकता है.
प्रो केएम पणिक्कर कहा करते हैं कि हमारे देश की अजीब स्थिति है कि इतिहास का हाल क्रिकेट के खेल की तरह हो गया है. खेल की तरह मैदान के बाहर खड़ा हर व्यक्ति इतिहास पर अपनी राय दे देता है. लोग विज्ञान या अर्थशास्त्र पर कुछ नहीं कहते, लेकिन इतिहास पर बोलने से बाज नहीं आते. इतिहास-लेखन के मानकों और विधा के प्रति समर्पण को लेकर प्रो बिपन चंद्र हमेशा लड़ते रहे थे और यह हमारे लिए महत्वपूर्ण विरासत भी है तथा एक जिम्मेवारी भी है.
(प्रकाश कुमार रे बातचीत पर आधारित)

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