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‘जब मधुबाला ने दिलीप कुमार को घसीटा अदालत में’

राजकुमार केसवानी वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए विशेष यह सच है कि इस तमाम कायनात में इश्क़-ओ-मोहब्बत से ज़्यादा ख़ूबसूरत कोई दूसरी शै नहीं है लेकिन जब बात बिगड़ जाए तो इतिहास के पन्ने खुलकर सामने आते हैं और नाकाम मोहब्बत के दर्दनाक अंजाम की हज़ारों कहानियां याद दिलाते हैं. हाल ही […]

यह सच है कि इस तमाम कायनात में इश्क़-ओ-मोहब्बत से ज़्यादा ख़ूबसूरत कोई दूसरी शै नहीं है लेकिन जब बात बिगड़ जाए तो इतिहास के पन्ने खुलकर सामने आते हैं और नाकाम मोहब्बत के दर्दनाक अंजाम की हज़ारों कहानियां याद दिलाते हैं.

हाल ही में प्रीति ज़िंटा और नेस वाडिया की प्रेम कथा का अंत जिस तरह एक पुलिस थाने में दर्ज शिकायत से हो रहा है उससे फ़ौरन ही अपने दौर के दो महान अदाकारों दिलीप कुमार और मधुबाला की बेमिसाल मोहब्बत की उस दिलगुदाज़ दास्तान की याद आती है जिसका आख़िरी पन्ना एक अदालत की कार्यवाही में लिखा गया.

बात कोई 64-65 बरस पुरानी है. निर्देशक राम दरयानी की फ़िल्म ‘तराना’ (1957) के लिए दिलीप कुमार को हीरो और मधुबाला को बतौर हीरोइन साइन किया गया. हीरो-हीरोइन का आमना-सामना क्या हुआ कि बस जादू हो गया.

‘मोहब्बत का इक़रार’

इस फ़िल्म में लता मंगेशकर और तलत महमूद का एक युगल गीत इस जादू को यूं बयान करता है, ‘नैन मिले नैन हुए बावरे, चैन कहां मोहे सजन सांवरे’. यह आग़ाज़ था दिलीप कुमार-मधुबाला की मोहब्बत का.

कहते हैं इस आग़ाज़ में गुलाब के एक फूल की बेहद अहम भुमिका थी. मधुबाला ने उस दौर में इश्क़ के प्रचलित साधन ‘पर्ची’ के साथ यह गुलाब दिलीप कुमार को उनके मेक-अप रूम में भेजा था.

पर्ची पर लिखा था ‘अगर आपको मुझसे मोहब्बत का इक़रार हो तो इस गुलाब को क़ुबूल फ़रमाएं’. दिलीप कुमार ने अपने चेहरे पर मुस्कान बिखेरी और गुलाब अपने हाथों में ले लिया.

मधुबाला की तबीयत में ज़बरदस्त रूमानियत और लड़कपन का एक ग़ज़ब का मेल था और हो भी क्यों नहीं. मधुबाला की पैदाइश हुई थी 14 फरवरी 1933 को और वह था दुनिया भर के प्रेमियों के जश्न का दिन, ‘वेलेंटाईन डे’.

जब यह सिलसिला शुरू हुआ तब मधुबाला की उम्र बमुश्किल 17 बरस की थी. इस 17 की उम्र तक आने से पहले मधुबाला कमाल अमरोही और प्रेमनाथ के साथ इश्क़ में गिरफ़्तार हो चुकी थीं.

मधुबाला की पहलकदमी

लड़कपन की नासमझी में हुए नाकाम इश्क़ के इन हादसों से गुज़रकर आई मधुबाला इस बार इस रिश्ते को लेकर बेहद संजीदा थी. इस इश्क़ में वह दीवानगी की हद तक मुब्तला थीं.

इस मोहब्बत की पहलक़दमी भले ही मधुबाला ने की हो लेकिन दिलीप कुमार की दीवानगी भी किसी तरह कम न थी.

उनके लिए बिना मधुबाला के एक दिन गुज़ारना लगभग नामुमकिन हो चुका था. हालत यह थी कि वे अपनी फ़िल्म की शूटिंग छोड़-छोड़ कर वहां पहुंच जाते जहां मधुबाला की शूटिंग चल रही होती.

मधुबाला के पिता अताउल्ला ख़ान बेहद सख़्त मिज़ाज वाले इंसान थे. अपनी बेटी पर हर वक़्त बड़ी चौकस नज़र रखते थे.

फ़िल्मी दुनिया के तमाम मर्दों का किरदार उनके लिए शक के दायरे में था. दिलीप कुमार भी इस दायरे से बाहर न थे फिर भी बात यहां तक जा पहुंची कि रिश्ते को एक औपचारिक रूप दिया जा सके.

तीन पत्ती का खेल

मधुबाला की बहन के मुताबिक़ उनकी सगाई भी हो गई. दिलीप कुमार की बड़ी बहन सकीना आपा मधुबाला के घर रस्मी तौर पर चुनरी लेकर भी पहुंची थीं लेकिन एक दिन बात आख़िर बिगड़ ही गई.

इस जोड़ी ने ‘तराना’ के बाद 1952 में ‘संगदिल’ और 1954 में ‘अमर’ में एक साथ लीड रोल निभाए थे. के आसिफ़ की ‘मुग़ल-ए-आज़म’, जो रिलीज़ भले ही 1960 में हुई, लेकिन उसकी शूटिंग 50 के दशक से ही चलती आ रही थी.

इन फ़िल्मों की शूटिंग के दौरान ही दिलीप कुमार के मन में अताउल्ला ख़ान के प्रति एक अजीब सी नापसंद का जज़्बा पैदा हो चुका था.

इसकी वजह थी ख़ान साहब का मधुबाला की ज़िंदगी में क़दम-क़दम पर दख़लंदाज़ी करना. शूटिंग के दौरान भी उनकी दख़लंदाज़ी से डायरेक्टर्स परेशान हो जाते थे.

के आसिफ तो ख़ान साहब से इतने परेशान हो गए कि उन्हें सेट से दूर रखने के अपने एक पीआरओ मित्र तारक गांधी की मदद ली और ख़ान साहब को तीन पत्ती के खेल में उलझा दिया जिसका उन्हें बड़ा चस्का था.

झगड़े की नौबत

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‘जब मधुबाला ने दिलीप कुमार को घसीटा अदालत में’ 2

उस दिन सेट पर दिलीप कुमार-मधुबाला के बीच सलीम-अनारकली के बेहद रोमांटिक सीन शूट होने थे. मधुबाला की जीवनी लिखने वाले पत्रकार मोहन दीप के अनुसार ‘आसिफ ने 25 हज़ार रुपए देकर गांधी से कहा – जीतने दो साले को’.

हक़ीक़त यह है कि इस खेल के विजेता आसिफ ही रहे जिन्होंने उस दिन मनचाहे तरीके से रोमांटिक सीन शूट कर लिए और अताउल्ला ख़ान जुए में जीते हुए नोट गिनते रहे.

दिलीप कुमार को ये तमाम पाबंदियां और ख़ान साहब की आदतें कतई नापसंद थीं. उन्होने मधुबाला से साफ़ कह दिया था कि शादी के लिए उसे फ़िल्मों में काम करना तो छोड़ना ही होगा लेकिन उसी के साथ ही अपने पिता से सारे रिश्ते तोड़ने होंगे.

मधुबाला को अपने वालिद साहब की सख़्तियों के बावजूद उनसे बेइंतिहा मोहब्बत थी. जिन मुश्किलों से उन्होंने अपना परिवार चलाया था, वो उसकी बड़ी कद्र करती थीं.

इसी मसले को लेकर इन दो प्रेमियों में अकसर झगड़े की नौबत आ जाती थी.

शूटिंग की लोकेशन

1956 में निर्माता-निदेशक बीआर चोपड़ा ने अपनी फ़िल्म ‘नया दौर’ की योजना बनाई. इस फ़िल्म के लिए दिलीप कुमार के साथ मधुबाला को कास्ट किया गया. शुरूआत अच्छी हुई.

मुहूर्त से लेकर कारदार स्टूडियो में पहले दस दिन की शूटिंग भी मज़े-मज़े में हो गई. इसके बाद बात आई आउटडोर शूटिंग की. इस फ़िल्म की अधिकांश शूटिंग असल लोकेशन पर भोपाल के पास बुधनी कस्बे में कोई दो महीने तक चलनी थी.

बीआर चोपड़ा की इस बात से ख़ान साहब सहमत नहीं थे. वो चाहते थे कि बम्बई के ही किसी स्टूडियो में गांव का सेट लगाकर शूटिंग की जाए लेकिन चोपड़ा साहब इस बात पर बिल्कुल तैयार न थे.

यह विवाद इतना गहराया कि आख़िर तैश में आकर चोपड़ा साहब ने मधुबाला की जगह वैजयंती माला को साइन कर लिया.

दिलीप कुमार इस पूरे मामले में चोपड़ा साहब के साथ खड़े रहे. उनका विचार था कि अताउल्ला उनकी वजह से मधु को भोपाल जाने नहीं दे रहे.

शूटिंग पर रोक लगाने का केस

जबकि मधुबाला के परिवार वालों का कहना है कि असल में मधुबाला दिल में छेद होने की वजह से बीमार रहती थीं और उसे उन्होंने दुनिया के अलावा फ़िल्म इंडस्ट्री से भी एक राज़ की तरह छिपा रखा था. आउटडोर में भेजने पर तबीयत बिगड़ भी सकती थी और राज़ खुल सकता था.

चोपड़ा ने वैजयंती माला को लेकर इसका ऐलान एक अख़बारी इश्तिहार के ज़रिए किया. इस इश्तिहार में मधुबाला पर एक कट का निशान लगाकर उसकी जगह वैजयंतीमाला का फ़ोटो छपवा दिया.

पठान अताउल्ला ख़ान का ख़ून खौल गया और जवाब में उन्होंने एक इश्तिहार दिया जिसमें मधुबाला की तमाम फ़िल्मों के नाम देकर आख़िर में ‘नया दौर’ के नाम पर वैसा ही कट का निशान लगा दिया.

इससे भी एक क़दम और आगे जाकर उन्होंने अदालत में फ़िल्म की शूटिंग पर रोक लगाने के लिए केस भी लगा दिया. इस केस के जवाब में चोपड़ा ने भी मधुबाला को फ़िल्म के साइनिंग अमाउंट के तौर पर दिए हुए 30 हज़ार रुपए की वापसी के लिए केस लगा दिया.

‘मैं मधु से प्यार करता हूँ’

इन्हीं अदालती झगड़ों की सुनवाई के दौरान दिलीप कुमार को गवाही के लिए बुलाया गया. बाक़ी तमाम सारे सवालों के अलावा एक सवाल यह भी पूछा गया कि क्या वे मधुबाला से प्यार करते हैं. दिलीप कुमार ने मजिस्ट्रेट आरएस पारख की अदालत में सबके सामने कहा, "हां मैं मधु से प्यार करता हूं और उसे हमेशा प्यार करता रहूंगा".

कैसी विडंबना है कि जिस दिन दिलीप कुमार ने सरे आम इस प्यार का इज़हार किया था उसी दिन इस प्रेम कहानी का अंत भी हो गया.

इस पूरी कहानी से जुड़ी एक बेहद अहम बात यह है कि इस कथित अंत के बाद भी फिल्म ‘मुग़ल-ए-आज़म’ की शूटिंग में दोनों साथ ही साथ काम करते रहे.

मोहब्बत के मंज़र तो देखिए कि फ़िल्म के सीन कर वे एक-दूसरे से मुंह फेर लेते थे लेकिन एक सीन ऐसा भी आया जब सलीम अनारकली को ग़ुस्से में एक थप्पड़ जड़ता है.

इस सीन में दिलीप कुमार ने मधुबाला को ऐसा करारा तमाचा मारा था कि सेट पर मौजूद तमाम लोग हिल गए थे. मधुबाला को भी अपने होश संभालने में बड़ा वक़्त लगा.

फ़िल्म ‘तराना’ में ही लता मंगेशकर का गाया एक और गीत था – ‘मोसे रूठ गयो मोरा सांवरिया, किसकी लगी ज़ुल्मी नज़रिया.’ काश कभी किसी भी मोहब्बत को ऐसी नज़र न लगे कि बात नफ़रत में बदल जाए.

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