भरत तिवारी, कला समीक्षक
पटना के ठुमरी-प्रेमी संगीत के बड़े अच्छे जानकार हैं’, सुनंदा शर्मा की मुझसे कही इस बात के गहरे अर्थ निकलते हैं. वह अनायास ही ठुमरी की रानी, अप्पाजी की प्रिय शिष्या नहीं हैं. जब वह संगीत सीखने बनारस पहुंची थीं और गिरिजाजी ने उनकी बोली सुधारी- ‘दरवाजा’ नहीं ‘दरवज्जा’ बोलो!- वहीं से उनके अंतिम समय तक वह ‘परफेक्ट स्टूडेंट’ रहीं.
यह चर्चा अकसर होती है कि हिंदुस्तानी संगीत को समझने-चाहनेवालों की संख्या को फिल्मी गीतों से नुकसान पहुंचता है. संभवतः वह सांगीतिक समझ है, जो हिंदुस्तानी संगीत के इन दो ध्रुवों- शास्त्रीय और लोक, यानी आम जन के (आज का फिल्मी) संगीत- को समझने-चाहनेवालों को तय करती है. यहीं शास्त्रीय संगीत का मिलना साहित्य से होता है. यह मिलन रसिकों को अपनी ओर खींच पाता है और उपशास्त्रीय-संगीत बनता है. सनद रहे कि यह लोक संगीत नहीं है.
कभी इस साहित्यिक-संगीत का जन्म, नाट्यशास्त्रीय ध्रुव-सरीखे अटल संगीत, ध्रुपद से खयाल के रूप में होता है, सुलभता की तरफ बढ़ता यह क्रम छोटा-खयाल को जन्म देता है; जहां से वर्तमान उपशास्त्रीय-संगीत की शैलियां- ठुमरी, होरी, कजरी, चैती दादरा, टप्पा- जन्मती हैं. यहां सुप्रसिद्ध गायिका सुनंदा शर्मा के ठुमरी गायन को उपशास्त्रीय कहने में हिचक होती है. उनकी गायी ठुमरी, कहीं से भी शास्त्रीयता में खयाल से कम नहीं सुनायी देती.
सुननेवालों के आनंद के लिए, विभाषा-गीति में, कोमल-कर्णप्रिय गमकों का संयोजन, जहां जरूरत हो, किया जाना चाहिए. आखिरी बंध देखिए- भाषागीतिः समाख्याता एषा गीतिविचक्षणैः/ यथा वै रज्यते लोकस्तथा वै संप्रयुज्य [306]
ऐसा तो नहीं कि ठुमरी इन्हीं गितियों का रूप है? हो भी सकती है, क्योंकि वह लोकभाषा से काव्य (होरी, कजरी, चैती) लेने के बाद भी अपनी शास्त्रीयता बनाये रखती है.
‘पटना के ठुमरी-प्रेमी संगीत के बड़े अच्छे जानकार हैं’, सुनंदा शर्मा की मुझसे कही इस बात के गहरे अर्थ निकलते हैं. वह अनायास ही ठुमरी की रानी, अप्पाजी की प्रिय शिष्या नहीं हैं. जब वह पहले-पहल संगीत सीखने बनारस पहुंची थीं और गिरिजाजी ने उनकी बोली सुधारी- ‘दरवाजा’ नहीं ‘दरवज्जा’ बोलो!- वहां से उनके अंतिम समय तक वह ‘परफेक्ट स्टूडेंट’ रहीं. बहरहाल कुछ उन्हें अप्पाजी ने बताया और बाकी उनका अपना अनुभव है.
मसलन, पटना में दशहरा उत्सव में एक मैदान में बिस्मिल्लाह खान साहब, पंडित रविशंकर और गिरिजा देवीजी को सुनने हजारों रसिक जुटे हों और तीन-तीन मंच सजे हों कि एक पर खां साब की शहनाई रुके, तो दूसरे पर पंडित जी का सितार झनके और वह थमे तो अप्पाजी की ठुमरी शुरू. सुनंदा कहती हैं कि पटना और बनारस एक (घर पढ़ें) जैसे लगते हैं. मोतिहारी भी अच्छे श्रोताओं का शहर लगा उन्हें. ‘पुरबी अंग’ की ठुमरी को वहां सौ प्रतिशत साहित्यिक रसिक मिलते हैं!
‘याद पिया की आये’ में बड़े गुलाम अली खान साहब की आवाज में, विरह के चरम का दर्द भरे, जो मिठास है, वह ठुमरी की है, शास्त्रीय है या उपशास्त्रीय यह विद्वान देखें. खान साहब की ठुमरी में ‘पंजाबी अंग’ की ठुमरी ‘टप्पा’ भी सुनायी देती है. ‘टप्पा’ में ‘खयाल’ का एहसास है, क्योंकि इसके उस्तादों के उस्ताद खयाल गायकी के उस्ताद हुआ करते थे. सुनंदा शर्मा बहुत अच्छा ‘टप्पा’ सुनाती हैं.
लखनऊ के कला-प्रेमी नवाब अासिफुद्दौला के दरबार में दिल्ली के कई उस्ताद पहुंचते हैं, कारण दिल्ली में औरंगजेब का संगीत पर कर्फ्यू लगाना. वहां उस्ताद गुलाम रसूल खान, ध्रुपद को तोड़कर खयाल की बंदिशें रचते हैं. उनके सुपुत्र गुलाम नबी शोरी पंजाब जाते हैं और कई साल ऊंट वालों के साथ वहां के संगीत को, विवाह गीत को सुनने-समझने में बिताते हैं और फिर उसे तराशकर अपनी गायकी में शामिल करते हैं. यों टप्पे का जन्म होता है, और अवध, यानी लखनऊ यानी फैजाबाद शोरी मियां के टप्पों से गूंज उठता है.
ऐसे में अख्तरी बाई फैजाबादी का पंद्रह साल की उम्र में पब्लिक में पहली ठुमरी गाना और फिर खरामा-खरामा उस ऊंचाई पर ठुमरी को अपने साथ ले जाना कि सबके दिलों पर उनका राज हो जाये, आश्चर्य की बात नहीं लगती और न ही उनको ‘मल्लिका-ए-तरन्नुम बेगम अख्तर’ कहा जाना.
ऐसे ही नहीं लोग ठुमरी के दीवाने बने जाते रहे हैं. ठुमरी की ठुमक को नजर न लगे. यह दुआ नहीं कर रहा हूं, बल्कि उसके चाहनेवालों को आगाह कर रहा हूं कि अप्पाजी ने अपने अंतिम दिनों में नाराजगी जाहिर करते हुए साफ हिदायत दी थी कि ठुमरी की कोमलता को न छेड़ा जाये. अर्थात तलवार भांजकर ठुमरी ‘मत मारो तलवरिया’ को ‘मत मारो तल-व-अ-व-अ…रिया’ न किया जाये.