फिल्म ‘मदर इंडिया’ की राधा अपने जान से प्यारे बेटे बिरजू पर दुनाली तानकर कहती है, ‘मैं बेटा दे सकती हूं, लाज नहीं दे सकती’. लेकिन वहीं फिल्म ‘राजी’ की सहमत राष्ट्रप्रेम की ऐसी किसी भी परिभाषा पर संदेह करती है, जो देश को इंसानियत से भी ऊपर रखे.
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राजी को मां बनना है, मदर इंडिया नहीं
फिल्म ‘मदर इंडिया’ की राधा अपने जान से प्यारे बेटे बिरजू पर दुनाली तानकर कहती है, ‘मैं बेटा दे सकती हूं, लाज नहीं दे सकती’. लेकिन वहीं फिल्म ‘राजी’ की सहमत राष्ट्रप्रेम की ऐसी किसी भी परिभाषा पर संदेह करती है, जो देश को इंसानियत से भी ऊपर रखे. पचास के सुनहरे दशक का बंबईया […]
पचास के सुनहरे दशक का बंबईया सिनेमा जरा भी बंबईया नहीं. यह परदे के आगे पंजाब का सिनेमा है आैर परदे के पीछे बंगाल का सिनेमा. आजादी देश के इन दो समृद्ध प्रांतों के लिए बंटवारा लायी थी, आैर इन्हीं प्रांतों से आये ‘जड़ों से उजड़े’ लोगों ने बंबईया सिनेमा को बनाया. हमें हमारे हिस्से की मानीखेज कहानियां दीं. पंजाब ने हमें नायक दिये, तो बंगाल ने लेखक-निर्देशक. उनकी कहानियां जैसे हमारी बन गयीं. अरुण यह मधुमय ‘देश’ बनाने की कोशिश में जिन्होंने विष पिया, वे इसकी कीमत समझते हैं.
यह संयोगभर नहीं है कि ‘राजी’ की निर्देशक मेघना गुलजार इसी युगल विरासत की प्रतिनिधि हैं, और वे एक स्त्री हैं. उनके हिस्से बंटवारे में लहूलुहान पंजाब भी है, बंगाल भी. शायद इसलिए उनके पास इससे आगे देख पाने की दृष्टि है. एक सुखद आश्चर्य की तरह उनकी फिल्म ‘राजी’ ने हमारे सिनेमा (समाज पर भी) पर इस समय हावी देशभक्ति की एकायामी परिभाषा को सिरे से बदल दिया है. जिस किस्म का राष्ट्रवाद वह प्रस्तुत करती है, उसकी नींव नफरत पर नहीं रखी गयी है.
‘राजी’ का राष्ट्रवाद नेहरूवियन आधुनिकता और राष्ट्र निर्माण के सपने की याद दिलाता है. पचास के दशक में उस सपने को सिनेमा के पर्दे पर जिलानेवाली राज कपूर की ‘जिस देश में गंगा बहती है’, दिलीप कुमार की ‘नया दौर’, वी शांताराम की ‘दो आंखें बारह हाथ’ और महबूब खान की ‘मदर इंडिया’ जैसी क्लासिक फिल्मों की याद दिलाता है. ठीक है, वह प्रयोग अधूरा साबित हुआ और वह सपना टूटा, जिसकी किरचें सत्तर के दशक के ‘एंग्री यंग मैन’ मार्का विद्रोह में बिखरी दिखती हैं.
पर ‘राजी’ यहीं नहीं रुकती. वह हमें भारतीय राष्ट्रवाद का मौलिक चेहरा याद दिलाती है, जिसकी बुनियाद आजादी के संघर्ष के दौरान रखी गयी. राष्ट्रवाद, जिसका चेहरा आज की तरह एकायामी, हिंसा पर टिका आैर बदनुमा नहीं था. लेकिन वह हमें इस पारिवारिक तथा सामुदायिक वफादारियों की नींव पर खड़े भारतीय राष्ट्रवाद का दोमुंहा चरित्र भी दिखाती है. राज्य, जो नागरिक से अनन्य वफादारियां तो मांगता है, लेकिन बदले में न्याय के समक्ष आैर संसाधनों में बराबरी का वादा कभी पूरा नहीं करता.
आजादी के दशकभर बाद आयी क्लासिक ‘मदर इंडिया’ की राधा अपने जान से प्यारे बेटे बिरजू पर दुनाली तानकर कहती है, ‘मैं बेटा दे सकती हूं, लाज नहीं दे सकती’. बिरजू का खून पानी बन ‘आधुनिक भारत के मंदिर’ बहुउद्देश्यीय बांधों से निकली कल-कल नहरों में बहने लगता है. पर, आजादी के सत्तर साल बाद ‘राजी’ की सहमत फिल्म के अंत तक आते-आते इस राष्ट्र-राज्य के छल को समझ गयी है. वह राष्ट्रप्रेम की ऐसी किसी भी परिभाषा पर संदेह करती है, जो देश को इंसानियत से भी ऊपर रखे.
सहमत ‘मदर इंडिया’ की भूमिका को निभाने से इनकार कर देती है. शायद उसे समझ आने लगा है कि राष्ट्र-राज्य ये कुर्बानियां हमेशा स्त्रियों से, वंचितों से, दलितों से, अल्पसंख्यकों से आैर हाशिये पर खड़ी पहचानों से ही मांगा करता है. कभी उसका पता हाशिमपुरा है, तो कभी नर्मदा की घाटी. कभी नियमगिरी के पहाड़, तो कभी तूतीकोरिन. सहमत की कोख में ‘दुश्मन’ का बच्चा है आैर मुल्क युद्धरत है. पर उसका फैसला है, ‘मैं इकबाल के बच्चे को गिराऊंगी नहीं. एक आैर कत्ल नहीं होगा मुझसे.’ यही फिल्म में उसका अंतिम संवाद है. उसे मां बनना है, ‘मदर इंडिया’ नहीं.
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