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पाकिस्तानी बुद्धिजीवियों की नजर में भारतीय चुनाव के विविध आयाम

भारत व पाकिस्तान का राजनीतिक विमर्श बिना एक-दूसरे के उल्लेख के पूरा नहीं हो सकता है. आम चुनावों में भले ही अंतरराष्ट्रीय मसलों पर खुल कर बहस नहीं हो रही है, लेकिन चुनाव-प्रचार के दौरान गाहे-बगाहे पाकिस्तान की चरचा हो ही जाती है. इसी तरह पाकिस्तान में भी लोगों की नजर इस चुनाव पर है. […]

भारत व पाकिस्तान का राजनीतिक विमर्श बिना एक-दूसरे के उल्लेख के पूरा नहीं हो सकता है. आम चुनावों में भले ही अंतरराष्ट्रीय मसलों पर खुल कर बहस नहीं हो रही है, लेकिन चुनाव-प्रचार के दौरान गाहे-बगाहे पाकिस्तान की चरचा हो ही जाती है. इसी तरह पाकिस्तान में भी लोगों की नजर इस चुनाव पर है. इस सप्ताह की कवर स्टोरी और बात-मुलाकात में पाकिस्तान के नजरिये के कुछ पहलुओं को समझने की हमारी कोशिश…

भारत की असमान सामाजिक-आर्थिक विकास की पृष्ठभूमि में भाजपा की जीत की संभावनाएं व्यक्त की जा रही हैं. पार्टी की ओर से दावा किया जा रहा है कि उसके उग्रराष्ट्रवादी नेता नरेंद्र मोदी भारत के आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को पूरा करेंगे. यह एक बड़ा विडंबनात्मक विरोधाभास है.

राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मीडिया में मोदी की जीत के तमाम दावों के बावजूद मतदाताओं के एक बड़े हिस्से में इन चुनावों से किसी उम्मीद को लेकर बड़ा भ्रम नहीं है. प्यू रिसर्च सेंटर के एक हालिया सर्वेक्षण में 70 फीसदी लोगों ने भारत की संभावनाओं पर असंतोष व्यक्त किया और दस में से आठ को फिलहाल आर्थिक बेहतरी की उम्मीद नहीं है. प्यू के ब्रूस स्टोक्स कहते हैं कि भारतीय मतदाता के लिए हर चीज एक समस्या है.

एक तरफ देश की बड़ी आबादी को पूंजीवाद के अंतर्गत देश के भविष्य के लिए कोई उम्मीद नहीं है, वहीं भारतीय खरबपतियों की कुल संख्या जापानी खरबपतियों से अधिक हो चुकी है. ये धनकुबेर नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए बेचैन हैं. कुछ महीने पहले प्यू द्वारा कराये गये एक अन्य सर्वेक्षण में देश के सौ सबसे धनी कॉरपोरेट मालिकों में से 74 ने अन्य नेताओं की अपेक्षा नरेंद्र मोदी को अपनी पसंद बताया था.

भारतीय कॉरपोरेट की सोच है कि कठोर और तुनकमिजाज मोदी श्रम कानूनों में बदलाव, सब्सिडी में कटौती आदि कर व्यापार जगत को और अधिक छूट देंगे. मोदी का घोर राष्ट्रवादी और सांप्रदायिक रुझान जगजाहिर है, लेकिन कॉरपोरेट मीडिया द्वारा गुजरात के आर्थिक विकास का मॉडल मोदी की जय-गाथा के केंद्र में रख कर प्रस्तुत किया जा रहा है. अब पूरे देश को इस दवा को लेने के लिए तैयार किया जा रहा है. हालांकि, इस उच्च विकास की सच्चाई यह है कि गुजरात के व्यवसायियों ने तो बड़ा मुनाफा बनाया, लेकिन आम जनता के हिस्से में तकलीफें ही आयीं. आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, वहां स्वास्थ्य, शिशु मृत्यु दर, शिक्षा और मजदूरी में कोई बेहतरी नहीं हुई है.

गुजरात में 2006 में कुपोषण के शिकार बच्चों की संख्या 1993 से अधिक थी. भारतीय सीएजी की रपट के अनुसार, मोदी सरकार ने उद्योगपतियों को बहुत ही सस्ती दरों पर जमीनें और बैंक ॠण उपलब्ध कराये हैं. माना जा रहा है कि इसके बदले में इन उद्योगपतियों ने मोदी को चुनाव प्रचार के लिए धन और संसाधन मुहैया कराया है. जेएनयू, दिल्ली से जुड़े राजनीतिक विश्लेषक अतुल सूद ने लिखा है कि गुजरात का प्रशासनिक मॉडल धनिकों के पक्ष में है और गरीबों के खिलाफ है. हालांकि इस दौरान कांग्रेस का कामकाज भी बहुत निराशाजनक रहा है. भ्रष्टाचार ही कांग्रेस सरकार की अलोकप्रियता का एकमात्र कारण नहीं है. इसके पीछे महंगाई, बेरोजगारी और गरीबी में वृद्धि भी बड़े कारण रहे हैं. तथाकथित उभरती अर्थव्यवस्थाओं की तरह भारत में भी विकास की दर कम हो गयी है और विषम पूंजीवादी नीतियों की असलियत सामने आ चुकी है.

कांग्रेस के अलावा राजनीतिक परिदृश्य में कई क्षेत्रीय पार्टियां भी हैं, जो सत्ता में हिस्सेदारी के लिए हर तरह के राष्ट्रवादी, जातीय और नस्लीय पूर्वाग्रहों का इस्तेमाल करती हैं, ताकि देशव्यापी लूट में उन्हें भी हिस्सा मिल सके. 1990 के दशक के शुरू में देश में मुक्त बाजार की नीतियां लागू होनी शुरू हुई थीं, जिनके विरोध के कारण वामपंथी दलों को 2004 के आम चुनाव में काफी सीटें मिली थीं. डॉ मनमोहन सिंह इन नीतियों के मुख्य वास्तुकार थे.

दुर्भाग्य से, वामपंथियों ने भी वही नीतियां अपनानी शुरू कर दीं, जिसके कारण इन दलों से भी जनता का मोहभंग हो गया और 2009 के चुनाव में इन्हें हार का मुंह देखना पड़ा. परंतु इन पार्टियों ने इससे कोई सबक नहीं लिया. एक समाजवादी क्रांति के लिए काम और भ्रष्ट तंत्र के विरुद्ध संघर्ष करने के बजाय ये सांप्रदायिकता और लोकतंत्र के उथले मसले पर ही बात करते रहे. इससे उनकी संसदीय राजनीति को झटका लगा, जिसे उन्होंने क्रांति की राह छोड़ कर अपनाया था, जिसका आधार उनकी ह्यदो स्तरोंह्ण की गलत नीति थी. इसी तरह, आम आदमी पार्टी भी कोई विकल्प नहीं है. कुछ अलग रंग में यह पार्टी भी कांग्रेस और भाजपा के जैसी नीतियों की ही वकालत कर रही है.

आधिकारिक आंकड़ों की मानें तो सवा अरब की आबादी में 81 करोड़ लोगों को समुचित भोजन नहीं मिल पाता है. वैश्विक पूंजीवाद के मुखपत्र द इकोनॉमिस्ट ने भारतीय पूंजीवाद की संभावनाओं को इन शब्दों में व्यक्त किया है- ह्यदेश समस्याओं से त्रस्त है. वृद्धि की दर आधी रह गयी है, जो हर साल जुड़ रहे लाखों युवाओं को रोजगार दे पाने के लिए सक्षम नहीं है. सुधार की गति उलटी है. सड़कें और बिजली उप्लब्ध नहीं है और बच्चों को शिक्षा नहीं मिल पा रही है… भारतीय स्वयं कहते हैं, राजनीति का व्यवसाय भ्रष्टाचार है.

यह भारतीय सत्ताधारी वर्ग के लिए एक तमाचा है. वे न सिर्फ लोकतांत्रिक लक्ष्यों की पूर्ति में असफल रहे हैं, बल्कि हिंदू कट्टरपंथ को दिये गये समर्थन से उसका प्रतिक्रियावादी स्वभाव भी सामने आ गया है. बुर्जुवा की यह ऐतिहासिक असफलता भारतीय पूंजीवाद की पतनशील प्रकृति की ओर संकेत करती है. बिना किसी पश्चाताप के दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का घिसा-पिटा नारा लगाता हुआ शोर यह सच्चाई छिपाने की कोशिश करता है कि भारत दुनिया में गरीबी का भी सबसे बड़ा केंद्र है. दुख और पीड़ा भारतीय मजदूर वर्ग का भाग्य नहीं हो सकता है. संघर्ष और जन-विद्रोह की उसकी गौरवपूर्ण परंपरा रही है. उन्हें बहुत लंबे समय तक लोकतंत्र और राष्ट्रवाद के नाम पर पूंजीवादी दबाव में नहीं रखा जा सकता है.

(पाकिस्तानी ऑनलाइन पत्रिका व्यू प्वॉइंट से साभार)

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