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सामाजिक उन्नति की कुंजी है राजनीतिक शक्ति

-नॉलेज डेस्क दिल्ली- सभी प्रकार की सामाजिक उन्नति की कुंजी राजनीतिक शक्ति है. यदि अनुसूचित जाति ने संगठित होकर भारत में एक तीसरी राजनीतिक शक्ति बनायी और कांग्रेस और समाजवादियों के सामने और एक तीसरी शक्ति के रूप में खड़ा कर लिया तो अपनी मुक्ति का द्वार वे स्वयं खोल सकते हैं. हमें एक तीसरी […]

-नॉलेज डेस्क दिल्ली-

सभी प्रकार की सामाजिक उन्नति की कुंजी राजनीतिक शक्ति है. यदि अनुसूचित जाति ने संगठित होकर भारत में एक तीसरी राजनीतिक शक्ति बनायी और कांग्रेस और समाजवादियों के सामने और एक तीसरी शक्ति के रूप में खड़ा कर लिया तो अपनी मुक्ति का द्वार वे स्वयं खोल सकते हैं. हमें एक तीसरी शक्ति के रूप में संगठित होना है ताकि चुनाव के समय कांग्रेस या सोशलिस्टों के पास पूर्ण बहुमत न हो तो दोनों को ही हमारे पास मतों के लिए भीख मांगने आना पड़े. ऐसे समय में हम दोनों पक्षों के बीच शक्ति संतुलन का काम कर सकेंगे तथा अपनी राजनीतिक और समाजिक उन्नति के लिए उनसे कुछ शर्ते मनवा सकेंगे. -शेडय़ूल कास्ट फेडरेशन के पांचवें अधिवेशन (लखनऊ, 25 अप्रैल, 1948) में भाषण का अंश

हम ही क्रांति का चक्र घुमाएंगे

अस्पृश्यों का भविष्य अतिशय उज्‍जवल है, इस विषय में नि:शंक रहें. कांग्रेस का कहना है कि विदेशी सत्ता को बाहर निकालने के लिए हमने क्रांति की. इसके लिए उन्हें धन्यवाद. परंतु यह क्रांति अधूरी है. खरी लोकशाही लानी हो तो आज हजारों वर्षो से सिर पर चढ़ कर नाचने वाला उच्च वर्ण नीचे आये और समाज के निम्न वर्ग को ऊपर लाये. हमारे बगैर सही क्रांति नहीं होगी. क्रांति का चक्र अभी आधा ही घूमा है. हम ही इस चक्र को पूरा घुमाएंगे. -मनमाड में 1949 में दिये भाषण का अंश

देश 16वें आम चुनाव में व्यस्त है. इसमें किस्मत आजमा रहे राजनेताओं के चाल-चरित्र के साथ-साथ राजनीतिक दलों के वादों एवं इरादों को मतदाता अपने-अपने तरीके से परख रहे हैं. ऐसे वक्त में संविधान निर्माता बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के राजनीतिक सफर पर नजर डालना सामयिक होगा. आजादी के बाद पहले आम चुनाव में भाग लेनेवाले बाबा साहेब ने राजनीति और लोकतंत्र के लिए जिन मसलों को महत्वपूर्ण माना था, उनकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है. डॉ आंबेडकर के जन्मदिन के मौके पर उनके राजनीतिक सफर और सिद्धांतों पर नजर डाल रहा है आज का नॉलेज.

बीसवीं सदी के प्रमुख समाज सुधारक, राजनेता एवं दलित मुक्ति के दार्शनिक के रूप में बाबा साहेब डॉ भीमराव आंबेडकर की प्रतिष्ठा दुनियाभर में है. एक अस्पृश्य जाति में जन्म के बावजूद शिक्षा के बलबूते उन्होंने तरक्की पायी. अछूतों के धार्मिक एवं सामाजिक अधिकारों के लिए संघर्ष के साथ सामाजिक जीवन में प्रवेश किया. 1927 में ‘बहिष्कृत भारत’ पत्र का प्रकाशन और पानी के सवाल पर महाड़ सत्याग्रह किया. 1928 में साइमन कमीशन से दलितों के लिए शैक्षणिक सुविधाओं की मांग की. 1930 में देश के दलित नेता के रूप में गोलमेज सम्मेलन में हिस्सेदारी का निमंत्रण मिला, इस उद्देश्य से लंदन गये. 1932 में दलितों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की मांग पर महात्मा गांधी से समझौता (पूना पैक्ट) किया और दलितों के लिए अधिक सीटें आरक्षित करायीं.

स्वतंत्र मजदूर दल की स्थापना

बाबा साहेब भारत के सभी दलित, शोषित और श्रमिकों को एक झंडे के नीचे लाकर उनका एक राजनीतिक दल बनाना चाह रहे थे. उनके पूर्व भारत में ‘डिप्रेस्ड क्लासेस मिशन’ नाम की संस्था कार्यरत थी, पर उसका स्वरूप राजनीतिक नहीं था. 1935 के कानून के अंतर्गत 1937 में चुनाव घोषित हुए, लेकिन दलितों का अपना कोई राजनीतिक दल नहीं था. ऐसे में 1936 में उन्होंने ‘स्वतंत्र मजदूर दल’ की स्थापना की. इस दल की ओर से वे विधानमंडल में गये. कुछ वर्षो बाद इस दल का रूपांतर ‘अनुसूचित जाति संघ’ में किया.

अनुसूचित जाति संघ का गठन

देश में स्वतंत्रता के लिए चल रहे संघर्ष के साथ दलितों के हकों की आवाज उठाना जरूरी हो चुका था. इसके लिए एन शिवराज के नेतृत्व में जुलाई, 1942 में ‘अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ’ की स्थापना की गयी. संघ ने अपने संस्थापक सदस्य डॉ आंबेडकर के मार्गदर्शन में दलित वर्ग के राजनीतिक अधिकारों के लिए जोरदार संघर्ष किया. डॉ आंबेडकर की पुकार पर संघ के झंडे तले लोग इकट्ठा हो जाते थे. धीरे-धीरे अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ देश के लाखों दलितों की मजबूत आवाज बन गया.

हिंदू कोड बिल पर मतभेद और इस्तीफा

भारतीयों के जीवन में कुछ मूलभूत परिवर्तन लाने के लिए आंबेडकर ने 11 अप्रैल, 1947 को भारतीय संसद में हिंदू कोड बिल (हिंदुओं के लिए कानूनी संहिता) का प्रस्ताव पेश किया. उस पर विवाद उठा, कुछ ने विरोध किया तो कुछ प्रशंसा की. हिंदू कोड बिल का उद्देश्य था कि हिंदुओं के लिए एकरूप कानून हो, जो उनके समाजिक और धार्मिक जीवन को नियंत्रित करे और बहुत सी चीजों के अलावा तलाक का अधिकार और संपत्ति में महिलाओं का अधिकार सुनिश्चित किया जा सके. बाबा साहेब चाहते थे कि बिल संसद के वर्तमान सत्र में पास हो जाये. उन्होंने 10 अगस्त, 1951 को प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को पत्र लिखा कि संसद में विचार के लिए इस बिल को उच्च प्राथमिकता दी जाये, जिससे इसे एक सितंबर को पारित कराया जा सके. लेकिन हिंदू कोड बिल पर डॉ राजेंद्र प्रसाद और नेहरू के बीच मतभेद जगजाहिर था. संसद में चार अनुच्छेदों के पास होने के बाद उस पर आगे विचार करना स्थगित कर दिया गया. इससे उभरे मतभेदों और निराशा के कारण 27 सितंबर, 1951 को डॉ आंबेडकर ने प्रधानमंत्री को इस्तीफा सौंप दिया. उन्होंने कहा, ‘मुङो मंत्रिमंडल में विधिमंत्री का कार्यभार ग्रहण किये आज 4 वर्ष, एक माह और 26 दिन हो गये हैं..’

विधि मंत्री पद से इस्तीफे के कारण

10 अक्तूबर, 1951 को प्रेस को दिये वक्तव्य में उन्होंने कहा कि विधि मंत्रलय प्रशासनिक रूप से महत्वहीन है, क्योंकि सरकार की नीतियों को प्रभावित करने का कोई अवसर नहीं है. उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री ने विधि के अलावा योजना विभाग देने की सहमति व्यक्त की थी, पर अपने वायदे को पूरा नहीं किया. इस्तीफा देने का दूसरा कारण पिछड़ी जातियों व अनुसूचित जाति के साथ किये जा रहे व्यवहार से संबंधित था. उन्होंने कहा, ‘संविधान पारित हुए एक वर्ष से अधिक हो गया, पर सरकार ने अब तक आयोग गठित करने के बारे में सोचा भी नहीं’. तीसरे कारण में उन्होंने कहा कि भारत की विदेश नीति ठीक नहीं है, क्योंकि इससे मित्र कम, शत्रु अधिक उठ खड़े हुए हैं. चौथी बात उन्होंने 11 अप्रैल, 1947 को सदन में पेश किये गये ‘हिंदू कोड बिल’ के साथ हुए आचरण के बारे में कही. उन्होंने कहा कि ‘मैं प्रधानमंत्री के इस निर्णय को स्वीकार कर पाने में पूरी तरह से असमर्थ था कि समय का बहाना लेकर इस बिल को त्याग दिया जाये.’

पहले आम चुनाव में डॉ आंबेडकर और उनके संघ के सिद्धांत

27 सितंबर, 1951 को विधि मंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद अपनी बातों को खुल कर रख पाने के लिए वह आजाद थे. और यहीं से उन्होंने अनुसूचित वर्ग के हकों की लड़ाई लड़ने के लिए नयी राजनीतिक दिशा अख्तियार कर ली. 1952 के पहले आम चुनाव की तैयारी के लिए डॉ आंबेडकर के आवास 1, हार्डिग ऐवन्यू, नयी दिल्ली पर अक्तूबर, 1951 में ‘अखिल भारतीय अनुसूचित जाति सभा’ की बैठक हुई. बैठक में चुनावी घोषणापत्र पर विचार-विमर्श करते हुए निर्णय लिया गया कि कांग्रेस, हिंदू महासभा और वामपंथियों से कोई समझौता नहीं किया जायेगा. चुनावी घोषणापत्र में कहा गया कि संघ प्रत्येक भारतीय को स्वयं में अंतिम लक्ष्य मानेगा. अनुसूचित जाति संघ को जिन सिद्धांतों के आधार पर राजनीतिक पार्टियों के साथ सहयोग करना था, वे इस प्रकार से थे-

‘अनुसूचित जाति संघ’ किसी भी ऐसे दल के साथ गंठबंधन नहीं करेगा, जिसने अपने सिद्धांत खुल कर सामने नहीं रखे हैं या जिसके सिद्धांत संघ के सिद्धांतों के विरुद्ध हैं.

-संघ निर्दलीय प्रत्याशियों को समर्थन नहीं देगा.

-संघ पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जनजातियों के साथ मिल कर काम करना चाहेगा, क्योंकि कमोबेश इनकी दशा अनुसूचित जातियों जैसी ही है.

त्नप्रतिक्रियावादी दलों, यथा हिंदू महासभा या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से कोई गंठबंधन नहीं होगा.

त्नसंघ वामपंथी दलों से कोई गंठबंधन नहीं करेगा, जिसका उद्देश्य व्यक्तिगत स्वतंत्रता व लोकतंत्र का नष्ट कर उसकी जगह तानाशाही स्थापित करना है.

त्नसंघ स्वयं की परिपूर्णता पर विश्वास नहीं रखता और वह किसी ऐसे दल से नहीं जुड़ेगा, जो स्वयं को पहले से ही परिपूर्ण मानता हो और विरोधी दल को पनपने ही न देता हो.

-संघ बहुत सी राजनीतिक पार्टियों के पनपने का विरोध करता है, जैसा कि ब्रिटिश लेबर पार्टी, जो संघीय पार्टी है.

-संघ किसी ऐसे संघीय दल की इकाई बनने को तैयार है, ेजिसने अपने सिद्धांत स्पष्ट रूप से सामने रखे हों, ऐसे दल के सिद्धांत संघ के सिद्धांत के विरुद्ध न हों. जो दल गंठबंधन के इच्छुक हों, उन्हें वचन देना होगा कि अनुसूचित जाति के सामाजिक व आर्थिक उत्थान के कार्यक्रमों में वे सदैव समर्थन देंगे. ऐसे दल को इस बात से सहमत होना होगा कि संघ दल की इकाई बने रहते हुए आंतरिक मामलों में अपनी स्वायत्तता बरकरार रखेगा और दल किसी दशा में ऐसी पार्टी से संबद्ध नहीं होगा, जिसे दल ने अपनी इकाई के रूप में स्वीकृति न प्रदान की हो.

-कोई भी व्यक्ति, जो संघ की कोई सहायता चाहता हो, उसे संघ का संयुक्त सदस्य बनना होगा और शपथ-पत्र पर हस्ताक्षर करने होंगे कि वह संघ के सिद्धांतों, नियमों, योजनाओं व अनुशासन के नियमों को स्वीकार कर रहा है.

चुनावी उलटफेर में मिली हार

‘अनुसूचित जाति संघ’ ने नवंबर, 1951 में ‘प्रजा सोशलिस्ट पार्टी’ के साथ चुनावी गंठबंधन किया. डॉ आंबेडकर ने ‘प्रजा सोशलिस्ट पार्टी’ के उम्मीदवारों को समर्थन देने की अपील करते हुए कहा कि लोग क्यों ऐसा सोचें कि हमें राजनीति में भी अछूत ही रहना चाहिए? 25 नवंबर, 1951 को शिवाजी पार्क में एकत्र करीब दो लाख की सभा में उन्होंने जोर देकर कहा कि शासक पार्टी पर नियंत्रण रखने के लिए विपक्ष की बेहद जरूरत है.

जनवरी, 1952 में राज्य विधानसभाओं और संसद के चुनाव हुए. डॉ आंबेडकर ने उत्तरी मुंबई की सुरक्षित सीट से चुनाव लड़ा. चुनाव की आंधी कांग्रेस के पक्ष में चल रही थी, नतीजतन डॉ आंबेडकर हार गये. उन्हें 1,23,576 मत मिले, जबकि कांग्रेस के काजरोल्कर को 1,37,950 मत.

मार्च, 1952 के मध्य में आंबेडकर ने स्टेट कौंसिल में मुंबई को आवंटित 17 सीटों में से एक पर परचा दाखिल किया. महीने के अंत में यहां से वह निर्वाचित हुए. मई, 1952 में लोकसभा के लिए हुए उपचुनाव में वह फिर खड़े हुए, पर पुन: हार गये. 1952 के आम चुनाव में बिखर जाने से उनका राजनीति से काफी हद तक मोहभंग हो गया.

समर्थन के लिए जनता के नाम एक खुला पत्र

25 नवंबर, 1952 को मुंबई के शिवाजी पार्क में करीब दो लाख लोगों की विशाल सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने जोर दिया कि भारत के नवजात गणतंत्र के निर्माण के लिए विपक्षी दल की बेहद जरूरत है, जो शासक दल पर अंकुश रख सके. काफी सोच-विचार के बाद उन्होंने अपनी बहुप्रतीक्षित योजना का खुलासा किया कि एक नयी पार्टी ‘रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया’ का गठन किया जाये, ताकि देश की राजनीति में एक नये रक्त का संचार हो सके.

रि पाइं का उद्देश्य सभी अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, पिछड़ों, बौद्धों व मुसलमानों को पार्टी के झंडे तले संगठित करना था, ताकि शासक दल को एक प्रामाणिक चुनौती दी जा सके. उन्हें उम्मीद थी कि पार्टी के गठन की घोषणा होते ही इसके समर्पित, मजबूत इरादोंवाले और निष्ठावान कार्यकर्ताओं के कारण इसकी छवि बेहतर बनेगी. समय बीतने के साथ-साथ अन्य अल्पसंख्यक दलों के नेता इसमें शामिल होंगे और आंदोलन मजबूत होगा. वह जनता के समर्थन के बारे में पूरी तरह से आश्वस्त थे.

नयी पार्टी के निर्माण का मूल प्रारूप एक अपील के रूप था, जिसका शीर्षक था-‘भारत की जनता को ‘रि पा इं’ को समर्थन देने के लिए खुला पत्र : विचारार्थ एक प्रस्ताव’. इसमें कुछ प्रमुख बातों का सारांश इस प्रकार था-

एक आंदोलन किस तरह से राजनीतिक दल बन जाता है

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 1886 में हुई थी. 1947 तक इसने आजादी के लिए एक आंदोलन के रूप में कार्य किया. शुरुआत में इसके कोई निश्चित लक्ष्य नहीं थे. इसकी शुरुआत केवल अच्छी सरकार की मांग को लेकर हुई. कुछ समय बाद इसने अपना लक्ष्य बदल दिया. इसने इसे स्वशासन की संज्ञा दी. 1. स्वतंत्र अधिराज्य की अवस्था, और 2. पूर्ण स्वतंत्रता. स्वतंत्र अधिराज्य का आशय था कि राजा के प्रति निष्ठावान होना. पूर्ण स्वतंत्रता का आशय था कि राजा के प्रति कोई निष्ठा नहीं.

कुछ समय तक भारतीय कांग्रेस स्वतंत्र अधिराज्य के लिए सहमत थी, पर केवल थोड़े समय के लिए ही. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1930 में नाटकीय ढंग से पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पारित किया, जिसे उसने 1947 में पा लिया. इस समय तक कांग्रेस एक फौज की तरह थी, जिसका उद्देश्य एक विदेशी शासन के विरुद्ध राजनीतिक युद्ध था, न कि संसदीय लोकतंत्र चलाना. मिस्टर गांधी ने बेहद बुद्धिमत्ता से सलाह दी कि कांग्रेस भंग कर दी जाये और एक नयी पार्टी का गठन पार्टी लाइन के आधार पर हो, जो शासन चलाये, पर पार्टी के नेता शासन की बागडोर हाथों में तुरंत ले लेने के लिए तैयार बैठे थे. उन्होंने गांधी की सलाह मानने से इनकार कर दिया. अमूमन शांति स्थापित हो जाने के बाद लड़नेवाली सेना भंग कर दी जाती है. इसकी साधारण सी वजह है कि युद्ध के समय भर्ती का मानक नीचा कर दिया जाता है और हर व्यक्ति अच्छा, बुरा, तटस्थ सबको शामिल कर लिया जाता है. भारत के मामले में फौज को भंग नहीं किया गया, उलटे उसने सत्ता पर कब्जा कर लिया.

हमें कई वर्षो के कांग्रेसी शासन का अनुभव हो चुका है. कोई भी कह सकता है कि इसकी प्रतिष्ठा कोई बहुत अच्छी नहीं है. समय आ गया है कि मि गांधी की राय को गंभीरता से लिया जाये. हम एक नयी पार्टी के गठन की ओर अग्रसर हैं, जो अपनी शुरुआत एक विपक्षी पार्टी के रूप में करेगी.

संसदीय लोकतंत्र के सफलतापूर्वक कार्य करने की शर्ते

संसदीय शासन व्यवस्था बिना किसी बाधा के सुचारु रूप से कार्य करती रहे, इसके लिए कुछ शर्तो का होना अनिवार्य है. उदाहरण के लिए 1- लोकतंत्र अपना रूप बदलता रहे, हमेशा एक जैसा न रहे 2- एक राष्ट्र में हमेशा एक ही लोकतंत्र न रहे, और 3- लोकतंत्र केवल अपना स्वरूप ही न बदले, यह अपना उद्देश्य भी बदलता रहे और आधुनिक लोकतंत्र का उद्देश्य यह नहीं रहा कि वह मनमाने राजा पर अंकुश लगाये, बल्कि उसका उद्देश्य जनकल्याण है. यह लोकतंत्र के उद्देश्यों में स्पष्ट परिवर्तन है.

संसदीय सरकार को विपक्षी दल की आवश्यकता क्यों होती है

शिक्षित जनता की राय के बगैर संसदीय लोकतंत्र चल ही नहीं सकता. सरकार और संसद दोनों के ठीक से कार्य करने के लिए जनता की राय जाननी जरूरी है. इसको स्पष्ट करने के लिए यह बताना जरूरी है कि शिक्षा व प्रचार में क्या फर्क है. प्रचार की सरकार शिक्षा के प्रतिफल की सरकार से भिन्न चीज है. प्रचार का अर्थ है, मुद्दों को अच्छा प्रस्तुत करना. ‘शिक्षा के प्रतिफल की सरकार’ का अर्थ है, मुद्दों के अच्छे व बुरे, दोनों पक्षों को सुनकर, समझकर बनायी गयी सरकार.

यह जरू री है कि जनता के समक्ष किसी मसले के अच्छे व बुरे दोनों पक्ष रखे जायें, जिस पर संसद को कोई निर्णय लेना है. इस तरह जाहिर है कि दो दल होंगे. एक अच्छाइयां पेश करेगा व दूसरा बुराइयां. एक ही दल होने पर तानाशाही के अलावा कुछ नहीं होगा. तानाशाही न आने पाये, इसके लिए दो दलों का होना जरूरी है. यह बहुत गंभीर मसला है. लोगों का अच्छे कानून की तुलना में अच्छे प्रशासन से ज्यादा ताल्लुक होता है. कानून अच्छा हो सकता है, पर इसका अनुपालन बुरा हो सकता है. कानून का अनुपालन अच्छा होगा या बुरा, यह इस बात पर निर्भर है कि अनुपालन के लिए नियुक्त अधिकारी को कितनी आजादी है. जब केवल एक पार्टी होगी, अधिकारी अपने राजनीतिक विभाग के मंत्री की दया पर निर्भर रहेगा. मंत्री का अस्तित्व, मतदाताओं के खुश रहने पर निर्भर है और यह अकसर होता है कि मंत्री अपने मतदाताओं को फायदा पहुंचाने के लिए अधिकारी को अनुचित कार्य करने के लिए बाध्य कर सकता है. यदि विपक्षी दल होगा, तो मंत्री का यह कार्यकलाप उजागर हो जायेगा और उसकी शरारतें रुक जायेंगी.

अच्छे प्रशासन के लिए संभवत: अगली चीज यह है कि लोग बोलने की आजादी व रोके जाने से मुक्ति चाहते हैं. जब विपक्षी दल होगा, तो बोलने और कार्य करने की आजादी होगी. यह आजादी खतरे में पड़ जायेगी, यदि विपक्ष नहीं होगा, क्योंकि यह पूछनेवाला कोई नहीं होगा कि किसी व्यक्ति विशेष को बोलने से और अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने से क्यों रोका गया? विपक्षी दल की आवश्यकता के ये आधार हैं. सभी देशों में जहां संसदीय शासन है, विपक्ष को राजनीतिक संस्था का दर्जा प्राप्त है.

पार्टी के गठन का उद्देश्य और प्रयोजन

रिपब्लिकन पार्टी के उद्देश्यों और प्रयोजनों को स्पष्ट करते हुए कहा गया कि पार्टी का रवैया निम्न सिद्धांतों पर आधारित होगा- 1. यह समस्त भारतीयों को कानून के समक्ष न केवल समान मानेगी, बल्कि उसे समानता के लिए अधिकृत भी मानेगी. तदानुसार जहां समानता नहीं है, वहां समानता के लिए उत्साहित करेगी और जहां नहीं है, वहां स्थापित करेगी. 2. यह प्रत्येक भारतीय को स्वयं में अंतिम लक्ष्य मानेगी, जिसे अपने ढंग से अपना विकास करने का हक होगा और राज्य उस लक्ष्य का मात्र साधन होगा. 3. यह प्रत्येक भारतीय की धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता को बरकरार रखेगी. दूसरे भारतीयों या राज्य के हितों के रक्षा के लिए यदि जरूरत पड़ी, तभी इस पर अंकुश लगायेगी.

रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया को स्वरूप प्रदान करने के लिए डॉ आंबेडकर अपनी खराब सेहत के बावजूद बहुत व्यग्रता से तत्कालीन नेताओं से निरंतर संपर्क व पत्र व्यवहार बनाये हुए थे. इनमें से सोशलिस्ट पार्टी के डॉ राममनोहर लोहिया, अशोक मेहता व जय प्रकाश नारायण, महाराष्ट्र कांग्रेस के विपक्षी दल के मूर्धन्य व संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन के अग्रणी नेता आचार्य पीके आत्रे व एसएम जोशी एवं मुसलिम नेता प्रमुख थे. ईसाइयों, सिखों तथा अन्य अल्पसंख्यक समुदाय के नेताओं से संपर्क करने के भी प्रयास जारी थे.

(ज्यादातर तथ्य 17 वर्षो तक डॉ आंबेडकर के निजी सचिव रहे डॉ नानकचंद रत्तू की पुस्तक ‘लास्ट फ्यू इयर्स ऑफ डॉ आंबेडकर’ से साभार)

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