किसी भी लोकतंत्र की मजबूती के लिए मतदान प्रक्रिया का साफ-सुथरा होना बहुत ही जरूरी है. लेकिन यह प्रक्रिया साफ-सुथरी तभी हो सकती है, जब जनता न सिर्फ अपने प्रतिनिधियों के चयन में भूमिका अदा करे, बल्कि सदस्य निर्वाचित होने के पहले और बाद में उनके द्वारा किये गये काम पर सवाल खड़ा करे. देश के मतदाताओं को अपने जनप्रतिनिधियों के कामकाज से रू -ब-रू कराने में पीआरएस लेजिसलेटिव नामक संस्था की अहम भूमिका है. प्रस्तुत है आगामी लोकसभा चुनाव से जुड़े अहम बिंदुओं पर इस संस्था के प्रमुख एमआर माधवन से संतोष कुमार सिंह की बातचीत :
चुनावी मौसम में सभी पार्टियां जनता को लुभाने के लिए तमाम तरह के दावे कर रही हैं, कोई दल सांप्रदायिकता का खतरा के सामने रख रहा है, तो कोई विकास के दावे कर रहा है? ऐसे में आम मतदाताओं को अपने जनप्रतिनिधि चुनने के पहले क्या ध्यान रखना चाहिए?
देखिए, सबसे पहले मतदाताओं को यह समझाना और समझाना जरूरी है कि किस जनप्रतिनिधि का कार्यक्षेत्र क्या है? पंचायत प्रतिनिधि की क्या भूमिका है, विधानसभा के प्रतिनिधियों से किस बाबत सवाल किया जाना चाहिए और लोकसभा के सांसदों के क्या दायित्व हैं. अगर हम मतदाताओं को इस मायने में जागरूक कर सके कि किस प्रतिनिधि की क्या भूमिका है और उनसे उनकी भूमिका को लेकर किस तरह से सवाल खड़ा किया जा सकता है. जवाब मांगा जा सकता है तो जनप्रतिनिधियों को जनता के प्रति जवाबदेही को साबित करने में मदद मिलेगी. आमतौर पर होता यह है कि सरल हृदय मतदाता इनकी अलग-अलग भूमिकाओं को नहीं समझ पाता और जो काम पंचायत प्रतिनिधि से होना चाहिए उसकी अपेक्षा में सांसद के दरवाजे पर जाते हैं और जो काम सांसद का है उसके लिए विधायक जी को दोषी ठहराया जाता है. ऐसे में होता यह है कि मतदाता के दबाव में जनप्रतिनिधि अपना काम छोड़कर दूसरे के काम में दखलंदाजी करता है, उसके काम को सवालों के दायरे में खड़ा करता है, क्योंकि उसे वोटर के वोट से ही चुना जाना है, इसलिए वोटर जो कहता है, उसे प्रतिनिधि करता है. यदि तीनों स्तर पर प्रतिनिधि अपना काम करें और जनता उस काम की बाबत सवाल पूछे तो इससे देश का बेहतर विकास होगा.
तो उनके दावे और हकीकत की पड़ताल कैसे हो? इसको परखने के क्या उपाय हैं?
सबसे पहले तो मतदाता को इस बात पर ध्यान रखना चाहिए कि इन्होंने अपने चुनाव घोषणा पत्र में क्या वादा किया है? पिछले चुनाव में इन्होनें क्या वादा किया था. उन वादों में से कितने पूरे किये गये. इसकी जानकारी जुटा कर हम चुनाव के दिनों में इनके द्वारा किये गये वादे को लेकर सवाल खड़ा सकते हैं या फिर यदि जनता को ऐसा लगता है कि इन्होंने अपना वादा पूरा नहीं किया तो जनता मत के जरिए अपनी राय रख सकती है. वैसे जनता ने खासकर युवा वर्ग ने अब नेताओं द्वारा किये गये वादे पर सवाल पूछना शुरू कर दिया है. केवल शहरों में ही नहीं बल्कि गांवों में भी. आपने एक प्रचार देखा होगा जिसमें नेताजी को पिछले वादे की याद एक युवा दिलाता है और कहता है : नो उल्लू बनाविंग. इससे साबित हो रहा है कि मतदाता अब जागरूक हो रहे हैं. तकनीक के प्रयोग से इस रास्ते को काफी आसान बनाया जा सकता है.
प्रत्येक चुनाव के पहले लगभग सभी राजनीतिक दल मैनिफेस्टो के जरिए जनता तक अपनी बात पहुंचाते हैं? जनता के सामने आगामी पांच साल में किये जाने वाले काम का लेखा-जोखा रखते हैं?
बात सही है. होता यह है कि नेता या राजनीतिक दल वादा करते हैं, लेकिन हम पलट कर नहीं पूछते, कि करोगे कैसे? मान लीजिए कि कोई नेता कह रहा है कि हम चौबीस घंटे बिजली देंगे, लोगों को स्वच्छ पेयजल मुहैया करायेंगे. रोजगार के साधन देंगे. इन प्रश्नों के आलोक में यह सवाल निश्चित रूप से पूछा जाना चाहिए कि पहले क्या किया है? आगे करोगे तो इसके लिए रोडमैप क्या है? बजट कहां से आयेगा? निवेश कहां से आयेगा? नीतियां कैसी होंगी? इन सब सवालों पर जब तक हम विस्तार से नहीं पूछेंगे तब तक बात नहीं बनने वाली. हमें समय-समय पर इनके रिपोर्ट कार्ड तैयार करने चाहिए, इसको जनता के बीच रखना चाहिए तब जाकर सही स्थिति स्पष्ट होगी. लेकिन आमतौर पर जनता चुनाव के दिनों में नेताओं की जाति को प्राथमिकता देने लगता है. और, जाति और धर्म के सवाल में विकास और जन प्रतिनिधियों का काम पीछे छूट जाता है.
आपकी संस्था पीआरएस लेजिस्लेटिव भी समय-समय पर नेताओं के कामकाज का लेखा-जोखा प्रकाशित करती है?
जी हां, हम कुछ खास खास नहीं केवल संसद सत्र के दौरान नेताओं द्वारा की गयी भागीदारी, उनके द्वारा पूछे गये प्रश्न को जनता के सामने रखते हैं. ताकि वे संसद और संसदीय लोकतंत्र में अपने प्रतिनिधि की भागीदारी को परख सकें. हमारे पास ज्यादा संसाधन नहीं हैं, लेकिन मीडिया के भागीदारी के जरिए हम उसे जनता तक पहुंचाते हैं. वैसे तो हमारी संस्था प्रत्येक सत्र के बाद सांसदों के संसदीय कामकाज का लेखा-जोखा रखती है, लेकिन साथ ही हमने भी मोबाइल की बढ़ती महत्ता को देखते हुए एक नयी व्यवस्था शुरू की है.
इसके तहत हमने एक नंबर जारी किया है. नंबर है : 9223051616. इस नंबर पर मैसेज कर आप अपने सांसदों के विषय में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं. आपको मैसेज बॉक्स में एमपी..(स्पेस), पिनकोड टाइप कर मैसेज भेजना होता है. इसके जरिए पिछले पांच वर्ष में नेताओं ने कितने प्रश्न पूछे, उनकी उपस्थिति कितनी रही, किस तरह के सवाल किये आदि जान सकते हैं. इसके साथ ही हम अपनी वेबसाइट पर भी इन जानकारियों को डालते हैं. हम जनता को बताते हैं कि उनके प्रतिनिधि की हिस्सेदारी राष्ट्रीय डिबेट में कितनी रही. प्राइवेट मेंबर बिल लाने में उनकी भूमिका, औसतन कितने प्रश्न पूछे गये, कितनी उपस्थिति रही, प्रश्नकाल में अपने संसदीय क्षेत्र के विषय में या लोक महत्व के किन विषयों पर उन्होंने अपनी राय रखी. इस तरह से हम जनता को जागरूक बनाने की दिशा में प्रयास कर रहे हैं.
आपके रिसर्च में कौन सी बातें प्रमुख रूप से सामने आयी हैं. खासकर बिहार-झारखंड जैसे राज्यों में?
वैसे तो हम सभी इलाके के विषय में आंकड़े रखते हैं. अगर बिहार के संदर्भ में बात करें तो विशेष रूप से उन वर्तमान सांसदों के विषय में जिन्होंने फिर से नामांकन दाखिल किया है, तो आंकड़े काफी रोचक हैं. बिहार में 40 सांसद हैं, जिनमें पांच महिलाएं हैं. शिक्षा की दृष्टि से इनमें से 13 लोगों के पास स्नातकोत्तर की डिग्री है, 15 सांसद स्नातक हैं और 12 सांसदों ने 10वीं या इससे कम शिक्षा प्राप्त की है. 15वीं लोकसभा में हुई बहस में सबसे ज्यादा शामिल होने का रिकार्ड बिहार के सांसद रघुवंश प्रसाद सिंह के नाम है, जिन्होंने 179 बहस में भागीदारी की है. दूसरे स्थान पर जदयू के सांसद शरद यादव हैं, जो 159 डिबेट में शामिल हुए. यही नहीं वैशाली के सांसद रघुवंश प्रसाद सिंह और नालंदा के सांसद कौशलेंद्र कुमार की संसद में उपस्थिति 97 फीसदी है. अगर बिहार के सांसदों द्वारा पूछे गये प्रश्न के हिसाब से उनके प्रदर्शन का आकलन करें, तो भागलपुर के सांसद शाहनवाज हुसैन ने 711 प्रश्न पूछे, गोपालगंज के सांसद पूर्णमासी राम ने 656 और शिवहर की सांसद रमा देवी ने 627 प्रश्न पूछे. हाजीपुर से जदयू के सांसद रामसुंदर दास की संसद में उपस्थिति 89 फीसदी रही, जबकि उन्होंने एक भी डिबेट में भाग नहीं लिया और न ही उनके द्वारा कोई भी प्राइवेट मेंबर बिल लाया गया. हालांकि रामसुंदर दास ने 15 वीं लोकसभा में 407 प्रश्न पूछ हैं. इस तरह के आंकड़ों के जरिए संसद में अपने नेताओं के कामकाज पर नजर रखी जा सकती है.
पिछले कुछेक चुनावों से ऐसा लग रहा है कि मतदाता चुनाव के प्रति जागरूक हों रहे हैं और मतदान प्रतिशत बढ़ रहा है? क्या कहेंगे?
देखिए, मतदान प्रतिशत बढ़ रहा है. इसमें सौ फीसदी सच्चई है. चुनाव आयोग द्वारा किये गये उपाय या मीडिया माध्यमों के बढ़ते प्रयोग से इसमें हमें सफलता मिली है. लेकिन यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि मतदाताओं में हक के प्रति जागरूकता बढ़ी है. हां यह बात जरूर है कि आपराधिक छवि वाले नेताओं के प्रति मतदाता अब पहले की तुलना में ज्यादा जागरूकता दिखा रहे हैं. लेकिन राजनीतिक का अपराधिकरण नहीं रुका है. अब भी संसद में दागी व अपराधिक छवि के लोग चुने जा रहे हैं. इतना ही नहीं यदि कोई भी प्रत्याशी दागी है, तो वह अपनी बदौलत अपने परिवार के सदस्यों के लिए टिकट मांग लेता है या परिवार के सदस्यों को जिता ले जाता है. इन सब कारणों से हमारे लोकतंत्र को नुकसान पहुंच रहा है. और इन सब को केवल कानून बनाकर नहीं बल्कि साथ ही जनता को इन मसलों पर जागरूक करके ही रोका जा सकता है.
चुनाव में काला धन का बढता प्रयोग भी एक बड़ा मुद्दा है, इसको कैसे रोका जाये?
इसको लेकर अलग-अलग उदाहरणों के जरिए लोग कई तरह के समाधान सुझाते हैं. कोई फंडिंग में लिमिट लगाने की बात करता है, तो किसी का तर्क होता है कि इसे अनलिमिट कर दिया जाये. कुछ लोग राज्य द्वारा चुनाव फंड दिये जाने की बात करते हैं तो कुछ विरोध. इसको लेकर एक आम राय नहीं बन पा रही है. इसमें सबसे जरूरी यही है कि चाहे आप जो भी रास्ता अपनायें, हमें चुनाव में काले धन के हस्तक्षेप को रोकना होगा.
ग्रामीण आबादी शहरों की तुलना में मतदान ज्यादा करती है, लेकिन देखा जाता है कि अपने प्रतिनिधि चुनने में वह विकास को नहीं बल्कि पारिवारिक रिश्ते और सांठगांठ को ज्यादा तरजीह देती है?
इसीलिए मैंने शुरू में ही कहा था कि मतदाताओं तक उम्मीदवार व जनप्रतिनिधि के विषय में ज्यादा से ज्यादा जानकारी पहुंचाना जरूरी है. सांसदों व विधायकों के विषय में तो कुछेक जानकारियां आम लोगों तक पहुंच जाती हैं, लेकिन रिसर्च या डाटा बेस के अभाव में पंचायत चुनाव में जनप्रतिनिधियों के कामकाज, ग्रामसभा द्वारा लिये गये निर्णय, पंचायत द्वारा किये गये कामकाज के विषय में जानकारी का अभाव होता है. ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं है कि लोग जानना नहीं चाहते. बल्कि मुख्य कारण यह है संसाधन, संस्थागत ढांचे व शोध का अभाव है. अत: इसकी व्यवस्था करनी होगी.
एमआर माधवन
प्रमुख, पीआरएस लेजिसलेटिव