लोकसभा चुनाव में उतरीं राजनीतिक पार्टियां आमलोगों की जिंदगी से जुड़े मुद्दों के बारे में यह खुलासा नहीं कर रही हैं कि उन्हें वे कैसे और कितने दिनों में पूरा करेंगी? अगर युवा हाथों को रोजगार चाहिए तो उसे कहां से और कैसे पूरा किया जायेगा. लोगों तक पीने का शुद्ध पानी कैसे पहुंचेगा और बीमारों को सस्ता इलाज कैसे मिलेगा? महिलाओं की सुरक्षा का क्या होगा? इन मसलों के समाधान के रास्ते बताने के बदले कई सियासी पार्टियां समीकरणों और जाति-धर्म का सहारा ले रही हैं ताकि जीत हासिल की जा सके. अब लोगों को आश्वासन नहीं, ठोस भरोसा और उनकी तकलीफों को दूर करने का रोड मैप चाहिए. लोकतंत्र के इस महापर्व का आयोजन फिर फरेब साबित न हो, इसके लिए जरूरी है कि वोट देने से पहले हम छोटे-छोटे हितों के बदले बड़े फलक पर देश और समाज की खातिर पार्टियों को अपने घोषणा पत्र की कसौटी पर कसें.
स्वास्थ्य सेवाओं का जिक्र नहीं कर रहा कोई दल
अवाम की सेहत किसी भी राजनीतिक पार्टी की प्राथमिकता में नहीं है. नेता अपने भाषणों में बड़ी-बड़ी बातें तो करते हैं पर स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारने का जिक्र नहीं करते हैं. सरकार लोगों की सेहत सुधारने के लिए, उन तक स्वास्थ्य सेवाओं को पहुंचाने के लिए कई तरह के कार्यक्रम बनाती है. राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन और राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन प्रमुख हैं. फिर भी आजादी के 68 साल बाद भी भारत में शिशु मृत्यु दर 42 है. यानी हर 1000 बच्चों के जन्म पर 42 की मौत हो जाती है. यह आंकड़ा नेपाल और बांग्लादेश से भी ज्यादा है. दोनों देशों में यह 33 है. वहीं मातृ मृत्यु दर 178 है. बच्चे को जन्म देने वाली एक लाख माताओं में से 178 की मौत हो जाती है. यह आंकड़ा भी नेपाल से ज्यादा है. नेपाल में 170 मौतें होती हैं. पूरी दुनिया में पांच साल से कम उम्र के 88 लाख बच्चों की डायरिया और हैजे जैसी बीमारियों से होती है मौत. इनमें 20 लाख से अधिक मौतें भारत में होती हैं. सैंपल रजिस्ट्रेशन सिस्टम के अनुसार शहरी क्षेत्रों में शिशु मृत्यु दर 31 और ग्रामीण क्षेत्रों में 54 फीसदी है.
यह है हकीकत
भारत विश्व का दूसरा सबसे बड़ा जनसंख्या वाला देश है. फिर भी यहां जीडीपी का सिर्फ एक फीसदी ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च किया जाता है. यह विश्व में सबसे कम खर्च करने वाले दो-तीन देशों में से एक है. इसका परिणाम यह होता है कि 70 फीसदी से ज्यादा स्वास्थ्य सेवाओं पर लोगों को अपनी जेब से खर्च करना पड़ता है. वहीं ज्यादातर विकसित देशों में स्वास्थ्य पर निजी व्यय 25 फीसदी से भी कम है. इसका नतीजा यह हआ कि देश में लोगों के कर्ज में डूबने की सबसे बड़ी वजह बन गया है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार एक हजार लोगों पर कम से कम चार डॉक्टर होने चाहिए. वहीं आइएमएस हेल्थ फीजिशियन एंड केमिस्ट सेंसस के अनुसार भारत में हर 1000 लोगों पर 0.65 डॉक्टर हैं. यानी एक डॉक्टर से भी कम. एक अनुमान के अनुसार 2031 तक नौ लाख से ज्यादा डॉक्टरों के पद रहेंगे खाली.
पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन के अनुसार प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में चिकित्सकों के लगभग 12 फीसदी पद खाली हैं. इसी तरह सीएचसी में विशेषज्ञ चिकित्सकों के लगभग 64 फीसदी पद खाली हैं. पूरे देश में इस समय 19000 से ज्यादा विशेषज्ञ डॉक्टरों की जरूरत है, लेकिन 6000 से भी कम उपलब्ध हैं.
महंगी दवाएं सबसे ज्यादा लोगों की जेब करती हैं ढीली. स्वास्थ्य सेवा पर जितना पैसा खर्च होता है उसका 72 फीसदी से ज्यादा खर्च दवा की खरीद में होता है. एक अनुमान के अनुसार किसी भी बीमारी पर होना वाले खर्च का 50-80 फीसदी हिस्सा दवाओं पर होता है.
पढ़ाने के बदले स्कूलों में खिलाने पर क्यों है जोर
शिक्षा से समाज का निर्माण होता है. देश आगे बढ़ता है. फिर भी 16वीं लोकसभा चुनाव में इस पर चर्चा तक नहीं हो रही है. स्कूल चलें हम का विज्ञापन दूरदर्शन और निजी टीवी चैनलों पर खूब आता है. लेकिन, क्या सिर्फ मिड डे मील के लिए, पोशाक राशि लेने के लिए बच्चों को स्कूल जाना चाहिए. सरकारी स्कूलों की स्थिति को देखकर तो यही लगता है. सरकारी स्कूलों में पांचवी क्लास के बच्चे को तीसरी कक्षा का पाठ समझ में नहीं आता. इससे पढ़ाई का स्तर समझा जा सकता है और उन्हें पढ़ानेवालों की योग्यता का अंदाजा लगाया जा सकता है.
यह है हकीकत
पूरे विश्व में यह सर्वमान्य है कि केंद्र और राज्य सरकारें जीडीपी का कम से कम छह फीसदी शिक्षा पर खर्च करती हैं. भारत में दोनों सरकारें मिलकर करीब चार फीसदी ही शिक्षा पर खर्च करती हैं.
स्कूल जाने के प्रचार पर सरकार करोड़ों खर्च करती है, स्कूल में दाखिले को बढ़ाने के लिए मिड डे मील जैसे कार्यक्रम लागू करती है फिर भी 50 फीसदी बच्चे दसवीं तक जाते-जाते स्कूल छोड़ देते हैं. इनमें सबसे ज्यादा संख्या लड़कियों की है.
मैट्रिक पास करने वाले कुल छात्रों में मात्र 16-17 फीसदी ही उच्च शिक्षा प्राप्त कर पाते हैं. चीन में यह आंकड़ा 24 फीसदी का है वहीं कुछ देशों में 62 फीसदी. स्किल्ड गैप भी देश के लिए एक बड़ी चुनौती है. भारत में सिर्फ दो फीसदी युवाओं के पास तकनीकी शिक्षा है. जबकि आधी से ज्यादा आबादी युवाओं की है.
असर की रिपोर्ट के अनुसार सरकारी विद्यालयों में कक्षा तीन के 32 फीसदी बच्चे ही कक्षा एक के पाठ को पढ़ने में सक्षम हैं. सरकारी विद्यालयों में तीन अंक को एक अंक से भाग देने के सवाल को कक्षा पांच के 20.8 फीसदी छात्र ही हल करने में सक्षम हैं. इसी रिपोर्ट के अनुसार लड़कियों के लिए उपयोग करने लायक शौचालय 53.3 फीसदी ही थे. इसे लड़कियों की कम उपस्थिति और दसवीं तक जाते-जाते पढ़ाई छोड़ देने की एक बड़ी वजह के रूप में देखा जा रहा है.