17.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

केजरीवाल और पांच सवाल

आम चुनाव की सरगर्मियां जैसे-जैसे तेज हो रही है, आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल के विचारों, व्यक्तित्व और रवैये पर बहस भी मुखर हो रही है. उनके समर्थक जहां उत्साह में हैं, वहीं विरोधी तीव्र और तीक्ष्ण सवाल उठा रहे हैं. केजरीवाल पर उठते कुछ बड़े सवालों पर जाने-माने बुद्धिजीवियों की राय के […]

आम चुनाव की सरगर्मियां जैसे-जैसे तेज हो रही है, आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल के विचारों, व्यक्तित्व और रवैये पर बहस भी मुखर हो रही है. उनके समर्थक जहां उत्साह में हैं, वहीं विरोधी तीव्र और तीक्ष्ण सवाल उठा रहे हैं. केजरीवाल पर उठते कुछ बड़े सवालों पर जाने-माने बुद्धिजीवियों की राय के साथ इस बहस के सिरों को समझने की एक कोशिश.

जानी-मानी अराजकतावादी कार्यकर्ता एम्मा गोल्डमैन ने कभी कहा था कि अगर मतदान से कुछ बदल सकता, तो उसे गैरकानूनी घोषित कर दिया जाता. लेकिन लोकतांत्रिक देशों में जनता की उम्मीदें सरकारों और प्रतिनिधियों से आज भी वाबस्ता हैं. ये उम्मीदें बारहा टूटी भी हैं और जुड़ी भी हैं. कई बार लोगों ने नयी पार्टियों, दलों और विचारधाराओं को मौका भी दिया है. पर दिल्ली में आम आदमी पार्टी के उदय और उससे जुड़ी घटनाओं ने भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में कुछ हद तक ऊहापोह की स्थिति पैदा कर दी है. ‘आप’ और उसके मुखिया अरविंद केजरीवाल के बारे में जितनी और जितने तरह की बतकही हुई है और हो रही है, उतनी शायद ही किसी राजनेता या दल के बारे में पहले हुई होगी. किसी की नजर में वे गांधीवादी हैं, तो कोई उन्हें माओवादी कह रहा है. कुछ के लिए वे देशभक्त योद्धा हैं, तो कुछ उन्हें देशद्रोही और विदेशी एजेंट मानते हैं. कभी उन्हें समाजवादी कहा जाता है, तो कभी पूंजीपतियों का पक्षधर. समर्थकों की नजर में वे व्यवस्था-परिवर्तन के अगुआ हैं, तो विरोधियों का आरोप है कि उनकी हरकतें देश को अराजक अव्यवस्था की ओर ले जायेंगी. इस संदर्भ में राजनीतिक बुद्धिजीवी तारीक अली मानते हैं कि दुनिया के कई हिस्सों में ‘आप’ जैसी नयी पार्टियों को राजनेताओं और मुख्यधारा की राजनीति के विरुद्ध फैले अविश्वास का फायदा मिल रहा है.

जो दौर सिनेमा से सियासत तक डिजायनर कपड़ों से अंटा पड़ा हो, उसमें केजरीवाल के मफलर और सैंडल भी चर्चा के विषय बने हैं. चमकदार-भड़कदार मंचों के बरक्स कड़ाके की ठंड में रातभर सड़क पर सोये ‘आप’ के नेता की तसवीरें अखबारों के पहले पन्ने पर छपीं और टेलीविजन के स्क्रीन पर घंटों टंगी रहीं. इतना ही नहीं, उनका बखान करते या फिर मखौल उड़ाते टेक्स्ट और वीडियो सोशल मीडिया पर भरे-पड़े हैं. फिलहाल जाने-माने समाजशास्त्री शिव विश्वनाथन को भरोसा है कि आप वैचारिक वादों से परे परिवेश में सामाजिक संबंधों को पुनर्जीवित करने के उपायों को टटोलने और गढ़ने का प्रयास है, परंतु पत्रकार माहेश्वर पेरी सलाह देते हैं कि लोगों का विश्वास हासिल कर चुके केजरीवाल और उनकी पार्टी को आगे जाने के लिए अब सबको साथ लेकर चलना होगा और सहिष्णुता, कुशलता, साख जैसे गुणों को अपनाना होगा.

जाहिर है, इस घनघोर बहस में अभी किसी निर्णय पर पहुंचना संभव नहीं है और कोई भी निष्कर्ष केजरीवाल-समर्थक या केजरीवाल-विरोधी के बड़े खांचे का ही हिस्सा होगा. अभी हम नीतियों, रणनीतियों और व्यक्तित्व के विभिन्न आयामों में वर्त्तमान राजनीतिक व्याकरण को फिर से लिखे जाने की कोशिश से मुखातिब हैं या फिर दिल्ली होते हुए नयी दिल्ली के सिंहासन तक पहुंचने की चालाकी के गवाह बन रहे हैं, यह तो आनेवाला वक्त ही बतायेगा. लेकिन एक अजीबोगरीब ध्रुवीकरण के माहौल में यह बात साफ है कि केजरीवाल अपनी पार्टी के जरिये लोगों को आकर्षित करने में सफल रहे हैं.

इस रविवार की कवर स्टोरी में हम विभिन्न धाराओं के कुछ जाने-माने बुद्धिजीवियों से पूछे गये पांच बड़े सवालों के आईने में केजरीवाल के चरित्र की विभिन्न पेचीदगियों की पड़ताल की एक कोशिश कर रहे हैं.

1इस समझौते का वामपंथी पार्टियां विरोध करती रही थीं. इसके अलावा उन्होंने श्री मुकेश अंबानी की गैस कंपनी की मुनाफाखोरी के खिलाफ एफआइआर दर्ज कराया. इस मामले में वाम दलों की ओर से भी याचिका दाखिल की गयी है. इस दृष्टि से किसी भी वामपंथी को श्री केजरीवाल को अपनी कार्यक्रम सूची से बहुत दूर देखने का क्या कारण हो सकता है? और फिर पूंजीवाद के कुछ आयामों को तो बुद्धदेव भट्टाचार्य से लेकर मुलायम सिंह और नीतीश कुमार तक कबूल करते हैं.

2 श्री केजरीवाल ने दिल्ली का मुख्यमंत्री पद स्वीकारने और उसे छोड़ने, दोनों में ही पारंपरिक तरीकों की अवहेलना की है. कुरसी पर बैठने से पहले उन्होंने सभाएं कर जनमत जानने की कोशिश की और कुरसी छोड़ने से पहले उन्होंने बार-बार कहा कि हम कुरसी पर जनलोकपाल बिल पास कराने के लिए आये हैं. जनलोकपाल बिल पास कराना असंभव कर दिया कांग्रेस और भाजपा ने, तो फिर वे कुरसी पर किस काम के लिए बैठते. जब केंद्र सरकार के गृह मंत्री दिल्ली के मुख्यमंत्री को पागल और विभिन्न बड़े नेता दिल्ली की सरकार को गैर जिम्मेवार और अराजक बताने लगे, तब किसी और से पूछने की जरूरत ही नहीं बची.

3 मुङो लगता है कि अन्ना आंदोलन के संगठनकर्ता व नायक केजरीवाल का अनुभव तब राजसत्ता के संदर्भ में एक प्रशासक के रूप में था. अब 49 दिनों तक सीएम की कुरसी पर बैठने के बाद राजनीतिक और प्रशासनिक नेतृत्व, मीडिया आदि की भूमिकाओं के बारे में उनकी समझदारी गहरी हुई है. उनका अपना राजनीतिक दृष्टिकोण भी इन 49 दिनों के दौरान लिये गये निर्णयों और उनसे पैदा प्रतिक्रियाओं के साथ और व्यापक हुआ है. अगर केजरीवाल जी को भी कुरसी का खेल खेलना है तब तो उन्हें अन्य पार्टियों के साथ गंठबंधन करना सीखना पड़ेगा. लेकिन आम आदमी पार्टी कुरसी के लिए गंठबंधन की राजनीति से अलग एक वैकल्पिक राजनीति की कोशिश कर रही है.

4 राजनीति में एकता के तीन आधार प्राय: पाये जाते हैं, सत्ता के लिए, आंदोलन के लिए और संगठन के लिए एकता. आप आंदोलन के लिए एकता के आधार पर पैदा और विकसित हुई है. विभिन्नता के बावजूद सभी लोगों की एकता उन मुख्य कार्यक्रमों को लेकर है, जो स्वराज कार्यक्रम से जुड़े हैं और भ्रष्टाचार मुक्त भारत के अभियान से पैदा हुए हैं. लेकिन जैसा दिल्ली के प्रसंग में हुआ, कभी-कभी टिकट को लेकर या कुरसी को लेकर कुछ लोग जरूर दूर जा सकते हैं, क्योंकि आप से जुड़नेवाले सभी लोग मौजूदा राजनीतिक जमात के बुनियादी दोषों से पूरी तरह मुक्त नहीं हो सकते हैं.

5 मोटे तौर पर बढ़ते समर्थन और विरोध, दोनों का एक ही कारण है और वह है देश की शासन व्यवस्था और आर्थिक जगत में चल रहे नेताशाही, थैलीशाही और बाबूशाही के गंठबंधन के खिलाफ जनमत के आक्रोश को प्रतिबिंबित करने का असरदार अभियान. चूंकि आप ने स्वच्छ राजनीति को दिल्ली के अंदर संभव बना दिया है, इसलिए पार्टियों में अच्छे और बुरे की टकराहट बढ़ गयी है. यह खुला सच है कि आप आज कांग्रेस व भाजपा के बाद देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन चुकी है.

केजरीवाल को किसी वाद के घेरे में रखना उचित नहीं

1वादी वगैरह की जो संज्ञाएं हैं, इससे कई बार भ्रम पैदा हो जाता है. अराजकतावादी का मतलब होता है अ-राजवादी. यानी समाज को जो मानता हो और राज को मुख्य चीज न मानता हो. अरविंद केजरीवाल ने खुद को ‘अनार्किस्ट’ कहा है. ‘अनार्किस्ट’ का जो अर्थ लोकप्रिय ढंग से लोगों के दिमाग में है, वह है- ऐसा व्यक्ति जो व्यवस्था को न माने. यह गलत मतलब है. अनार्किस्ट का सही मतलब है कि जो राज्य की शक्तियों को कम करके समाज की शक्तियों को बढ़ाना चाहे. इसी अर्थ में उन्होंने खुद को ‘अनार्किस्ट’ कहा था. अपने आप में यह एक स्वस्थ विचारधारा है. आज बाजार और राज की दुरभि संधि हो गयी है पूरी दुनिया में. कॉरपोरेट और राज आपस में सांठगांठ करके अर्थव्यवस्था और समाज को अपने ढंग से चला रहे हैं. अपने देश में भी चंद कॉरपोरेट घरानों का राज के साथ सांठगांठ है. केजरीवाल इस तरह के राज के खिलाफ हैं. केजरीवाल ने कहा है कि मैं पूंजीवाद का विरोधी नहीं हूं. उन्होंने यह नहीं कहा है कि मैं पूंजीवाद का समर्थक हूं. दोनों में फर्क होता है. उन्होंने कहा है कि मैं क्रोनी कैपिटलिज्म के खिलाफ हैं. कुल मिलाकर वे व्यवस्था में परिवर्तन के हिमायती हैं और विभिन्न वाद के जो बने-बनाये घेरे हैं, जैसे पूंजीवादी, समाजवादी आदि में उनको घेरा नहीं जा सकता. उन्होंने खुद को अराजकतावादी कहा है, लेकिन यह एक संदर्भ मात्र था.

2केजरीवाल का दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा भ्रष्टाचार मिटाने की उनकी प्रतिबद्धता को जाहिर करता है. सामान्य आदमी तो देख ही रहा है कि किस तरह दोनों प्रमुख पार्टियां, कांग्रेस और भाजपा, आपस में मिल कर केजरीवाल को निशाना बना रही हैं. यदि ये दोनों पार्टियां सच में भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं, तो दिल्ली में दोनों मिल कर अपने तरीके का लोकायुक्त ले आएं.

3मुद्दों के आधार पर देखें तो मुङो लगता है कि अरविंद केजरीवाल के विचार में एक धारावाहिकता है. उनके निजी व्यवहार के बारे में मैं नहीं जानता, क्योंकि मेरा उनसे व्यक्तिगत रिश्ता नहीं है. जहां तक गंठबंधन का सवाल है, दिल्ली चुनाव से पहले किसी को अंदाजा नहीं था कि आप 28 सीटें जीत जाएंगी. यही स्थिति लोकसभा चुनाव को लेकर है. ऐसे में अन्य स्थापित पार्टियां किस आधार पर आप को सीटें देंगी. जाहिर है, गंठबंधन का अभी कोई आधार नहीं है. इस बार आम चुनाव लड़ कर जब आप अपनी हैसियत का अंदाजा लगा लेगी, तभी किसी अन्य पार्टी से गंठबंधन का आधार बन सकता है. अभी तो नीतीश जी और ममता बनर्जी की पार्टी के अलावा मुङो नहीं लगता कि देश में कोई और पार्टी सत्ता में है जो औपचारिक रूप से कहे कि हम भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं. ऐसे में आप किससे गंठबंधन करेगी.

4भारत में तो वैसा ही दल चल सकता है, जिसकी भीतरी रचना लोकतांत्रिक रहे और उसमें समाज गढ़ने के जो विविध सपने हैं, उससे जुड़े लोग हों. राष्ट्रीय आंदोलन हमारा सबसे समावेशी और अहिंसक आंदोलन था. विभाजन के समय जो हिंसा हुई, उसको छोड़ दें, तो जितनी कम हिंसा से हमलोगों को आजादी हासिल हुई, उतनी दुनिया में कहीं नहीं हुई है. आम आदमी पार्टी भी एक आंदोलन से निकली पार्टी है. इसमें विविध प्रकृति के लोग हैं. आप ने 31 कमेटियां बनायी हैं, जो पार्टी के लिए नीतियां तय करेंगी. विचारों का टकराव हो तो यह स्वस्थ बात है. मुङो लगता है कि इस टकराव से विखराव नहीं होगा. ईमानदार विचारों के टकराव से सहमति के क्षेत्र का विस्तार होगा, क्योंकि उसमें ईमानदारी और देशहित के आधार पर वैचारिक टकराव होगा.

5केजरीवाल के विरोध का प्रमुख कारण यह है कि जिन लोगों को सत्ता के भ्रष्टाचार की आदत पड़ गयी है, उनकी गद्दी खतरे में है. नरेंद्र मोदी जिस तरह से अंबानी की मदद से चल रहे हैं, उस पर खतरा आ गया है. सुनते हैं कि आइटी वाले सैंकड़ों लोग सक्रियता से लगे हुए हैं, जो साइबर मीडिया पर केजरीवाल के खिलाफ मुहिम छेड़े हुए हैं. यानी एक संगठित तंत्र है उनके खिलाफ. केजरीवाल का समर्थन इसलिए बढ़ रहा है क्योंकि भाजपा और कांग्रेस दोनों नैतिक रूप से भ्रष्ट हो गयी हैं. इस कारण जनता विकल्प तलाश रही थी और केजरीवाल ने उनके बीच आप को लोकप्रिय बनाया है.

बातचीत : रंजन राजन

ग्रामीण भारत को लेकर ‘आप’ के पास दृष्टि नहीं

1अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी आप ने खुद को उग्र सुधारवादी के रूप में अपनी जगह बनायी है. भारतीय उद्योगों के परिसंघ (सीआइआइ) की एक बैठक में केजरीवाल ने साफ कहा है कि आप पूंजीवाद के नहीं, बल्कि ‘सांठगाठ वाले पूंजीवाद’ के विरुद्ध हैं. इसका मतलब यह है कि वे एक अन्य सामाजिक-लोकतांत्रिक दल के रूप में सामने आ रहे हैं.

2यह थोड़ा-थोड़ा दोनों ही हो सकता है. जनलोकपाल कानून के लिए आप की प्रतिबद्धता ठोस है. लेकिन यह भी सही है कि साधारण बहुमत के अभाव में आप सरकार अपने एजेंडे को आगे ले जाने में परेशानी महसूस कर रही थी. उन्होंने इस स्थिति का उपयोग सरकार से निकल कर नया जनमत हासिल करने के लिए किया है.

3केजरीवाल ने निश्चित रूप से भारतीय राजनीति में अपनी जगह बनायी है और कहा जा सकता है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने की उनकी प्रतिबद्धता बनी हुई है. अगर वे सोमनाथ भारती प्रकरण जैसी गंभीर गलतियां न दुहराएं तो दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में आनेवाले दिनों में उनकी राजनीतिक ताकत बढ़ सकती है. उनकी राष्ट्रीय आकांक्षाएं अतिरंजित हैं. हिंदुस्तान एक वृहत और विविधतापूर्ण देश है, जहां कोई एक मॉडल हर जगह काम नहीं कर सकता है. आप का एजेंडा अब भी काफी हद तक शहर-केंद्रित है और उनके पास ग्रामीण भारत के विशेष मुद्दों- कृषि की स्थिति, जातिवाद और महिला शोषण आदि- को लेकर कोई स्पष्ट दृष्टि नहीं है. खाप पंचायतों पर उनकी समझदारी उनके अवसरवाद को दर्शाती है.

4शहरी क्षेत्रों में आप को मिल रहा जनसमर्थन भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे मौजूदा मुख्यधारा के दलों के प्रति शिक्षित मध्य वर्ग की चिढ़ का परिचायक है. यह किसी सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन की ओर ले जा सकेगा, यह भविष्य के गर्भ में है. यह आप नेतृत्व द्वारा चुने गये वैचारिक-राजनीतिक राह पर निर्भर करेगा. आम आदमी पार्टी के उद्भव ने निश्चित रूप से राजनीतिक मंच का विस्तार किया है और आनेवाले समय में कुछ और नयी राजनीतिक ताकतें उभर सकती हैं.

5आप की आलोचना का एक हिस्सा तो भाजपा और कांग्रेस जैसे स्थापित दलों तथा रिलायंस जैसे कॉरपोरेट से आ रहा है. अगर आम आदमी पार्टी ऐसे दबावों के आगे न झुकते हुए सैद्धांतिक राजनीति करती रहे तो उसकी लोकप्रियता में बढ़ोतरी होगी.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें