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चुनाव मैदान में कोई आदमी ‘छोटा’ नहीं होता

।। अनुज सिन्हा।। (वरिष्ठ संपादक प्रभात खबर) नरेंद्र मोदी, सोनिया गांधी, राहुल गांधी, लालकृष्ण आडवाणी- ये ऐसे बड़े नाम हैं जिनके खिलाफ प्रत्याशी खड़ा होने से हिचकते हैं. लेकिन, भारतीय राजनीति का इतिहास रहा है कि यहां के मतदाताओं ने दिग्गजों को भी धूल चटायी है. अगर उम्मीदवार अच्छा हो, ईमानदार हो, जनता के बीच […]

।। अनुज सिन्हा।।

(वरिष्ठ संपादक प्रभात खबर)

नरेंद्र मोदी, सोनिया गांधी, राहुल गांधी, लालकृष्ण आडवाणी- ये ऐसे बड़े नाम हैं जिनके खिलाफ प्रत्याशी खड़ा होने से हिचकते हैं. लेकिन, भारतीय राजनीति का इतिहास रहा है कि यहां के मतदाताओं ने दिग्गजों को भी धूल चटायी है. अगर उम्मीदवार अच्छा हो, ईमानदार हो, जनता के बीच काम किये हुए हो तो किसी को भी हराया जा सकता है. याद कीजिए 1977 का चुनाव. आपातकाल के बाद देश में चुनाव हुआ था. पहली बार कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई थी. जनता कांग्रेस से इतनी नाराज थी कि बिहार और उत्तरप्रदेश में कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली थी. एक से एक दिग्गज हार गये. जनता का क्रोध इतना ज्यादा था कि खुद इंदिरा गांधी को रायबरेली से चुनाव हारना पड़ा था. कोई सपने में भी नहीं सोचता था कि इंदिरा गांधी जैसा प्रधानमंत्री और सशक्त राजनेता भी कभी चुनाव हार सकता है. अपने पूरे जीवन में इंदिरा गांधी एक ही बार चुनाव हारीं, वह था 1977 का लोकसभा चुनाव. हरानेवाले थे राजनारायण. राजनारायण कोई मामूली राजनीतिज्ञ नहीं थे. बड़े समाजवादी नेता. राममनोहर लोहिया के सहयोगी. धुन के पक्के.हार नहीं माननेवाले.

इससे पूर्व 1971 के चुनाव में कांग्रेस मजबूती के साथ सत्ता में आयी थी. पाकिस्तान को कड़ी मात देकर अलग बांग्लादेश बनवाने के कारण इंदिरा गांधी काफी चर्चित हो गयी थीं. चुनाव में उत्तर प्रदेश के रायबरेली लोकसभा क्षेत्र से इंदिरा ने राजनारायण को लगभग 1.11 लाख मतों से हराया था. राजनारायण भले ही चुनाव हार गये थे, पर हिम्मत नहीं हारे थे. चुनाव में धांधली का आरोप लगाते हुए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ अदालत गये. 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाइकोर्ट के जज न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा के खिलाफ ऐतिहासिक फैसला सुनाया और चुनाव परिणाम को रद्द कर दिया. फिर आपातकाल लग गया. राजनारायण भी गिरफ्तार किये गये थे. जेल में बंद रहे. लेकिन जब 1977 का चुनाव हुआ, तो उन्होंने तय कर लिया कि वे इंदिरा गांधी को हरा कर रहेंगे. कसम खायी कि जब तक इंदिरा गांधी को नहीं हरायेंगे, दाढ़ी नहीं बनायेंगे. इसे उन्होंने पूरा किया. भारत के चुनावी इतिहास में यह पहला मौका था जब प्रधानमंत्री को चुनाव में 50 हजार से ज्यादा मतों से हारना पड़ा.

इंदिरा गांधी की इस हार से यही संदेश गया कि किसी को भी हराया जा सकता है, लेकिन हरानेवाला चाहिए. सिर्फ इंदिरा गांधी नहीं, बेटे संजय गांधी भी 1977 में अमेठी से हारे थे. उन्हें रवींद्र प्रताप सिंह ने 75 हजार से ज्यादा मतों से हराया था. संजय गांधी की आपातकाल में तूती बोलती थी. किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि इंदिरा गांधी और संजय गांधी की भी चुनाव में हार हो सकती है. 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद माहौल बदल गया था. तब ग्वालियर से अटल बिहारी वाजपेयी और माधवराव सिंधिया आमने-सामने थे. वाजपेयी भी चुनाव हार सकते हैं, किसी ने सोचा नहीं था. लेकिन चुनाव में सिंधिया ने व़ाजपेयी को हरा दिया था. उसी साल इलाहाबाद से अनुभवी नेता हेमवती नंदन बहुगुणा को अमिताभ बच्चन ने हराया था. हाल ही में आम आदमी पार्टी ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में अपना जलवा दिखाया था. मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को हार का सामना करना पड़ा था. झारखंड में मुख्यमंत्री रहते हुए शिबू सोरेन तमाड़ से चुनाव हार गये थे. उन्हें हराया था राजा पीटर ने. भारतीय राजनीति के इतिहास में ऐसे सैकड़ों उदाहरण पड़े हैं. जनता सबसे शक्तिशाली है. जिस पर उसे विश्वास रहेगा, उसे वह संसद-विधानसभा में भेजेगी. जिस पर नहीं होगा, उसे धूल चटायेगी.

यह चुनाव भी अपवाद नहीं रहेगा. कई दिग्गज हारेंगे और कई साधारण प्रत्याशी संसद में पहुंचेंगे. महाराष्ट्र में एक मामूली प्रत्याशी ने शुगर लॉबी के एक शक्तिशाली व्यक्ति को पिछले लोकसभा चुनाव में हरा कर यह संदेश दिया था कि सिर्फ पैसे के बल पर चुनाव नहीं जीता जा सकता. अगर ऐसा होता तो जितने भी उद्योगपति हैं, पैसेवाले लोग हैं, वे सभी संसद में होते.

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