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चुनाव प्रक्रिया स्वच्छ एवं पारदर्शी हो

चुनाव में काले धन का प्रकोप जिस स्तर पर था, उससे निपटने की दिशा में इलेक्टोरल बॉन्ड की व्यवस्था एक प्रगतिशील कदम थी. इसी सरकार के कार्यकाल में यह कानून बना था, इसलिए इसी सरकार को यह देखना होगा कि सर्वोच्च न्यायालय की आपत्तियों और निर्देशों का अनुपालन करते हुए एक संशोधित व्यवस्था लायी जाए.

इलेक्टोरल बॉन्ड पर जो सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आया है, वह एक कानूनी प्रक्रिया के तहत है और उस पर विशेष टिप्पणी करने का कोई अर्थ नहीं है. पर इस संबंध में जो पहली चीज विचार करने लायक है, वह यह है कि इलेक्टोरल बॉन्ड की व्यवस्था को क्यों लाया गया था. राजनीतिक दलों को चंदा संग्रह करने का अधिकार है और जमा की गयी धनराशि पर उन्हें कोई आयकर भी नहीं देना होता है. उन्हें जो पैसा चंदे या दान के रूप में मिलता है, उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे उसकी जानकारी चुनाव आयोग को मुहैया करायेंगे. पहले जो धन बैंक चेक या ड्राफ्ट के माध्यम से हासिल होता था, उसकी जानकारी तो मिल जाती थी, लेकिन नगदी चंदे के बारे में पारदर्शिता का पूरा अभाव था. यह तो स्थापित तथ्य है कि हमारे देश की राजनीति और चुनावी प्रक्रिया में काले धन की मौजूदगी जमाने से रही है और इस समस्या के समाधान पर लंबे समय से चर्चा भी होती रही है. काले धन की वजह से यह चलता रहा कि पैसा देने वाले राजनीतिक दलों और उनकी सरकारों से बेजा फायदा उठाते रहे. यह स्थिति हमारी राजनीतिक प्रणाली के लिए एक गंभीर चुनौती थी. इस पृष्ठभूमि में इलेक्टोरल बॉन्ड की व्यवस्था लाकर यह प्रयास हुआ कि काले धन की समस्या को रोका जाए, उसे हतोत्साहित किया जाए.

वर्ष 2017 में भारत सरकार द्वारा इलेक्टोरल बॉन्ड की व्यवस्था लागू की गयी, जिसमें यह कहा गया कि किसी भी व्यक्ति या संस्था द्वारा इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदा जा सकता है और किसी पार्टी को दिया जा सकता है. एक निर्धारित समयावधि के अंदर पार्टियां इलेक्टोरल बॉन्ड को भुना लेती थीं. इस पद्धति में यह सूचना सार्वजनिक करने का प्रावधान नहीं था कि किस पार्टी को किस व्यक्ति या संस्था ने कितना चंदा इलेक्टोरल बॉन्ड के माध्यम से दिया है. इस प्रावधान पर सर्वोच्च न्यायालय ने आपत्ति जतायी है और कहा है कि चुनावी चंदे के लेन-देन में समुचित पारदर्शिता होनी चाहिए. अभी इस ताजा फैसले में अदालत ने इलेक्टोरल बॉन्ड की व्यवस्था को रोक दिया है और कहा है कि भारतीय स्टेट बैंक इलेक्टोरल बॉन्ड जारी करना बंद कर दे. सर्वोच्च न्यायालय की प्रमुख आपत्ति पारदर्शिता को लेकर ही है. जो व्यवस्था इलेक्टोरल बॉन्ड के आने से पहले से थी और जिस प्रकार राजनीतिक दल पैसा जुटाते थे, उसमें भी पारदर्शिता का बड़ा अभाव था. साथ ही, यह भी समस्या थी कि जो लोग भारी मात्रा में नगदी दे रहे हैं, उनके पैसे का स्रोत क्या है. इसका पता लगा पाना असंभव था. अगर सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों को लागू करते हुए इलेक्टोरल बॉन्ड की व्यवस्था को कायम रखा जाए, तो आगे शायद अदालत को कोई आपत्ति नहीं होगी. हमारे देश में पंजीकृत राजनीतिक दलों की संख्या सैकड़ों में है. ऐसे में यह तो संभव है नहीं कि धन का कोई एक केंद्रीय संग्रहण हो और सभी दलों को उसमें से एक समान हिस्सा मुहैया कराया जाए. दलों की विचारधारा अलग-अलग हैं. मान लीजिए कि मुझे चंदा देना है और मैं समझ रहा हूं कि किसी दल की विचारधारा और कार्यक्रम संकीर्ण सोच पर आधारित है तथा देश के लिए नुकसानदेह हैं, तो मैं उस दल को चंदा नहीं देना चाहूंगा. अगर सभी दलों को एक समान चंदा मिलेगा, तो पार्टी बनाना एक धंधा बन जायेगा. ऐसे में यह व्यक्ति या संस्था पर निर्भर करता है कि वह किसी एक दल को चंदा दे या कुछ दलों में अपनी धनराशि को अपनी समझ से बांट दे. यह कई लोगों की समझ है और मैं इससे सहमत हूं कि चुनावी चंदे के मामले में नगदी का चलन नहीं होना चाहिए और चंदा हमेशा ऐसी व्यवस्था के तहत लिया और दिया जाए, जिससे उसके स्रोत के बारे में सही जानकारी मिल सके. यदि सर्वोच्च न्यायालय का यह मानना है कि पारदर्शिता के साथ यह पता चलना चाहिए कि किस दल को किस व्यक्ति या संस्था ने कितनी धनराशि दी है, तो यह कानून की एक व्याख्या है और इसे सकारात्मक रूप में लेना चाहिए.

हमारे सामने अनेक उदाहरण हंै कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों को सरकार ने नहीं स्वीकार करते हुए संसद में फिर से कानूनों को पारित किया. साथ ही, ऐसे उदाहरण भी हैं, जब अदालती आदेशों के मुख्य बिंदुओं को स्वीकार करते हुए और कानून में उन्हें समाहित करते हुए संशोधित कानून पारित किये गये. चूंकि अभी सरकार को भी सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को पढ़ने और उस पर विचार करने के लिए समय चाहिए, इसलिए हमें सरकार के पक्ष को विस्तार से सामने आने की प्रतीक्षा करनी चाहिए. अगर सरकार को ऐसा लगेगा कि सर्वोच्च न्यायालय की आपत्तियों के अनुरूप वर्तमान व्यवस्था को और भी पारदर्शी बनाने की आवश्यकता है, तो वह एक संशोधित प्रारूप संसद के समक्ष प्रस्तुत कर सकती है. लेकिन यह कार्य अभी तुरंत नहीं हो सकता है. यह समझना जरूरी है कि देश कोई एक दो दिन या वर्ष के लिए नहीं होता. राष्ट्र की यात्रा सतत होती है. इस यात्रा में व्यवस्थाएं बनती हैं, बदलती हैं और टूटती भी हैं. कुछ ही महीनों में लोकसभा के चुनाव होने हैं और मई में नयी लोकसभा और सरकार का गठन हो जायेगा. इसलिए इस इलेक्टोरल बॉन्ड के मुद्दे पर अल्पकालिक दृष्टि से विचार करने की आवश्यकता नहीं हैं. चूंकि यह निर्णय सर्वोच्च न्यायालय का है, तो देश और सरकार को उसका सम्मान करना है, लेकिन यह अवश्य कहा जाना चाहिए कि चुनाव में काले धन का प्रकोप जिस स्तर पर था, उससे निपटने की दिशा में इलेक्टोरल बॉन्ड की व्यवस्था एक प्रगतिशील कदम थी. इसी सरकार के कार्यकाल में यह कानून बना था, इसलिए इसी सरकार को यह देखना होगा कि सर्वोच्च न्यायालय की आपत्तियों और निर्देशों का अनुपालन करते हुए एक संशोधित व्यवस्था लायी जाए. ऐसा तो अब नहीं हो सकता है कि हम पहले के काले धन वाले समय में लौट जाएं, जहां न तो पैसे के स्रोत का पता चलता था और न ही पैसा देने वाले के बारे में. आज भी हर चुनाव में हम देखते हैं कि चुनाव आयोग बड़ी मात्रा में नगदी की धर-पकड़ करता है. पहले भी कई बार आयोग की ओर से कहा जा चुका है कि चुनावों में बाहर से पैसा आने के अंदेशों को खारिज नहीं किया जा सकता है. किसी भी व्यवस्था या नियम का उद्देश्य यही है कि हमारे देश की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भ्रष्टाचार और धन-बल का हस्तक्षेप न हो और स्वच्छ एवं निष्पक्ष चुनाव हों.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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