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…और जीवंत हो उठी तीन सौ साल पुरानी परंपरा

राजा द्वारा छेरा पोहरा देने के बाद मौसीबाड़ी के लिये निकला प्रभु जगन्नाथ का रथराजघराने के प्रतिनिधियों ने निभाई छेरापोहरा देने की परंपराछोरा पोहरा की रश्म अदायगी के बाद निकली श्री जगन्नाथ की रथ यात्रा18केएसएन 1 : छेरोपोहरा देते राजघराने के प्रतिनिधिसंवाददाता,खरसावां इस वर्ष के रथयात्रा में सदियों से चली आ रही परंपरा कायम रही. […]

राजा द्वारा छेरा पोहरा देने के बाद मौसीबाड़ी के लिये निकला प्रभु जगन्नाथ का रथराजघराने के प्रतिनिधियों ने निभाई छेरापोहरा देने की परंपराछोरा पोहरा की रश्म अदायगी के बाद निकली श्री जगन्नाथ की रथ यात्रा18केएसएन 1 : छेरोपोहरा देते राजघराने के प्रतिनिधिसंवाददाता,खरसावां इस वर्ष के रथयात्रा में सदियों से चली आ रही परंपरा कायम रही. राजा राजवाड़े के समय से चली आ रही हर रश्म को निभाया गया. खरसावां व सरायकेला में रथ यात्रा के दौरान इस बार भी तीन सौ साल पुरानी परंपरा को जीवंत रुप में देखा गया. देश के आजादी के बाद भले ही तमाम रियासतों का विलय भारत गणराज्य में कर दिया गया हो, परंतु सरायकेला, खरसावां व हरिभंजा में सभी रश्म राजा-राजवाड़ों के समय जैसा ही निभाया गया. प्रभु जगन्नाथ के रथ निकलने से पूर्व छेरा पोहरा नामक धार्मिक अनुष्ठान का आयोजन किया गया. छेरा पोहरा रश्म सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है. इस रश्म के पूरा होने के बाद ही रथ निकलने की परंपरा है. पूर्व की तरह इस रश्म को राजघराने के प्रतिनिधि ही निभाते हैं. छेरा पोहरा में रथ चलने के रास्ते पर राजा द्वारा चंदन छिड़का गया, तब जा कर रथ मौसी बाड़ी के लिये कूच किया. खरसावां राजकुमार गोपाल नारायण सिंहदेव ने दिया. सरायकेला में राजा प्रताप आदित्य सिंहदेव ने छेरा पोहरा दिया गया. हरिभंजा के रथ यात्रा में विद्याविनोद सिंहदेव ने छेरा पोहरा कर वषों से वषों से चली आ रही परंपरा को भी इस बार निभाया.

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