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जर्मनी में भी है स्वांसी जाति के बुनकरों के कपड़ों की डिमांड

रांची : टोड़ंगकेल खूंटी के अन्य गांवों की तरह एक सामान्य गांव है. खूंटी की मुख्य सड़क से लगभग सात किलोमीटर पूर्व की अोर जाने पर यह गांव मिलता है. बस एक ही चीज इसे अलग बनाती है अौर वह है यहां के बुनकर. टोंड़गकेल के जीपसुडीह टोले में अभी 13 बुनकर परिवार रहते हैं […]

रांची : टोड़ंगकेल खूंटी के अन्य गांवों की तरह एक सामान्य गांव है. खूंटी की मुख्य सड़क से लगभग सात किलोमीटर पूर्व की अोर जाने पर यह गांव मिलता है. बस एक ही चीज इसे अलग बनाती है अौर वह है यहां के बुनकर. टोंड़गकेल के जीपसुडीह टोले में अभी 13 बुनकर परिवार रहते हैं स्वांसी जाति के. इन बुनकरों द्वारा बुने गये पड़िया कपड़ों की डिमांड जर्मनी तक है. जर्मनी के डीटर हेकर व अन्य लोग लगभग हर साल यहां आकर पड़िया कपड़े से बने चादर, शॉल आदि ले जाते हैं.

इन बुनकरों की एक समिति है निबुचा बुनकर सहयोग समिति. इसकी स्थापना वर्ष 1988 में हुई थी. पर 1996 से यह समिति व्यवस्थित ढंग से काम करने लगी. एक पूर्व आइएएस आभास चटर्जी अौर जर्मन मिशनरियों की मदद से समिति का गठन हुआ था. जीपसुडीह टोले में इन बुनकरों के लिए एक वर्कशॉप है, जहां ये काम करते हैं. वर्कशॉप के पास ही इनका कार्यालय है. भवन अौर कार्यालय के होने से इन्हें काम करने में सुविधा होने लगी है. फिलहाल वर्कशॉप तक बिजली नहीं पहुंची है.
बुनाई के कपड़ों से ही हमारी पहचान : कोंता स्वांसी : समिति के कोषाध्यक्ष कोंता स्वांसी उम्र के 60 बसंत देख चुके हैं. वे कहते हैं कि बचपन से ही कपड़े बुनने का काम किया. पड़िया कपड़े की लाल पाड़ वाली साड़ी, शॉल, टेबल मैट, सोफा कवर व ऊनी शॉल वगैरह बनाते हैं. यह हमारी परंपरागत कला है अौर इसी से हमारी पहचान भी है. ऐसे कपड़े अब ज्यादा नहीं बनते.
बाजार मिले, तो होगी स्थिति में सुधार : कोंता इस बात से दुखी है कि इस काम से उन्हें बहुत ज्यादा पैसे नहीं मिलते हैं. बस किसी तरह गुजारा हो जाता है. बचत नहीं कर पाते हैं. नयी पीढ़ी यह काम कर तो रही है पर ज्यादा पैसे नहीं मिलने से वे भी निराश हैं. कोंता कहते है अगर सरकार हम बुनकरों की मदद करें तो स्थिति सुधर सकती है. हमें अपने कपड़ों के लिए बाजार भी चाहिए.

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