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विरासत में मिली कला को आगे बढा रहे हैं मूर्तिकार रमेश पंडित

।।पंकज कुमार पाठक।। रांची : दुर्गापूजा के अवसर पर ढाक, शंख और घंटों की मधुर ध्वनि के बीच जब सुगंधित धूप से मां दुर्गे की आरती होती है, तो सहसा भक्तों को मां की मूर्ति में उनकी जीवंत छवि नजर आती है. उस वक्त हमें यह भान भी नहीं रह जाता कि हम मां की […]

।।पंकज कुमार पाठक।।

रांची : दुर्गापूजा के अवसर पर ढाक, शंख और घंटों की मधुर ध्वनि के बीच जब सुगंधित धूप से मां दुर्गे की आरती होती है, तो सहसा भक्तों को मां की मूर्ति में उनकी जीवंत छवि नजर आती है. उस वक्त हमें यह भान भी नहीं रह जाता कि हम मां की मूर्ति की आराधना कर रहे हैं या साक्षात मा दुर्गा की. हमें मां की इस छवि से साक्षात्कार करवाने वाला और कोई नहीं बल्कि वह मूर्तिकार है, जो माता की छवि को गढता है. हिंदुओं के विभिन्न पर्व-त्योहारों के अवसर पर देवा-देवताओं की मूर्ति बनाने में रांची के भी कई कलाकार पीढियों से जुटे हैं. ऐसे ही एक मूर्तिकार हैं अरगोडा निवासी रमेश पंडित. रमेश को यह कला विरासत में मिली हैं

50सालों से बना रहे हैं मूर्ति
रमेश ने बताया कि वे लगभग 50 सालों ले मूर्ति बनाने का काम कर रहे हैं. पहले इतने ज्यादा पंडालों का निर्माण नहीं होता था, लेकिन धीरे-धीरे विभिन्न पर्व-त्योहारों के अवसर पर पंडाल बढने लगे और मूर्तियों की डिमांड भी ज्यादा हो गयी है. आजकल विभिन्न पूजा-पंडाल वाले कलकत्ता से मूर्तिकार बुलाते हैं और लाखों करोड़ों रुपये खर्च कर मूर्ति और पंडाल का निर्माण करवाते हैं. इससे इस बात को आसानी से समझा जा सकता है कि मूर्तिनिर्माण के क्षेत्र में विकास हुआ है.

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रमेश कहते हैं कि मूर्ति मेरे लिए बच्चे के समान है. जिस प्रकार एक मां अपने बच्चे का लालन- पालन बड़े सावधानी और प्रेम के साथ करती है, उसी प्रकार मैं भी अपनी रचना को सहेजता हूं. उन्होंने बताया कि चार से पांच फीट की मूर्ति बनाने में कम से कम तीन दिन का समय लगता है. हम एक साथ सात- आठ मूर्तियों पर काम करते हैं. रमेश बताते हैं कि पूजा के वक्त वह मूर्ति बनाकर लगभग चालीस से पचास हजार रुपये कमा लेते हैं. अलग- अलग प्रकार की मूर्तियों की कीमत भी अलग-अलग होती है. साधारण मूर्तियों की कीमत तीन से चार हजार रुपये और साज सज्जा वाले मूर्तियों की बात करें तो सजावट के अनुसार उनकी कीमत बढ़ती घटती जा रही है.

विरासत में मिली कला को आगे बढा रहे हैं रमेश

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रमेश को मूर्तिकला की शिक्षा उनके पिताजी ने दी थी, अब वे इस कला को अपने बेटे को सौंपना चाहते हैं. वे यह चाहते हैं कि उनकी कला बढती रहे , लेकिन इसके लिए उन्होंने अपने बेटे और अन्य इच्छुक मूर्तिकारों से मांसाहार का त्याग करने को कहा है.इस कला के कारण उन्हें बहुत सम्मान मिलता है, इसलिए वे भी अपनी कला का सम्मान करते हैं. रमेश बताते हैं कि माता की मूर्ति बनाते-बनाते उनकी मां से इतनी घनिष्ठता हो गयी है कि वे खुद को मूर्तिकार की बजाय माता का भक्त समझने लगे हैं, जो उनकी सेवा में अपना जीवन समर्पित करना चाहता है.

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