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1932 क्यों? : 22 वर्ष बाद औपनिवेशिक व्यवस्था को बदलने की हुई शुरुआत

कीनिया के प्रसिद्ध साहित्यकार न्गुगींवा थ्योंगो के अनुसार शासित समूह की संस्कृति, कला, इतिहास को नष्ट कर देना या जानबूझ कर उपेक्षा करना औपनिवेशिक शक्ति का सांस्कृतिक हथियार है़.

कीनिया के प्रसिद्ध साहित्यकार न्गुगींवा थ्योंगो के अनुसार शासित समूह की संस्कृति, कला, इतिहास को नष्ट कर देना या जानबूझ कर उपेक्षा करना औपनिवेशिक शक्ति का सांस्कृतिक हथियार है़. यह सांस्कृतिक आक्रमण उपनिवेशों की जनता की संस्कृति के खिलाफ लंबे समय तक जारी रहता है. नव औपनिवेशिक स्थितियों में यह सांस्कृतिक हथियार और भी तेजी से काम करता है, ताकि औपनिवेशिक शासकों की हितों की रक्षा करने वाली मानसिकता का निर्माण हो सके.

झारखंड राज्य गठन आंदोलन एवं इससे पूर्व पराधीन भारत में संथाल परगना, छोटानागपुर और कोल्हान में किये गये आंदोलन इसी औपनिवेशिक षड़यंत्र के खिलाफ थे. 15 नवम्बर, 2000 को पृथक राज्य गठन के साथ इन आंदोलनों के कुछ उद्देश्यों की प्राप्ति तो हो पायी, परंतु राज्य गठन का वास्तविक लाभ झारखंड के आदिवासियों, मूलवासियों तक अब तक पहुंचाया जाना संभव नहीं हो सका है़. जो औपनिवेशिक ताना-बाना ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा झारखंड के खान और खनिजों के दोहन के लिए रचा गया था, उसे तोड़ना अभी तक संभव नहीं हो पाया है.

11 नवंबर, 2022 को राज्य सरकार के द्वारा लाया गया झारखंड स्थानीय व्यक्तियों की परिभाषा, परिणामी, सामाजिक, सांस्कृतिक और अन्य लाभों को ऐसे स्थानीय व्यक्तियों तक विस्तारित करने के लिए विधेयक 2022, इसी औपनिवेशिक ताने–बाने को तोड़ने का एक साहसिक प्रयास है़ इस विषय पर सदन के अंदर तमाम राजनीतिक दलों के करीब-करीब एकमत होने और करीब-करीब एक स्वर में इस विधेयक का समर्थन किये जाने से मुझे जो प्रसन्नता हुई है, उसे व्यक्त नहीं किया जा सकता.

जैसा कि सदन में अपने संबोधन के दौरान मैंने कहा भी कि मतभिन्नता और विचारों का टकराव होना लोकतांत्रिक प्रक्रिया में स्वाभाविक है़ परंतु हम सभी जनप्रतिनिधियों को, चाहे वे किसी भी दल से संबद्ध हों, जो एक डोर से आपस में बांधे रखती है, वह डोर जन कल्याण की डोर होती है और हम सभी जनप्रतिनिधि अलग-अलग नीतियों और सिद्धांतों के बावजूद व्यापक जन कल्याण के विषय पर एकमत होते हैं. 1932 एवं उससे पूर्व के खतियान के आधार पर स्थानीयता का विषय एक ऐसा विषय हैं, जिससे न केवल झारखंड की अस्मिता जुड़ी है, बल्कि राज्य गठन के मूलभूत उद्देश्यों में से यह एक है.

जैसा कि विधेयक के उद्देश्य और हेतु में ही निहित है कि 1932 केे खतियान के आधार पर स्थानीय नीति की परिभाषा के लिए आनेवाला प्रस्ताव इस तथ्य पर आधारित है कि 1932 से पूर्व और 1932 के पश्चात् दूसरे राज्यों से लंबे आव्रजन के परिप्रेक्ष्य में मूल निवासियों/आदिवासियों/मूलवासियों के सामाजिक, आर्थिक रहन–सहन, रीति रिवाज और परंपराओं पर नकारात्मक प्रभाव देखा गया है़.

इसे इस तथ्य से देखा जा सकता है कि झारखंड में 1941 की जनगणना के बाद से अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या प्रतिशत में लगातार गिरावट देखी गयी है. यह एक संवैधानिक तथ्य है कि झारखंड में संविधान के 5वीं अनुसूची के साथ पठित भारत के संविधान में अनुच्छेद 244 के तहत अधिकांश अनसूचित क्षेत्र घोषित है.

इस विधेयक के विषय में आम चर्चाओं में दो–तीन विषय प्राथमिकता से आते रहे हैं

पहला विषय तो यह उठाया जा रहा है कि वर्ष 2002 में राज्य सरकार के द्वारा जो प्रयास किया गया, उस प्रयास में और वर्तमान में झारखंड सरकार द्वारा इस दिशा में जो कदम उठाया गया, दोनों में क्या अंतर है? जैसा कि विदित है कि झारखंड सरकार के द्वारा 8 अगस्त, 2002 और 19 अगस्त, 2002 को अधिसूचना जारी कर 1932 के खतियान आधारित स्थानीयता का प्रावधान किया गया था, जिसे झारखंड उच्च न्यायालय के 5 न्यायाधीशों की खंडपीठ द्वारा प्रशांत विद्यार्थी एवं सुमन कुमार बनाम झारखंड राज्य मामले में असंवैधानिक करार दिया गया था.

उक्त न्याय निर्णय में इस बात का उद्धरण किया गया है कि तत्कालीन झारखंड सरकार के द्वारा झारखंड उच्च न्यायालय में जो शपथ पत्र दायर किया गया था, उसमें सरकार द्वारा यह कहा गया था कि सरकार ने कोई नया नियम नहीं बनाया है, बल्कि जो नियम पूर्ववर्ती बिहार में लागू थे, उन्हें ही इस अधिसूचना द्वारा प्रभावी बनाया गया है. यह उद्धृत किया जाना आवश्यक है कि पूर्ववर्ती बिहार सरकार द्वारा 1982 में एक अधिसूचना जारी की गयी थी,

जिसके आधार पर स्थानीयता का आधार जिला के राजस्व अभिलेखों को माना गया था़. वर्तमान सरकार द्वारा वृहत् विधिक परामर्श के आधार पर विधेयक की तैयारी कर विधेयक में सभी विषयों को समावेशित कर सदन के पटल पर इसे रखा गया है, जो कि वर्तमान सरकार के इस विषय पर गंभीरता को स्पष्टता से प्रदर्शित करता है.

दूसरा विषय यह है कि विधेयक के मूल संलेख में नियोजन के विषय को न डाले जाने के कारण यह सवाल उठाया जा रहा था कि सरकार जब 1932 के खतियान आधारित स्थानीय व्यक्तियों को नियोजन का लाभ ही प्रदान नहीं कर रही है, तो इस विधेयक को लाये जाने का उद्देश्य क्या है? मुझे प्रसन्नता है कि सरकार ने जन भावनाओं को समझा और उन जन भावनाओं का सम्मान करते हुए सदन नेता ने इस विधेयक में स्वयं अपना संशोधन प्रस्तुत किया, जिसके आधार पर धारा–6 क को जोड़ते हुए वर्ग–3 और 4 के पदों पर नियुक्तियों के लिए 1932 के खतियान के आधार पर रेखांकित किये गये स्थानीय लोगों को ही पात्र बनाया गया है.

तीसरा प्रश्न जो बार–बार उठाया जा रहा है वह यह कि 9वीं अनुसूची में डाले जाने का प्रस्ताव विधेयक में क्यों डाला गया है? संविधान के अनुच्छेद 16 (2) में प्रावधान किया गया है कि राज्य के अधीन किसी नियोजन या पद के संबंध में केवल धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग, उद्भव, जन्म स्थान, निवास आदि या इनमें से किसी के आधार पर न तो कोई नागरिक पात्र होगा, न उससे विभेद किया जायेगा.

परंतु इसके साथ ही इसी अनुच्छेद का खंड–3 इस आशय की व्यवस्था करता है कि संसद को निवास के आधार पर किसी भी पद को आरक्षित करने हेतु कानून बनाने का अधिकार होगा़ इस प्रावधान का एक अपवाद आंध्र प्रदेश के मामले में है, जहां संविधान के प्रभाव में आने के पूर्व हैदराबाद मुलकी नियम के आधार पर स्थानीय व्यक्तियों के लिए नियोजन में आरक्षण के प्रावधान किये गये हैं, जिसे संविधान के प्रभाव में आने के पूर्व के कानून होने के कारण सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा भी संरक्षण प्रदान किया गया है.

वर्ष 1973 में 32वें संविधान संशोधन के माध्यम से अनुच्छेद 371 क के द्वारा तेलंगाना राज्य गठन आंदोलन की मांगों को देखते हुए उस क्षेत्र के स्थानीय निवासियों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण के प्रावधान किये गये. ये कानूनी और ऐतिहासिक तथ्य साबित करते हैं कि बिना केंद्र सरकार के वांक्षित सहयोग से इस कानून का वास्तविक लाभ जनता को नहीं प्राप्त हो पायेगा. जैसा कि पूर्व में भी हम देख चुके हैं कि राज्य सरकार द्वारा किये गये प्रयास पर उच्च न्यायालय के इतर फैसला आने के कारण राज्य की जनता नियोजन के इस लाभ से वंचित रह गयी.

यह दु:खद है कि झारखंड राज्य गठन आंदोलन का इतिहास अन्य सभी पृथक राज्य गठन आंदोलनों से न केवल पुराना और लंबा है, बल्कि पूर्ण रूप से लोकतांत्रिक तरीके से लड़ा गया है़ं. परंतु यह विडंबना यह है कि राज्य गठन के 22 वर्षों के बाद भी हम उस औपनिवेशिक व्यवस्था को बदल पाने में अब तक नाकाम रहे है़ं , जिसके विरुद्ध झारखंड राज्य गठन की लड़ाई लड़ी गयी थी और लाखों लोगों ने इस लड़ाई में अपने योगदान दिये और न जाने कितने माता बहनों के मांगो का सिंदुर उजड़ा, कितनी कुर्बानियां दी गयीं. हमें आशा है कि जन कल्याण की जिस डोर की बात मैंने सदन के गरिमामयी आसन से की थी ,वह डोर केंद्र और राज्य को एक साथ पीरो पायेगी और राज्य की जनता के इस चिर प्रतिक्षित मांग को हम पूरा कर पाने में सफल होंगे.

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