।। गुरुस्वरूप मिश्रा ।।
रांची : वनों का प्रदेश झारखंड खनिज संपदा के लिए देशभर में विख्यात है. यहां के जंगलों में सिर्फ खनिजों का अकूत भंडार ही नहीं है, बल्कि औषधीय पौधों की भी भरमार है. प्रकृति के पुजारी आदिवासी व आदिम जनजाति समुदाय के लोग इन औषधीय पौधों के विशेषज्ञ हैं. सामान्य बीमारियों में वह डॉक्टरों के पास नहीं जाते, बल्कि प्राकृतिक चिकित्सा के ज्ञान से वह खुद ही घरेलू इलाज कर लिया करते हैं.
हमारे आस-पास कई औषधीय पौधे होते हैं, लेकिन जानकारी के अभाव में हम उनका सदुपयोग नहीं कर पाते हैं. कई बार तो उन्हें खर-पतवार या अनुपयोगी समझकर नष्ट भी कर देते हैं. पंचायतनामा के इस अंक के जरिए आस-पास पाये जाने वाले और उपयोगी औषधीय पौधों से लोगों को रू-ब-रू कराना है, ताकि सामान्य बीमारियों में लोग इसका लाभ ले सकें.
हरियाली के साथ-साथ प्राकृतिक चिकित्सा व आय बढ़ाने में कारगर साबित हो सकते हैं ये औषधीय पौधे. वैसे इनका उपयोग करने से पहले चिकित्सक से परामर्श जरूर ले लें. पढ़ें यह रिपोर्ट...
छह सौ औषधीय पौधे
झारखंड में औषधीय पौधों की संख्या करीब छह सौ है. इनमें करीब 50-100 व्यावसायिक किस्में हैं, जिनकी खेती की जाती है और उनका उपयोग हर्बल उत्पादों के निर्माण में किया जाता है. करीब 200 ऐसे औषधीय पौधे हैं, जिनका आयुर्वेदिक दवाओं के निर्माण में उपयोग होता है. देशभर में करीब तीन सौ ऐसे औषधीय पौधे हैं, जिनका उपयोग विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों आयुर्वेद, युनानी, सिद्धा एवं होमियोपैथी में किया जाता है.
ये औषधीय पौधे हैं खास
एलोयवेरा (घृतकुमारी), सफेद मूसली, सर्पगंधा, मंडुकपर्णी, बेल, सदाबहार, काली तुलसी, खस, लेमन ग्रास, श्यामा तुलसी, अमेरिकन तुलसी, अश्वगंधा, इसबगोल, वचा, शतावर, आंवला, भिलावा, श्योनाक, गम्हार, पाडेर, चित्रक, कुजरी, कालमेघ, काली मूसली, विजयसार, मरोड़फली, कुटज, गंध प्रसारिणी, निर्गुंडी, मुचकुंद, गुड़मार, भृंगराज, नील, करंज, नीम, खदिर, वाकुची, अर्जुन, मानकंद, कांचनार, वासा, कंटकारी, वृहती, अगस्त्य, मोथा, केवांच, धातकी, पलाश, वन तुलसी, भांडीर, अपामार्ग, शरपुंखा, पुत्रजीवक, ईश्वरमूल, पुनर्नवा, जामुन, सप्तपर्ण, लता करंज, द्रोणपुष्पी, बला-अतिबला, वाराही, तवक्षीर(तिखुर), लज्जालु, हर्रे, बहेरा, गिलोय, अनंतमूल, महुआ, हड़जोड़ा, वासा समेत अन्य खास औषधीय पौधे हैं.
व्यावसायिक खेती को बढ़ावा
झारखंड में औषधीय पौधों की खेती को बढ़ावा दिया जा रहा है. व्यावसायिक खेती के रूप में एलोयवेरा, शतावर, अश्वगंधा, सर्पगंधा, कालमेघ, गिलोय, केवांच और गुड़मार को प्रोत्साहित किया जा रहा है. इसके लिए किसानों को प्रशिक्षित किया जा रहा है, साथ ही उन्हें आवश्यक उपकरण भी दिये जा रहे हैं, ताकि वह इनकी खेती कर सकें.
मौसम का रखें ध्यान
औषधीय पौधों की खेती को लेकर मौसम की जानकारी जरूरी है. इसके अभाव में औषधीय खेती में विशेष लाभ नहीं मिल सकेगा. झारखंड की जलवायु औषधीय पौधों की खेती के लिए उपयुक्त है. आप मई-जून के महीने में औषधीय पौधे लगाएं. गिलोय लगाना चाहते हैं, तो मार्च-अप्रैल में लगा सकते हैं.
घरों में लगाएं ये पौधे
आप अपने घर में औषधीय पौधे लगाना चाहते हैं, तो कम जगह में इन उपयोगी औषधीय पौधों को लगा सकते हैं. सामान्य या मौसमी रोगों में इनके पत्ते या काढ़ा कारगर साबित होते हैं. वैसे बिना डॉक्टर के सलाह लिए आप औषधीय पौधों का उपयोग नहीं करें. परामर्श के बाद ही उचित मात्रा में इनका सेवन करें.
औषधीय पौधे बीमारी
तुलसी खांसी, ज्वरनाशक, चर्म रोग
लेमन ग्रास मच्छर भगाने व चाय में प्रयोग
एलोयवेरा सुंदरता व पेट के रोग में उपयोगी
सदाबहार डायबिटिज में इसकी पत्तियां फायदेमंद
गिलोय डंठल या तना ज्वरनाशक
वासा खांसी में कारगर
मंडुकपर्णी(बेंगसाग) बुद्धिवर्धक
पुदीना ब्लड प्रेशर

बीएयू से करें संपर्क
औषधीय पौधों की खेती करना चाहते हैं या विस्तृत जानकारी चाहते हैं, तो आप रांची के कांके स्थित बिरसा कृषि विश्वविद्यालय (बीएयू) से संपर्क कर सकते हैं. वनोत्पाद एवं उपयोगिता विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ कौशल कुमार के मोबाइल नंबर 7765999397 पर विशेष जानकारी ले सकते हैं.
औषधीय पौधों की खेती से बढ़ेगी किसानों की आय : डॉ कौशल कुमार
रांची के कांके स्थित बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के वनोत्पाद एवं उपयोगिता विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ कौशल कुमार कहते हैं कि औषधीय पौधों की खेती से किसानों की आय बढ़ेगी. किसान भाई-बहन सिर्फ रबी-खरीफ फसलों की खेती पर ही निर्भर नहीं रहें. वह औषधीय पौधों की भी खेती करें. उनकी आय बढ़ेगी. स्वास्थ्य की दृष्टि से भी उन्हें इसका लाभ मिलेगा. धन लाभ के साथ-साथ किसान स्वास्थ्य लाभ भी ले सकेंगे. बीएयू कैंपस में 120 औषधीय पौधे संरक्षित किये गये हैं.
आदिवासी एवं आदिम जनजाति समुदाय है पारंगत
झारखंड में औषधीय पौधों की भरमार है. करीब 600 किस्म के औषधीय पौधे हैं. यहां के आदिवासी एवं आदिम जनजाति समुदाय के लोग इसमें पारंगत भी हैं. उन्हें प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति का अच्छा ज्ञान है. कई औषधीय पौधों के नाम उन्होंने स्वयं रखे हैं. यह प्रमाण है कि उन्हें उसकी पूरी जानकारी है. वे उसका घरेलू चिकित्सा में उपयोग भी करते हैं. सामान्य या मौसमी बीमारियों समेत कई रोगों का इलाज वे खुद ही कर लेते हैं.
किसानों को खेती के लिए किया जा रहा जागरूक
पर्याप्त औषधीय पौधे होने के बावजूद झारखंड से कई पौधे विलुप्त होने के कगार पर हैं. जानकारी के अभाव में लोग संरक्षण करने के बजाय उन्हें नष्ट कर दे रहे हैं. खेती को लेकर किसान जागरूक भी नहीं हैं. छत्तीसगढ़ एवं उत्तराखंड की तुलना में यहां के किसान औषधीय पौधों की खेती को लेकर उदासीन हैं. किसी भी औषधीय पौधे को तैयार होने में करीब छह माह लगता है. इस खेती में तात्कालिक लाभ नहीं मिल पाने और जागरूकता के अभाव में किसान इसमें रूचि नहीं ले रहे हैं. वैसे बीएयू द्वारा किसानों को प्रशिक्षण देकर खेती के लिए जागरूक किया जा रहा है.
एलोयवेरा विलेज के रूप में विकसित हो रहा देवरी गांव
रांची के नगड़ी स्थित देवरी गांव को गोद लिया गया है. इसे एलोयवेरा विलेज के रूप में विकसित किया जा रहा है. यहां के किसानों को न सिर्फ एलोयवेरा के पौधे दिये गये, बल्कि आवश्यक उपकरण भी दिये गये हैं, ताकि खेती में उन्हें कोई परेशानी नहीं हो सके. एक मॉडल विलेज के रूप में इसका विकास किया जा रहा है.
पांच औषधीय पौधों पर हो रहा रिसर्च
बिरसा कृषि विश्वविद्यालय (बीएयू) द्वारा पांच औषधीय पौधों पर रिसर्च किया जा रहा है. वनोत्पाद एवं उपयोगिता विभाग में सीनियर रिसर्च फेलो दिवाकर प्रसाद निराला कहते हैं कि सर्पगंधा, गुड़मार, हरे, केवांच और गिलोय का उत्पादन बढ़ाने और उनकी गुणवत्ता पर रिसर्च किया जा रहा है.
अलकुशी के हैं 30 किस्म
बीएयू परिसर में अलकुशी के 30 किस्म हैं. इनका मूल्यांकन किया जा रहा है. देश के विभिन्न संस्थानों द्वारा भी इस पर रिसर्च हो रहा है. यहां कई तरह की तुलसी है. श्यामा तुलसी, राम तुलसी, कपूर तुलसी एवं अमेरिकन तुलसी.