अनुज लुगुन
दुखद खबर यह है कि आदिवासी जीवन के सशक्त सहजीवी लेखक-विचारक फादर पीटर पॉल एक्का का 12 मार्च, 2018 को हृदयाघात होने से गुवाहाटी एयरपोर्ट पर देहांत हो गया. सन 2002 ई. में जब मैं गांव से पहली बार रांची पढ़ने के लिए आया और संत जेवियर्स कॉलेज में इंटरमीडिएट में दाखिला लिया, तब फादर पीटर पॉल एक्का कॉलेज के वाईस प्रिंसिपल थे. कॉलेज में हम उन्हें कड़क अनुशासन के लिए जानते थे और फुटबॉल के मैदान में एक बेहतर फुटबॉलर के रूप में. हम छात्रों से अक्सर वे अंग्रेजी में ही बात करते थे. उनकी कोशिश होती थी कि हमें भी अन्य भाषाओँ का ज्ञान हो. स्नातक के दिनों तक मैं उनके साहित्यिक व्यक्तित्व से परिचित नहीं था.
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बहुत बाद में बनारस आने के बाद जब मैंने अध्ययन के क्रम में आदिवासी इतिहास और दर्शन के साथ साहित्य खंगालना शुरू किया, तब मुझे एक नाम मिला फादर पीटर पॉल एक्का. शिक्षक वे हमारे पहले से ही थे, लेकिन एक बौद्धिक पुरखा के रूप में उन्हें पाकर न केवल उनकी रचनाओं से आत्मीय जुड़ाव हुआ, बल्कि आनेवाले दिनों में उनसे प्रेरणा और दिशा मिली. पलाश के फूल, जंगल के गीत, सोन पहाड़ी, मौन घाटी (उपन्यास), राजकुमारों के देश में (कहानी संग्रह) इत्यादि रचनाओं ने आजादी के बाद भारत के आदिवासी जीवन के परिवर्तित और संघर्षरत समाजशास्त्र को समझने में अभूतपूर्व मदद की. ‘राजकुमारों के देश में’ कहानी पढ़ते हुए अब भी रूह कांप उठती है.
दुनिया भर में हो रहे विस्थापन के सामाजिक दंश को समझने के मामले में यह कहानी अद्वितीय है. ‘जंगल के गीत’ उपन्यास बिरसा मुंडा के उलगुलान के बाद जारी आदिवासी संघर्ष को उसके विस्तार में कहता है कि कैसे यह उलगुलान मुंडा आदिवासियों से इतर दूसरे आदिवासियों समुदायों में भी उसी तीव्रता और वैचारिकी के साथ प्रकट हुआ. यहां उनकी रचनाओं की समीक्षा संभव नहीं है, लेकिन एक बात जो रेखांकित करने योग्य है, वह यह कि एक ईसाई पुरोहित का जीवन जीते हुए भी उन्होंने अपनी रचनाओं में आदिवासी जीवन दर्शन को उसकी सहजीविता के साथ ही अभिव्यक्त किया. उसके यथार्थ को समग्रता में अभिव्यक्त किया, न कि धार्मिक परछाई में.
दरअसल, यही आदिवासियत है. जो लोग यह आरोप लगाते हैं कि ईसाई आदिवासी अपनी संस्कृति भूल कर विदेशी हो जाते हैं, उन्हें पीटर पॉल एक्का की रचनाओं से होकर गुजरना चाहिए. एक रचनाकार के रूप में एक्का जी मनुष्य होने के अर्थ को, आधुनिक पूंजीवादी दुनिया में उसके संक्रमण को और सांस्कृतिक आवाजाही को सटीक रूप में अभिव्यक्त करते रहे. बाद के दिनों में जब शोध कराने का अवसर मिला, तो उन्हीं की रचनाओं पर शोध कराने की योजना बनी.
हमारे विश्वविद्यालय के शोध छात्र आनंद पटेल ने उनके उपन्यासों पर ‘आदिवासी संवेदना और पीटर पॉल एक्का के उपन्यास’ शीर्षक से डॉ कमलानंद झा के निर्देशन में एमफिल में लघु शोध प्रबंध प्रस्तुत किया. उनकी रचनाओं पर संभवतः यह पहला शोध कार्य था. इस शोध के लिए एक्का जी ने बहुत सहयोग किया और वे बाद के दिनों में आनंद के बहुत करीब रहे. उन्हीं के माध्यम से उन्होंने अपनी रचनाओं को किसी बड़े और अच्छे प्रकाशक से छपवाने की इच्छा जाहिर की, क्योंकि उनकी रचनाएं कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में शामिल हैं और उसके लिए लगातार छात्रों की ओर से मांग बनी रहती थी, जबकि उनके पूर्व प्रकाशक कोई संस्करण छाप नहीं रहे थे और उनका वितरण भी नहीं था. मुझे यह जिम्मा मिला. मैंने कुछ प्रकाशकों और वरिष्ठों से बात की, लेकिन उसका कोई परिणाम नहीं हुआ और अब उनके जीवित रहते हुए यह संभव नहीं हो सका. मेरे लिए यह हमेशा पश्चताप का विषय बन गया है.
वैसे तो वे किसी भी साहित्यिक गोष्ठी और कार्यक्रमों में जाने से बचते थे, लेकिन जब भी होते तो उनके गले में उनका कैमरा हमेशा साथ होता था. वे युवाओं की तरह उत्साहित रहते, तस्वीरें खींचते और तस्वीरें निकाल कर डाक द्वारा संबंधित व्यक्ति को भेज भी देते थे. जब भी उन्हें प्रभात खबर में या अन्य जगहों में मेरे लेख पढ़ने को मिलते, वे तुरंत फोन करते थे और लंबी बात होती थी. वे अक्सर मुझसे कहते कि ‘तुम बहुत तीखी बात कहते हो, डरते नहीं हो, लेकिन हमें चिंता होती है.’
वे विज्ञान के प्रोफेसर थे, मैं हिंदी का छात्र था. कक्षा में कभी उनसे पढ़ने का अवसर नहीं मिला, लेकिन वे मेरे आजीवन शिक्षक रहे. पुरखों की तरह मुझे उन्होंने संघर्ष और सृजन का विचार दिया और यह हम सबके लिए है. वे एक जिंदादिल सहजीवी व्यक्तित्व थे. 12 मार्च, 2018 को हृदयाघात होने से गुवाहाटी एयरपोर्ट पर ही उनका देहांत हो गया. जब से खबर मिली है, मन मौन हो गया है. अभी तो ‘पलाश के फूलने का समय’ है और आप हमें छोड़ के चले गये…! आपके विचारों की ताप हमेशा रहेगी. आपको हूल जोहार ! भावभीनी श्रद्धांजलि !