इसके लिए तसर रेशम उद्योग के बाइ प्रोडक्ट का व्यापक उपयोग करते हुए किसानों की आय में वृद्धि की जा सकती है. तसर रेशम कीटपालन से धागा निर्माण प्रक्रिया के दौरान विभिन्न स्तरों पर सेरिसीन, कोकूनेज, रेशम कीट, प्यूपे, शलभ, प्यूपेरियम, अंडे, तंतु अपशिष्ट आदि काफी मात्रा में एकत्र हो जाते हैं. अगर इनका उपयोग विवेकपूर्ण ढंग से किया जाये, तो तसर रेशम कृषकों, धागादारों व बुनकरों की आय में कई गुना वृद्धि हो सकती है.
कार्यशाला में तकनीकी सत्र की अध्यक्षता दिल्ली विवि के मानद प्रोफेसर एवं पर्यावरणविद प्रो सीआर बाबू ने की. उन्होंने कहा कि तसर उद्योग के माध्यम से हम जीडीपी अभिवृद्धि में महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं. नेशनल केमिकल लेबोरेटरी पुणे के प्रो बाकडगर एवं बीआइटी मेसरा के डॉ अशोक कुमार पटनायक ने अपना शोध प्रस्तुत किया. कार्यक्रम में एनआइटी राउरकेला के डॉ बालार सुब्रमण्यम, अोड़िशा रेशम विभाग के निदेशक एसके बारीक, छत्तीसगढ़ सरकार के रेशम निदेशक डॉ बघेल, तसर रेशम कीट बीज संगठन बिलासपुर के निदेशक डॉ आलोक सहाय ने भी अपने विचार रखे. विशेषज्ञों ने तसर रेशम के बाइ प्रोडक्ट से दवा निर्माण, पूरक खाद्य उद्योग व कॉस्मेटिक निर्माण में व्यापक संभावनाओं पर भी विमर्श किया. मौके पर अहमदाबाद के प्रतीक्षा टेक्सटाइल के प्रबंध निदेशक प्रेम सागर तिवारी, झारखंड प्रतीक्षा ग्रुप के मैनेजर राजीव चौबे, हाइ मीडिया के एम लाहिड़ी, अरविंद टेक्सटाइल के रवि वर्णवाल एवं एसोचैम के शमशाद आलम विशेष रूप से उपस्थित थे. संचालन डॉ जीपी सिंह एवं धन्यवाद ज्ञापन डॉ एएच नकवी ने किया.