“पलायन की पीड़ा : किस्को के मजदूरों की टूटी उम्मीदें और संघर्ष भरा जीवन फोटो प्रदेश से वापस लौटते मजदूर किस्को. किस्को प्रखंड क्षेत्र में पलायन एक गंभीर सामाजिक और आर्थिक समस्या बन चुकी है. रोजगार के अवसरों की कमी, न्यूनतम मजदूरी और सरकारी योजनाओं की असफलता के कारण हर वर्ष हजारों मजदूर काम की तलाश में अपने घरों से दूर महानगरों की ओर पलायन कर जाते हैं. इनमें दिल्ली, मुंबई, गोवा और केरल जैसे राज्यों में ईंट भट्ठों और फैक्ट्रियों में काम करने वाले मजदूर शामिल हैं. खेती का सीजन समाप्त होते ही यह पलायन तेज हो जाता है. धान की कटाई के बाद अधिकांश ग्रामीण मजदूरी के लिए बाहर निकल पड़ते हैं. ग्रामीण क्षेत्र की अर्थव्यवस्था मुख्यतः खेती पर आधारित है. कृषि कार्य के दौरान ये मजदूर घर लौटते हैं और थोड़े समय में तेजी से कृषि कार्य निबटा कर पुनः पलायन करते हैं. कई लोग पूरे परिवार को साथ लेकर निकलते हैं और घरों में ताला लग जाता है. इस कारण न केवल बच्चों की शिक्षा बाधित होती है, बल्कि वृद्ध माता-पिता की देखभाल भी नहीं हो पाती. सरकार द्वारा मनरेगा जैसी योजनाएं संचालित की जा रही हैं, जिनका उद्देश्य गांव में ही 100 दिन का रोजगार उपलब्ध कराना है. परंतु, मजदूरी का समय पर भुगतान न होना, मजदूरी दर का कम होना और भ्रष्टाचार जैसी समस्याओं ने इस योजना को कमजोर कर दिया है. कई मजदूरों को वर्षों तक मजदूरी नहीं मिलती, जिससे वे मजबूरी में पलायन करते हैं. मजदूरों का कहना है कि बाहर काम करने पर उन्हें ₹9,000 से ₹18,000 तक प्रतिमाह वेतन मिलता है, साथ ही कई बार खाने-पीने की सुविधा भी कंपनी द्वारा दी जाती है, जिससे वे पैसे बचा पाते हैं. ठेकेदार भी इस पलायन को बढ़ावा देते हैं. बरसात के मौसम में वे अग्रिम धनराशि देकर मजदूरों को ईंट भट्ठों में काम के लिए ले जाते हैं और अक्टूबर से जून तक उनसे ईंट बनवाते हैं. डटमा, बानपुर, हिसरी, निनी, परहेपाठ और पतरातू जैसे दर्जनों गांवों से हर वर्ष हजारों मजदूर पलायन करते हैं. किस्को प्रखंड क्षेत्र की यह समस्या केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर भी गहरा प्रभाव छोड़ती है. स्थानीय मजदूरों ने बताया कि क्षेत्र में काम मिलता भी है, तो उसका भुगतान समय पर नहीं होता. कम मजदूरी के चलते परिवार का भरण-पोषण कठिन हो जाता है. ऐसे में सरकार की योजनाएं जमीनी स्तर पर असफल प्रतीत होती हैं. यदि मनरेगा को ईमानदारी से लागू किया जाये, मजदूरी का भुगतान समय पर हो और स्थानीय उद्योगों को बढ़ावा मिले, तो पलायन पर प्रभावी नियंत्रण पाया जा सकता है. पलायन को रोकने के लिए जरूरी है कि सरकार जमीनी हकीकत को समझे और योजनाओं को सही ढंग से लागू करे. स्थानीय रोजगार के अवसर बढ़ाए जाएं, मजदूरों को प्रशिक्षण देकर स्वरोजगार की दिशा में प्रेरित किया जाये अन्यथा, यह समस्या केवल बढ़ती ही जायेगी, जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था और सामाजिक ताना-बाना दोनों प्रभावित होंगे. किस्को में पलायन प्रमुख समस्या है. रोजगार के अभाव में प्रति वर्ष हजारों मजदूर पलायन को विवश रहते हैं. ग्रामीण क्षेत्र में काम नहीं मिलने से ग्रामीण पलायन करते हैं. जो खेती बाड़ी के सीजन में वापस लौटते हैं. पुनः खेती समाप्त होते ही भारी संख्या में पलायन कर जाते हैं. क्षेत्र के लोगों का खेती प्रमुख पेशा है. मजदूर वापस लौट तेजी से कृषि कार्य निबटा कर पुनः काम के तलाश में दिल्ली, मुंबई, गोवा, केरल व अन्य स्थानों पर ईट भट्ठों में काम पर चले जाते हैं. कई लोग पूरे परिवार के साथ घर पर ताला लगाकर मजदूरी करने बाहर निकल जाते हैं. वही स्थानीय ईट भट्ठों पर भी कुछ मजदूरों को रोजगार उपलब्ध हो जाता है. सरकार द्वारा प्रखंड क्षेत्र में कई योजनाएं संचालित की गयी है. बावजूद इसके उचित मजदूरी ना मिलने के कारण लोग पलायन को विवश होते हैं. बाहर काम करने के बाद मजदूरों को 9 हजार से लेकर 18 हजार तक महीने दी जाती है.वही समय से अधिक देर तक कार्य कर अधिक पैसा अर्जित करते हैं. कई स्थानों पर खाना पीना भी कंपनी की ओर से दी जाती है.ऐसे में मजदूरी पूरी तरह बच जाती है.प्रखंड क्षेत्र में पलायन की रफ्तार दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है.मजदूरों को मजदूरी का उचित भुगतान नहीं मिलने तथा काम के अभाव में मजदूर पलायन करने को विवश हैं. आर्थिक तंगी मजदूरों के लिए कहर बनकर टूट रही है.जो सरकार के दावे को विफल बतला रही है.मनरेगा में कार्य कर महीनों व वर्षो तक पैसा न मिलना पलायन का प्रमुख कारणों में एक है.पलायान का मामला प्रखंड क्षेत्र में साफ तौर पर देखा जा रहा है.मजदूर काम की तलाश में पलायन कर जाते हैं.धान की खेती को लेकर मजदूर घर आते हैं.धान कटाई के बाद पुनः पलायन कर जाते हैं.प्रकाश महली,भोला महली, सुखिया महली,ड्हरू महली,संकर लोहरा,निर्मल कुजूर, संदीप नगेसिया,सुभम अशुर, विजय नगेसिया, रामजतन नगेसिया,रोशन उरांव व अन्य मजदूरों का कहना है कि यहाँ काम मिलता भी है,तो काम का भुगतान सही समय पर नहीं हो पाने एवं मजदूरी कम मिलने के कारण लोग पलायन कर जाते हैं.कम मजदूरी में परिवार का भरण पोषण करने में मजदूरों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है.प्रखंड क्षेत्र से प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में मजदूर परिवार सहित महानगरों की ओर मजदूरी की तलाश में निकल जाते हैं.उनके घरों में सिर्फ बूढ़े बुजुर्ग रह जाते हैं,या फिर ताला बंद होता है. इसके चलते इनके बच्चों का शिक्षा भी बाधित होती है.वहीं उनके माता पिता की देखभाल के लिए कोई नहीं होता.गांव में रोजगार के अभाव एवं मनरेगा योजना में सही समय से भुगतान नहीं होने एवं कम मजदूरी मिलने के कारण परिवार चलाना मुश्किल हो जाता है.जिसके चलते लोग परिवार सहित मजदूरी की तलाश में अन्य प्रांतों की ओर पलायन करने लगते हैं.जहाँ लोग महानगरों में फैक्ट्री में कार्य करते हैं.जहाँ उन्हें अच्छी आमदनी मिल जाती है.ठेकेदारों द्वारा बरसात के समय में गांव गांव से संपर्क कर मजदूरों को अग्रिम धनराशि दी जाती है.बरसात समाप्त होते ही या ठेकेदारों अपने संसाधनों से मजदूरों को भट्टे ले जाते हैं.और उनसे अक्टूबर से जून तक ईट बनवाए जाते हैं. प्रखंड क्षेत्र के डटमा, बानपुर, हिसरी, निनी, परहेपाठ,पतरातु सहित दर्जनों गांव के हजारों मजदूरो का पलायन होता है.गांव में 100 दिन कार्य दिलाने की योजना भी मजदूरों पर रोक नहीं लगा पा रही है.प्रशासन द्वारा संचालित रोजगार गारंटी अधिनियम लागू होने के बाद भी मनरेगा के तहत मजदूरों को 100 दिन का रोजगार नहीं मिल पा रहा है.मजबूरी में लोग पलायन करते हैं केंद्र सरकार द्वारा मजदूरों को गांव में ही रोजगार उपलब्ध कराने के लिए मनरेगा कानून लागू किया गया है लेकिन यह योजना मजदूरों के पलायन पर अंकुश लगाने में नाकाम साबित हो रही है.
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