झारखंड स्थापना के 18 साल पूरे हो गये. हम युवा झारखंड की कुछ कहानियां लेकर आपके सामने आये हैं. इनके सफर से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि कैसे झारखंड के युवा अलग-अलग क्षेत्रों में अपने लिए स्थान बना रहे हैं. झारखंड स्थापना दिवस पर शुरू हुई सीरीज की यह आठवीं कड़ी है. इस कड़ी में पढ़ें पंचायतनामा के साथी समीर रंजन के कलम से लिखी दिव्यांग मंगरा की कहानी.
दिव्यांग होने के कारण कई लोग लाचार होते हैं, कुछ कर नहीं पाते लेकिन मंगरा यह संदेश देते हैं कि किस्मत की लकीरें हाथों में नहीं आपकी मेहनत के दम पर बनती बिगड़ती हैं. हाथ ना होने के बावजूद भी मंगरा वह सबकुछ कर सकते हैं जो सामान्य लोग नहीं कर सकते. मंगरा खेतों में कुदाल चलाते हैं, बाइक राइड करते हैं, कार चलाते हैं और यहां तक की अपने खेत की जुताई भी ट्रैक्टर से खुद करते हैं. पढ़ें झारखंड के हौसले को चारगुणा करने वाले मंगरा की कहानी
खूंटी जिला अंतर्गत दियांकेल पंचायत के पतराउपुर में बड़े आराम से खेतों में कुदाल चलाते और धान की रोपाई करते दिखेंगे मंगरा भेंगरा. दोनों हाथों से दिव्यांग होने के बाद भी दिव्यांगता उनकी राह में रोड़ा नहीं बनती. यही कारण है कि मंगरा गांव की सड़कों पर बाइक, ट्रैक्टर समेत चार पहिया वाहन सरपट दौड़ाते हैं. अपनी पत्नी और चार बच्चों के साथ खुशहाल जिंदगी जीने वाले मंगरा ने अपनी दिव्यांगता को कभी अपनी कमजोरी नहीं माना. मंगरा अपना हर काम खुद से करते हैं. कीचड़ भरे खेत में बारिश के मौसम में ट्रैक्टर चलाना आसान काम नहीं होता है, लेकिन मंगरा आराम से ट्रैक्टर चलाकर खेतों की जुताई करते हैं. यह साबित करता है कि इंसान में हौसला हो, तो वो कभी हार नहीं सकता है.
आठ वर्ष की उम्र में कट गये थे हाथ
छोटी उम्र में बच्चों में समझ की कमी होती है. वर्ष 1978 जब मंगरा की उम्र लगभग सात-आठ साल की रही होगी. उस वक्त उन्होंने बिजली के तार को दोनों हाथों से पकड़ लिया था. इससे वो गंभीर रूप से घायल हो गये थे. इलाज के लिए उन्हें रांची स्थित रिम्स लाया गया था, जहां डॉक्टरों ने घाव फैलने के डर से हाथ काटने की सलाह दी थी. उनके दोनों हाथ कट गये थे. उस वक्त तो मंगरा के सामने अंधेरा छा गया था, लेकिन धीरे-धीरे जब ठीक होते गये, तब मन में आत्मविश्वास आया. किसी तरह खुद से अपना काम करने लगे. बचपन में ही पिताजी की मौत हो गयी थी. मां किसी तरह घर चला रही थीं.
खुद की कमाई से मोटरसाइकिल खरीदी
हाथ कटने के बाद हिम्मत हार चुके मंगरा ने किसी तरह आठवीं तक की पढ़ाई पूरी की. घर की आर्थिक स्थिति को देखते हुए काम करना शुरू किया. ट्रैक्टर में मजदूरी करने लगे. हाथ नहीं होने के बावजूद बेलचा से बालू और मिट्टी ट्रैक्टर में लोड करते थे. काम करते हुए मंगरा ने ट्रैक्टर चलाना सीखा. खुद से ट्रैक्टर चलाने लगे. आर्थिक स्थिति थोड़ी मजबूत हुई, तो अपनी खुद की मोटरसाइकिल खरीद ली.
चार बच्चों वाला भरा-पूरा परिवार
दिव्यांग होने के कारण मंगरा की शादी में थोड़ी दिक्कत आई. सुनीता भेंगरा उनकी जीवन संगिनी बनीं. आज वह हर काम में सहयोग करती हैं. मंगरा के चार बच्चे हैं और सभी प्राइवेट स्कूल में पढ़ाई कर रहे हैं. मंगरा चाहते हैं कि उनके बच्चे अच्छी शिक्षा प्राप्त करें. सुनीता भेंगरा कहती हैं कि उन्हें कभी इस बात की शिकायत नहीं होती है कि उनके पति दिव्यांग हैं.
हार नहीं मानें, रास्ता अपने आप निकल आयेगा : मंगरा भेंगरा
मंगरा भेंगरा कहते हैं कि पिताजी के नहीं होने और दोनों हाथ कट जाने के कारण उन्हें काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा. वह पढ़ना चाहते थे, पर बीच में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ी. लगता था जीवन में कुछ नहीं कर पाऊंगा, लेकिन धीरे-धीरे सब कुछ करने लगे.वह कहते हैं कि जीवन में हमेशा कुछ न कुछ रास्ता निकल ही जाता है. बस हार नहीं माननी चाहिए.