धनबाद: राजेंद्र यादव अपने साहित्यिक व सामाजिक सरोकारों में जनपक्षीय थे. यही कारण है कि नारी या दलित मुक्ति की बात करते वक्त वह फासीवादी प्रवृत्तियों के खिलाफ खड़े दिखते रहे. वे अगर नारी मुक्ति की बातें करते थे तो सांप्रदायिकता पर भी चोट करते थे, चाहे वह बहुसंख्यक हो या अल्पसंख्यक. नयी कहानी की त्रयी के अंतिम कथाकार व ‘हंस’ के संपादक राजेंद्र यादव को रेखांकित करते ये विचार हिंदी कथाकार नारायण सिंह के हैं.
श्री सिंह शनिवार को बीएसएस बालबाड़ी मध्य विद्यालय में जनवादी लेखक संघ की संगोष्ठी को संबोधित कर रहे थे. ‘हिंदी साहित्य में स्त्री, दलित विमर्श एवं राजेंद्र यादव’ विषय पर केंद्रित संगोष्ठी के माध्यम से राजेंद्र यादव को श्रद्धांजलि दी गयी.
‘हंस’ साहित्य की समर्थ पत्रिका बनी तो इसलिए कि उन्होंने इसे साहित्य का दुर्लभ जनतांत्रिक मंच बना दिया. कई अच्छे व चर्चित लेखक को पहली बार उन्होंने ही सार्वजनिक मंच उपलब्ध कराया. वरिष्ठ पत्रकार बनखंडी मिश्र ने कहा कि राजेंद्र यादव, मोहन राकेश व कमलेश्वर की त्रयी ने नयी कहानी के जरिये हिंदी साहित्य को एक नयी दिशा दी. संघ के जिला सचिव अशोक कुमार ने कहा कि दोनों विमर्शो में प्रभुत्वशाली व परंपरावादी विचारधारा को राजेंद्र यादव ने चुनौती दी है.
स्त्री की अस्मिता का संघर्ष उनकी कहानियों का केंद्रीय विषय है. इससे वे भारतीय समाज पर चोट ही नहीं, बल्कि उसकी गतिशीलता को भरपूर रेखांकित करते हैं. कवि-पत्रकार तैयब खान ने कहा कि स्त्री या दलित मुक्ति तभी संभव है, जब पूंजीवादी व सामंतवादी आर्थिक ढांचे को बदला जाये. जिया उर रहमान ने कहा कि उन्होंने यथार्थ के भीतर के यथार्थ को पकड़ने की कोशिश की. समीक्षक व भोजपुरी पत्रिका ‘सूझबूझ’ के संपादक कृपाशंकर ने कहा कि वे जनचेतना के प्रति समर्पित थे. अध्यक्षता करते हुए चर्चित क वि अनवर शमीम ने कहा कि अपनी सक्रियताओं के वैविध्य के कारण राजेंद्र यादव साहित्य ही नहीं हमारे वक्त की एक परिघटना हो गये थे. और इसीलिए वे स्वयं में एक विमर्श हैं. वे बहुआयामी व्यक्तित्व के मालिक थे, जो नये रचनाकारों को प्रोत्साहित करते थे. संगोष्ठी को रूपलाल बेदिया, संजय कुमार, राजकुमार वर्मा, चितरंजन गोप, आरबी सिंह आदि ने भी संबोधित किया.