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आदिवासी समाज में होली जैसा बाहा

धनबाद: आदिवासी समाज होली की जगह बाहा पर्व मनाते हैं. बाहा का अर्थ होता है फूल, क्योंकि फाल्गुन पूर्णिमा के बाद यह पर्व आता है. सखुआ (साल) का पेड़ व फूल आदिवासी समाज सबसे पवित्र व ईश्वर का प्रसाद स्वरूप मानता है. पर्व के बाद समाज के लोग एक-दूसरे को शुद्ध पानी से भींगों कर […]

धनबाद: आदिवासी समाज होली की जगह बाहा पर्व मनाते हैं. बाहा का अर्थ होता है फूल, क्योंकि फाल्गुन पूर्णिमा के बाद यह पर्व आता है. सखुआ (साल) का पेड़ व फूल आदिवासी समाज सबसे पवित्र व ईश्वर का प्रसाद स्वरूप मानता है. पर्व के बाद समाज के लोग एक-दूसरे को शुद्ध पानी से भींगों कर आनंद उठाते हैं. दामोदरपुर सहित जिले के तमाम आदिवासी इलाकों में बाहा की तैयारी जोर-शोर से चल रही है.

जाहेर थान व ग्राम थान में होती है पूजा : दामोदरपुर संताल टोला निवासी अंजय हांसदा कहते हैं कि बाहा से एक दिन पहले जाहेर थान व ग्राम थान की साफ सफाई की जाती है. वहीं समाज के लोग नहाय का रस्म करते हैं. दूसरे दिन जाहेर या ग्राम थान के पास सखुआ (साल) के फूल के साथ मारंग बुरू व जाहेर एका की पूजा की जाती है. इसके बाद नाइकी (पुरोहित) के साथ सभी गीत गाते हुए घरों की ओर लौट जाते हैं. प्रसाद के रूप में खिचड़ी मिलती है. साथ ही विशेष प्रसाद में साल का फूल मिलता है. इसे महिलाएं अपने बालों में लगा लेती हैं और कुछ फूलों को घर में पूजा के स्थान पर रखती हैं. इसके बाद शुद्ध जल से एक दूसरे को भिंगोने का दौर चलता है.

आदिवासियों का रक्षक है साल : बताया जाता है कि साल (सखुआ) का पेड़ व फूल आदिवासियों का रक्षक होता है. प्राकृतिक आपदा सहित पाप, लोभ आदि से यह समाज के लोगों को बचाता है. यही कारण है कि जाहेर थान के पास साल का पेड़ जरूर होता है. जहां साल का पेड़ नहीं होता है, वहां पूजा के समय इसकी टहनियों को काटकर लगा दिया जाता है. आदिवासियों का मानना है कि साल के फूल को घर के बाहर टांगने से भूत-प्रेत का प्रवेश नहीं होता है. बाहा के दिन आदिवासी समाज अपने घरों में कई तरह के पुआ, पकवान बनवाते हैं. जाहेर थान पर मुरगा आदि की बली दी जाती है. सबसे अहम है कि बेटी दामाद को अपने घर बडे प्यार से बुलाते हैं. उनका आदर-सत्कार करते हैं.

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