-हरिवंश-
झारखंड की राजनीति को देश स्तब्ध होकर देख रहा है. यह संकट, संवैधानिक है. राजनीतिक है. नैतिक है. शिबू सोरेन ने 12 जनवरी को इस्तीफा दिया. इसके बाद राज्यपाल, गृह मंत्रालय, केंद्र सरकार और राष्टपति क्या कर रहे हैं? यह सवाल सबसे महत्वपूर्ण हो गया है. झारखंड में आज किसकी सरकार है? यूपीए की केयरटेकर सरकार? यह सरकार खत्म हो चुकी है. झामुमो, राजद, कांग्रेस और निर्दलीयों के अलग-अलग बयान आ चुके हैं.
कांग्रेस के केंद्रीय नेता और झारखंड इंचार्ज अजय माकन फरमा चुके हैं कि 32 विधायकों का जो समर्थन लायेगा, उसे कांग्रेस के नौ विधायक अपना समर्थन देंगे. आज पांच दिन हो गये, किसी ने इस बहुमत के साथ सरकार बनाने का दावा पेश नहीं किया. यह अजीब संकट है. कोई खेमा आज तक सरकार बनाने के लिए सामने नहीं आया, जो सरकार थी, वह नहीं है. विपक्ष सरकार बनाने में रुचि नहीं रखता.
यह असल संवैधानिक संकट है. यह राजनीतिक संकट भी है. लेकिन सबसे बढ़ कर नैतिक और मर्यादा का संकट? ऐसी स्थिति में क्या राज्यपाल, गृह मंत्रालय, केंद्र सरकार या राष्टपति भवन के फर्ज नहीं हैं? झारखंड का यह संकट, देश का संकट है? क्या सरकार बनने तक राज्यपाल प्रतीक्षा करेंगे? भविष्य के लिए वे क्या उदाहरण या आदर्श पेश करेंगे? अगर लालू जी के भारत आगमन (17 जनवरी) तक यह संकट इसी रूप में रहना है, तो यह भी यूपीए को स्पष्ट करना चाहिए. क्योंकि संवैधानिक प्रक्रिया स्थगित नहीं रखी जा सकती?
झारखंड में इस बार राजनीतिक खेल दिलचस्प हो गया है. इसका श्रेय झामुमो को है. झामुमो के मूव (पहल) ने स्पष्ट कर दिया है कि झारखंड की राजनीति का फैसला दिल्ली में नहीं, रांची में हो. राज्यपाल को इस्तीफा देने के बाद, राजभवन (झारखंड) में ही शिबू सोरेन ने कहा, इस बार हम दिल्ली नहीं जायेंगे. पहली बार झामुमो अपनी टेक या मांग पर अड़ा है. इससे सारा राजनीतिक खेल गड़बड़ा गया है. सोमवार को ही शाम में हुई यूपीए की बैठक में भी शिबू सोरेन ने स्पष्ट कर दिया था, हमारे प्रत्याशी चंपई सोरेन ही हैं, इस पर कोई समझौता नहीं होगा.
इसके बाद अस्वस्थ हो गये. अब दिल्ली में जो भी कवायद हो रही है, उसका कोई रिजल्ट नहीं निकल रहा है. अजय माकन, अहमद पटेल (दिल्ली की सूचनाओं पर यकीन करें, तो) से कांग्रेस के प्रदीप बलमुचु मिल रहे हैं, पर हल नहीं निकल रहा. क्योंकि ये सभी महसूस कर रहे हैं कि 17 विधायकों की पार्टी झामुमो को इनवॉल्व (शामिल ) किये बिना, हल संभव नहीं. सोनिया जी, इसमें पार्टी न बनना चाहती हैं, न हो सकती हैं. लालू जी बाहर हैं.
पहली बार गुरुजी अपने दल की मांग पर टिके हैं, इससे कांग्रेस भी मुसीबत में है, क्योंकि वह राष्ट्रपति शासन नहीं, वैकल्पिक सरकार चाहती है. निर्दलीय भी इस बार अपनी हैसियत समझ गये हैं. वे उछल-उछल कर नहीं कह रहे कि हम यह सरकार बनवा देंगे, वह सरकार बनवा देंगे. इन सबके पीछे एक ही कारण है कि 17 विधायकों की पार्टी, झामुमो अपनी ताकत-महत्व समझ गयी है. हालांकि अब बाजार में कंप्रोमाइज (समझौता) फार्मूला में नलिन सोरेन, स्टीफन मरांडी के नाम भी उछल रहे हैं. मधु कोड़ा, पहले से प्रबल दावेदार हैं. झामुमो अड़ा रहा, तो अंतत: उसका प्रत्याशी ही मान्य होगा. राष्टपति शासन की संभावना, तभी होगी, जब कांग्रेस इच्छुक हो. दिल्ली की सूचना है कि कांग्रेस राष्टपति शासन नहीं चाहती.
शिबू सोरेन के इस्तीफे से एक चैप्टर खत्म हुआ. फिर गद्दी की लड़ाई शुरू हुई. शह और मात का खेल. नये-नये दावंपेच. यह लड़ाई नर्व की है. विट्स (समझ) की है. धैर्य की है. सत्ता दरबार में षडयंत्र से भी यह लड़ेगी जायेगी. इसमें राजनीतिक दलालों की भूमिका भी होगी. फाइनल राउंड के इस अध्याय में चार रास्ते हैं. पहला, चंपई सोरेन का अगला मुख्यमंत्री बनना या झामुमो के नलिन सोरेन या किसी अन्य झामुमो प्रत्याशी का उदय. दूसरा, मधु कोड़ा की पुनर्वापसी. तीसरा, समझौते के तहत कोई नया नाम. मसलन स्टीफन मरांडी. चौथा, राष्टपति शासन.
पहले समीकरण की परख. झामुमो के पास झारखंड में 17 विधायक हैं. यूपीए घटक में अन्य दलों के पास इस संख्या के आधे से भी कम विधायक हैं. झामुमो के पास पांच सांसद भी हैं. इस तरह झारखंड के मुख्यमंत्री पद पर उसका नेचुरल क्लेम है. पर दिल्ली में बैठे सत्ता के बड़े खिलाड़ी मानते और समझते हैं कि झामुमो मैनेजेबुल है. इसका कारण उसका अतीत है. नरसिंह राव कार्यकाल में कांग्रेस को मिला उसका समर्थन, उसे दागदार बना गया. इसके पहले भी अविभाजित बिहार में राज्यसभा चुनाव के दौरान उसके विधायकों की भूमिकाएं देश में चर्चा का विषय रहीं.
इसी कारण दिल्ली में बैठे खुर्राट नेता समझते हैं कि झामुमो को मैनेज करना आसान है. दिल्ली में बैठे कुछ लोग, जिनका झारखंड में राजनीतिक इंटरेस्ट (हित) नहीं है, वे सिर्फ इकनॉमिक इंटरेस्ट (आर्थिक हित) से झारखंड को देखते हैं. उनकी कोशिश है, ऐसा मुख्यमंत्री बैठाना, जो उनकी सेवा करे. उस मुख्यमंत्री के कामों से जो राजनीतिक नफा-नुकसान होगा, उससे उनका सरोकार नहीं है. यह कीमत तो झारखंड की बात करनेवाले दल चुकायेंगे. इस तरह झारखंड की कीमत पर दिल्ली राजनीति करेगी. पर लगता है अब झामुमो बदल गया है. दिल्ली का खेल समझ गया है.
जैसे राजद का गढ़ बिहार है या कांग्रेस का दिल्ली, उसी प्रकार झामुमो का गढ़ झारखंड है. राजद ने बिहार में हमेशा कांग्रेस को अपनी शता पर नचाया. घुटने पर झुकाया. पर अपना गढ़ बिहार अपनी शर्तों पर चलाया. यह सही भी है. राजनीति का बुनियादी सच है कि जो जहां मजबूत है, वहां वह झुक कर समझौता नहीं कर सकता. अपना इंटरेस्ट कुर्बान नहीं कर सकता. झामुमो यह समझने लगा है. कोड़ा प्रयोग (जहां एक निर्दल के नेतृत्व में सबसे बड़ी पार्टी झामुमो को रहना पड़ा.) के बाद झामुमो की समझ में आ गया है कि झारखंड में सत्ता उसके बल चलती है, पर लाभ कमाते हैं दूसरे. पर सत्ता के कुकर्मों की कीमत चुकाते हैं, स्थानीय दल. इसलिए झामुमो चंपई सोरेन के नाम से पीछे हटने को तैयार नहीं. अब कोशिश होगी कि सौदेबाजी में झामुमो को झुकाया जाये. गुरुजी के परिवार के सदस्यों को डिप्टी सीएम या अन्य महत्वपूर्ण विभाग ऑफर किये जायें. साम, दाम, दंड, भेद से झामुमो को झुकाने और दिल्ली दरबार की बात मनवाने की कोशिश होगी.
अगर इस जाल में झामुमो फंसा, तो वह अपनी जड़ खोद लेगा. तमाड़ उपचुनाव में हार के बाद शिबू सोरेन ने इस्तीफा देने में विलंब किया. इससे उन्होंने लोगों में अपनी साख घटायी. पर अगर वह किसी गैर झामुमो नाम मुख्यमंत्री पद के लिए सौदेबाजी के तहत सहमत हो गये, तो वह अपने संगठन को बिखरने के रास्ते पर डाल देंगे. झामुमो के अंदर बिखराव होगा. वह पस्त और झुकनेवाले संगठन के रूप में जाना जायेगा. कार्यकर्ता हतोत्साहित होंगे. इसके पहले झामुमो ने दिल्ली में नरसिंह राव को समर्थन दिया या पटना (अविभाजित बिहार) में हुए राज्यसभा चुनावों में उसके विधायकों पर कई तरह के आरोप लगे.
यह सब दिल्ली और पटना में हुआ. अब झारखंड की धरती पर झामुमो अगर किसी सौदेबाजी का शिकार हुआ, तो वह अपने दागदार अतीत को लोगों को पुन: स्मरण करायेगा. इस तरह वह झारखंड में अलोकप्रिय और समझौतापरस्त संगठन के रूप में जाना जायेगा. शिबू सोरेन या झामुमो विधायक इस खतरे से जरूर वाकिफ होंगे. पर अगर शिबू सोरेन अंतत: डटे रहे, तो क्या होगा? उनके दल को पटाने की हरसंभव कोशिश होगी. उनके दल में फूट की खबरें भी प्रचारित होंगी. ठीक वैसे ही जैसे मधु कोड़ा को हटाने के समय पूरे देश में कोड़ा समर्थकों ने खबर फैलायी कि झामुमो में फूट है. इस तरह की सभी कोशिशें होंगी. अगर इन सब कोशिशों से बेफिक्र शिबू सोरेन अपनी मांग पर अंत तक डटे रहते हैं, तो आसार यही है कि सरकार झामुमो की बनेगी. इसके कारण साफ हैं. आगे लोकसभा चुनाव है. कांग्रेस अपने बूते यह चुनाव नहीं लड़ना चाहती. उसे शिबू सोरेन और झामुमो का साथ चाहिए ही. और यह साथ सिर्फ चुनाव भर का नहीं है. कांग्रेस जानती है कि चुनावों के बाद भी केंद्र सरकार के गठन में उसे झामुमो का साथ चाहिए. इसके पहले फरवरी में भी कांग्रेस को झामुमो का साथ लोकसभा में चाहिए. फरवरी के बाद लोकसभा चुनाव होंगे. कांग्रेस को ‘वोट आफ एकाउंट’ पर झामुमो की मदद चाहिए. झामुमो अगर अपनी यह कीमत समझ रहा है, तब वह हर लाभ, लोभ और भय से परे रह कर अपने ही प्रत्याशी के नाम पर टिका रहेगा.
अगर चंपई सोरेन नहीं बने, तो कोशिश होगी कि मधु कोड़ा की पुनर्वापसी हो. झामुमो को खुश कर लिया जाये या पटा लिया जाये. मधु कोड़ा को मुख्यमंत्री बनाने में राज्य के निर्दल मंत्री सबसे आगे रहेंगे. कारण? मधु कोड़ा ने हर मंत्री को मुख्यमंत्री बना दिया था. अपने-अपने विभागों के स्वायत्त राजा थे मंत्री. अपने-अपने जागीर (मंत्रालय), लूट, खसोट, अव्यवस्था और अराजकता का लाइसेंस उन्हें मिला था. नहीं तो मंत्रियों के पास इतनी संपत्ति कहां से आयी? मंत्रालय असंवैधानिक कामों के अड्डे बन गये थे. टांसफर उद्योग से बिसुखी गाय भी दूही जा रही थी. किसी एक मंत्रालय की सीबीआई जांच हो जाये, तो कलई खुल जायेगी. अब इन निर्दल मंत्रियों को लग रहा है कि पुन: स्वर्ग राज वापस आनेवाला है. इस तरह सारे निर्दल मंत्री अब इस बात के लिए डटेंगे कि कैसे मधु कोड़ा की ताजपोशी हो. क्योंकि इसी में उनका इंटरेस्ट है. पर अनेक महत्वपूर्ण कारण हैं, जो कोड़ा की पुनर्वापसी के खिलाफ हैं. सबसे बड़ा कारण तो क्या एक निर्दल के नेतृत्व में पुन: सत्ता की वापसी? दिल्ली से रांची तक उभरी दलालों का बड़ा वर्ग भी ऐसा ही शासन चाहेगा. पर इन लोकसभा चुनावों के वक्त क्या कांग्रेस इस अलोकप्रियता के लिए तैयार है?
तीसरा रास्ता है, राष्ट्रपति शासन का. अगर अंत तक गतिरोध कायम रहा, तो संभव है राष्ट्रपति शासन लगे. झारखंड की जनता के हित में है, राष्ट्रपति शासन. पर कोई राजनीतिक दल (विपक्ष समेत) नहीं चाहता कि राष्ट्रपति शासन लगे. एक विपक्षी का कहना था कि हर विधायक को हर साल विकास के लिए तीन करोड़ मिल रहे हैं. सत्ता में बैठे लोग हजारों करोड़ का वारा-न्यारा कर रहे हैं. ऐसी स्थिति में भला कौन राष्ट्रपति शासन चाहेगा? इस व्यक्ति का यह भी तर्क था कि अगर शिबू सोरेन अंत तक डटे रहे, तो राष्ट्रपति शासन के आसार देख कर सारे निर्दल अंतत: झामुमो की शरण में ही आयेंगे, क्योंकि निर्दल किसी कीमत पर सत्ता से बाहर नहीं जाना चाहते. पहले भी निर्दल अपने बयानों और अपनी बदलती भूमिका से अपना रूप, रंग और चेहरा दिखा चुके हैं.
भागते भूत की लंगोटी सही, सिद्धांत के तहत ये फिर बननेवाली सरकार में हिस्सेदार होंगे. इनके पुराने बयान बताते हैं कि कैसे ये बिना पेंदी के लोटा हैं या थाली के बैंगन हैं. शिबू राज में एक फर्क आया था, निर्दलीयों की बोलती बंद थी. हालांकि शिबू सरकार में कुशासन, भ्रष्टाचार और ट्रांसफर उद्योग इसी तरह चलता रहा, जैसे पहले. जेएमएम के लिए यह परीक्षा की घड़ी है. परीक्षा होनी है कि वह झुकेगी या डटेगी. झुकी तो धरती पर ठौर मिलेगा और अपने स्टैंड पर टिकी रही, तो सत्ता मिलने की संभावना है. चुनना झामुमो को है. वह दिल्ली और पटना में वह अतीत में मैनेजेबुल होने की छवि बना चुकी है, उसे रांची में धोने का मौका उसके हाथ है.
झारखंड सरकार गठन की इस कवायद में कौन-कौन शामिल हैं? रांची से दिल्ली तक. सिर्फ राजनेता, राजनीतिक दल या विधायक ही नहीं, बल्कि राजनीतिक दलाल सबसे कारगर और असरदार भूमिका में होंगे. पिछले कई दिनों से इनकी भूमिका साफ दिखाई दे रही है. मीडिया के माध्यम से. कितनी झूठी और आधारहीन खबरें प्लांट और प्रचारित हो रही हैं. इस पर गौर करिए, आप दंग रह जायेंगे. यह सब कौन कर-करा रहा है? यह खेल उस दलाल तबके का है, जो झारखंड की सत्ता पर कब्जा चाहता है. खान-खदान, रोड, विभिन्न विभागों में ठेके वगैरह के काम, जिनमें अरबों-अरबों की राशि है. इस सरकारी राशि को गटक कर डकार न लेनेवाले दलाल, सबसे प्रभावी भूमिका में अब होंगे, क्योंकि उन्हें सत्ता चाहिए, जो उनके दलाली के धंधे को फलने-फूलने और बढ़ने का माहौल और संरक्षण दे सके.
झारखंड का यह राजनीतिक गणित या संभावनाएं जनविरोधी हैं. विकास विरोधी हैं. नया चुनाव ही झारखंड की जनता को पापों की गठरी बनी राजनीतिक सत्ता से मुक्ति का अवसर दे सकता है.
16-12-2009