-हरिवंश-
सुगी (महुआटांड़) पंचायत का एक गांव). आधी रात का उतरता पहर. लगा कोई दरवाजा खड़का रहा है. उठा. बगल में त्रिदीव दा और कृष्णानंद जी हैं. पहाड़ी गांवों में सुबस से ही भटकने की नींद है. दरवाजों से बाहर आते ही तेज हवा का झोंका, मुंह और हाथ मानों छीलने लगा. आसमान का अक्षत सौंदर्य, अंधेरा, ठंड और सर्द हवा. कुछ भी दिख नहीं रहा था. बस सुनाई दे रहा था. वह धरती, जिस पर हम सो रहे थे, का स्वरूप पिछले दो-तीन दिनों में देखा था, कहीं मन में अटक गया था.
डालटनगंज, गढ़वा के गांवों की स्मृति एक-एक कर उभरने लगती है. वह लोग, वे गांव और उसकी बेचैनी. स्मृति भी एक बंधन है. लगा, क्यों ये चीजें बार-बार उभरती हैं? बेचैन करती हैं? जो हम सबने देखा. क्या लिख कर फिर उसे जीवित किया जा सकता है? अगर जीवित हो भी गयीं, तो कौन सुनेगा? क्या फर्क आयेगा. यह संशय है. और गीता कहती है, ‘संशयात्मा विनश्यति’ पर विनाश की ओर तो हम सब आंख बंद कर दौड़ रहे हैं. डालटनगंज और गढ़वा के पहाड़ी-पिछड़े गांवों के एक-एक इनसान इस भावी विनाश के संकेत हैं.
प्रकृति के संतुलन में यह संभव नहीं है कि कुछ करोड़ लोग दाने-दाने के लिए बरसों से बेचैन रहें और कुछ उनके सवालों-समस्याओं से अनजान भोगवाद बढ़ाते रहें. यह माल्थस का सिद्धांत नहीं, बल्कि पलामू और गढ़वा की समस्याओं से उपजे तथ्य हैं.
अकाल से तबाह पलामू में जल संकट गहरा रहा है. कुएं सूख रहे हैं. जलस्तर तेजी से नीचे चला गया है. अप्रैल-मई में संकट बढ़ेगा. पिछले कई वर्षों से अनावृष्टि की स्थिति है. यह दुष्चक्र है. जंगल कटेंगे, कम होनेवाली वर्षा और कम होगी. जल संकट बढ़ेगा. डालटनगंज और गढ़वा इसी दुष्चक्र की गिरफ्त में हैं. डालटनगंज में शत्रुघ्न जी ने बताया था कि जंगल महकमा ने लकड़ी बेच कर हाल ही में विभाग के आला व्यक्ति को भारी रकम दी है. पैसे की इस भूख से यह प्राकृतिक विपत्ति बढ़ रही है.
सरगुजा से आये प्रताप भाई कहते हैं : डालटनगंज सदर, चैनपुर, मनातू, पांकी, विश्रामपुर (कुछ इलाके), मनिका (कुछ जगहें), लेस्लीगंज में पानी संकट है. बालूमाथ और महुआटांड़ में स्थिति गंभीर है. प्रताप भाई से लगभग छह वर्षों बाद मुलाकात हुई थी. तब वह मिर्जापुर-सोनभद्र (दुधी-चोपन) में भूमि हकदारी मोरचा बना कर संघर्ष चला रहे थे. आक्रामक और जुझारू तेवर में. अब उन्होंने सृजन की चुनौती स्वीकारी है. मिर्जापुर के दक्षिणांचल में 4000 से अधिक चेकडैम बनवाये हैं.
डालटनगंज प्रशासन ने उन्हें मदद के लिए आमंत्रित किया है. उन्होंने सुना कि हम लोग आ रहे हैं, सो मिलने आ गये. पुरानी स्मृतियां उभर आती हैं. मिर्जापुर और सोनभद्र के जंगलों में उनके साथ घूमते हुए, साथी प्रताप भाई और बीरेंद्र का हुंकार सुनते हुए, वह कहते हैं. तत्काल डालटनगंज जिले के सभी कुएं 8-10 फीट गहरे किये जायें, और स्थायी हल की कोशिश हो, तभी इस संकट से निबटा जा सकता है.
प्रताप भाई अपना अनुभव बताते हुए. अचानक खामोश हो जाते हैं. फिर कहते हैं. पांकी में जो देखा, वह दृश्य आंखों के सामने नाच रहा है. सैकड़ों नंग-धड़ंग औरतें, लड़कियां और बच्चे लकड़ी के गट्ठर लेकर कत्तारबद्ध खड़े थे. पर कोई खरीदार नहीं. दिन-दिन भर अवश्य खड़े रहते हैं.
मैं देखता हूं त्रिदीव दा ऐसी चीजें सुन कर बेचैन हो जाते हैं. उठते हैं-बैठते हैं, बार-बार आंखें बंद कर खो जाते हैं. जर्मनी पलट विदेशी कंपनी में इंजीनियर पद ठुकरा कर गरीबों के लिए काम करनेवाले व्यक्ति की पीड़ा मुझे महसूस होती है. आज समाज में त्रिदीव दा जैसे लोगों की संख्या लगभग नगण्य है. मिश्र जी बार-बार राजनीतिक दलों पर उबल पड़ते हैं. सुनते-सुनते मैं भी भटक जाता हूं. आज संसद को राष्ट्रपति जी संबोधित करनेवाले हैं.
भाजपा नये युग के निर्माण का शंखनाद कर रही है. कांग्रेस, जनता दल और दूसरे राजनेता भावी भारत की बातें कहते नहीं थकते. मीडिया में भारत के भविष्य संवारने-बनाने के सवाल पर हर दल, वर्ग संस्थाओं की चिंता रोज जाहिर हो रही है. पर क्यों पलामू-गढ़वा के ऐसे गांवों (देश में ऐसे गांवों की तादाद लाखों में है, जो विभिन्न प्रांतों में हैं) के सवाल न संसद में उठ रहे हैं, न विधानमंडल में और न मीडिया में. क्यों ‘गांधी का अंतिम आदमी’ और समाज का सबसे हाशिये पर रहनेवाला इनसान आज इतना अप्रासंगिक हो गया है? इन गांवों के युवकों-बूढ़ों और महिलाओं के भी सपने हैं या वे संवेदनहीन इनसानों की जमात है? इनके लिए संसद, विधानमंडल, न्यायपालिका, मीडिया की क्या प्रासंगिकता है? देश की मुख्यधारा से ये कटे हैं, या मुख्यधारा इनसे कट कर भारत-इंडिया का फर्क जाहिर करती है. सवाल अनंत हैं, पर देश में इन सवालों के जवाब देनेवाली संस्था कौन-सी बची है? किस गांधी, विनोबा, जेपी, लोहिया से आज इन सवालों पर रोष जाहिर करने और पूछने का हमें हक है?
भविष्य कभी इतनी अंधकारमय, त्रासद और निराशाजनक नहीं लगा. अंधा युग की सबसे प्रिय पंक्ति अचानक कौंधती है.
‘जब कोई भी मनुष्य, अनासक्त हो कर चुनौती देता है, इतिहास को. उस दिन नक्षत्रों की दिशा बदल जाती है. इस डालटनगंज से देश के दो बड़े नेता हुए. भीष्म नारायण सिंह और सुबोधकांत सहाय. राज्य स्तर पर मंत्री भी कई हुए और हैं. पर अपने सिवा कितने लोगों की तकदीर इन्होंने बदली? क्योंकि यह व्यवस्था इतनी असहाय, मानव-विरोधी हो गयी है?
सरगुआ गांव से आगे बढ़े ही थे कि जीप में मामूली गड़बड़ी आ गयी. रामगढ़ में चाय की दुकान पर बहस हो रही थी. लोग बेचैन थे कि चैनपुर ब्लौक के बीडीओ और मुखिया, जवाहर रोजगार योजना के तहत 10-10 फीसदी कमीशन क्यों ले रहे हैं, जबकि स्वीकृति दर है पांच फीसदी. यानी जवाहर रोजगार योजना के तहत डालटनगंज के हर ब्लॉक का कमीशन स्ट्रक्चर है, बीडीओ पांच फीसदी, मुखिया पांच फीसदी, ओवरसियर पांच फीसदी, पंचायत सेवक पांच फीसदी, बड़ा बाबू दो फीसदी और डीआरडीए कार्यालय तीन फीसदी. स्वीकृति राशि का लगभग 30 फीसदी स्वत: बंट जाता है. शेष राशि मदद में मिलती है. राजीव गांधी ने इसे ही मुखर रूप में कहा था कि ऊपर से चलनेवाला एक रुपया, नीचे आते-आते तक सात पैसे रह जाता है.
फर्ज कीजिए कि कुएं के निर्माण के लिए 16000 रुपये मिलते हैं, तो ॠण लेनेवाला गरीब दस्तखत करेगा 16000 पर और पायेगा 11200. फकीटाडीह (भंडरिया प्रखंड) के हरिजन हरूक तुरी को आइआरडीपी के तहत 10000 रुपये ॠण दिये गये. भूमि विकास बैंक की ओर से. पर असल हरूक तुरी को ॠण नहीं मिला. बीच में ही बंदरबांट हो गयी. अब असल हरूक तुरी दर-दर गिड़गिड़ाते घूम रहा है कि वह सब कुछ बेच दे. तब भी 1000 रुपये नहीं पायेगा. 10000 रुपये तो सपना है. सरकारी भ्रष्टाचार पर कोई सवाल नहीं उठता, लोग चिंतित हैं कि तयशुदा कमीशन से अधिक क्यों ले रहे हैं, अधिकारी? इधर भ्रष्टाचार के पर्याय बन चुके भूमि विकास बैंक, ग्रामीण बैंक व अन्य सहकारी संस्थाओं ने तगादा आरंभ कर दिया है. गढ़वा के उपायुक्त ऐसी शिकायतों पर सख्ती से कार्रवाई करते हैं, पर पलामू के अधिकारी इन सवालों के प्रति असहज नहीं हैं.
पानी संकट पर चर्चा करते हुए गोकुल बसंत और साथी अर्जुन ब्योरा देते हैं. आजादी के बाद अब तक बांध, मध्यम सिंचाई, लघु सिंचाई, ‘लिफ्ट एरिगेशेन’ और वृहत सिंचाई परियोजना पर लगभग 14-15 अरब रूपये पलामू में खर्च हो चुके हैं. पर पलामू-गढ़वा प्यासे हैं और खेत-सूखे हैं, क्योंकि अधिकतर योजनाएं अधूरी रह गयीं या कागज पर रहीं, कई करोड़ रुपये खर्च होने के बाद औरंगा प्रोजेक्ट बंद है. कुटकु बांध पर 20 साल से काम हो रहा है. 120 करोड़ लागत खर्च था, अब तक 550 करोड़ खर्च हो चुके हैं. काम अधूरा है. मलय मध्यम सिंचाई पर 350 करोड़ खर्च हुए हैं. अब पता चला वह ‘डिफेक्टिव’ है. पलामू में मात्र 16 हजार एकड़ भूमि है. 1952 से पलामू के लिए जितने बांध, तालाब, कुएं, डैम स्वीकृति हुए. अगर उनका कुल क्षेत्रफल जोड़ दिया जाये, तो पलामू में न घर के लिए जमीन बचेगी और न खेती के लिए स्पष्ट है कि बड़े पैमाने पर सरकारी अधिकारियों-ठेकेदारों-राजनेताओं ने धोखाधड़ी की. एक-एक कुएं पर सरकार के चार-चार विभागों से पैसे लिये गये. और आपस में बांट लिये गये. अरबों रुपये बहाये जाने के बाद भी बड़े बांध-डैम परियोजनाएं अधूरी हैं.
अगर किसी काम पर कोई व्यक्ति खर्च करता है, और वह काम अधूरा रहता है, तो वह भाग-दौड़ करता है. बेचैन होता है. पर देश-राज्य की इस संपत्ति नाश-लूट-से किसे चिंता है? (क्रमश:)