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प्रकृति प्रेम का संदेश देता है सामा-चकेवा

विष्णु सहरसा : सामा-चकेवा की पृष्ठभूमि में कोई पौराणिक कथा नहीं बल्कि सदियों से मौखिक परंपरा से चली आ रही लोक कथा ही है. कहते हैं कि सामा कृष्ण की पुत्री थी. साम्ब जिसे मैथिली में सतभईंया या चकेवा के नाम से जाना जाता है, कृष्ण का पुत्र और श्यामा का भाई था. दोनों भाई-बहन […]

विष्णु
सहरसा : सामा-चकेवा की पृष्ठभूमि में कोई पौराणिक कथा नहीं बल्कि सदियों से मौखिक परंपरा से चली आ रही लोक कथा ही है. कहते हैं कि सामा कृष्ण की पुत्री थी. साम्ब जिसे मैथिली में सतभईंया या चकेवा के नाम से जाना जाता है, कृष्ण का पुत्र और श्यामा का भाई था. दोनों भाई-बहन में बचपन से असीम स्नेह था.
सामा प्रकृति प्रेमी थी. वह अपनी दासी डिहुली के साथ वृंदावन जाकर ऋषियों के बीच खेला करती थी. कृष्ण के एक मंत्री चूरक ने जिसे चुगला भी कहा जाता है. कृष्ण के कान भरने शुरू किये. उसने सामा पर वृंदावन के एक तपस्वी के साथ अवैध संबंध का आरोप लगाया. आक्रोश में आकर कृष्ण ने अपनी पुत्री को पक्षी बन जाने का शाप दे दिया. सामा मनुष्य से पक्षी बन गई और वृंदावन में रहने लगी.
यह देख ऋषि मुनि भी पक्षी बन गये. जब सामा के भाई चकेवा को यह प्रकरण पता चला तो वह कृष्ण को समझने का भी भरसक प्रयास किया. लेकिन कृष्ण नहीं माने तो वह तपस्या पर बैठ गया और कृष्ण को प्रसन्न किया.
गूंज रहे स्वागत व विदाई के गीत: कृष्ण ने वचन दिया कि सामा हर साल कार्तिक के महीने में आठ दिनों के लिए उसके पास आएगी और कार्तिक पूर्णिमा को पुन: लौट जाएगी. कार्तिक में सामा और चकेवा का मिलन हुआ. उसी दिन की याद में आज भी सामा चकेवा का त्योहार मनाया जाता है.
इस आठ दिवसीय त्योहार का प्रकृति एवं पर्यावरण से गहरा संबंध है. क्योंकि इस आयोजन का एक बड़ा उद्देश्य मिथिला क्षेत्र में आने वाले प्रवासी पक्षियों को सुरक्षा और सम्मान देना भी है. इन दिनों दूर दराज से इस क्षेत्र में प्रवासी पक्षियों का आगमन शुरू हो जाता है. यह पक्षी हिमालय या सुदूर उत्तर के देशों, हिमाच्छादित इलाकों से विस्थापित होकर यहां इसलिए आते है कि यहां पर बड़े जलाशय एवं नदियां हैं. इन पक्षियों को शिकारियों के हाथों बचाने के लिए मिथकीय प्रसंग भी गढ़े गये हैं.
चुगला का प्रतीक संभवत: पक्षी के शिकारियों के रूप में है. स्त्रियां तालाबों से मिट्टी लेकर सामा चकेवा बनाती है. जिसे पारंपरिक तौर पर सजाया जाता है. वह स्वागत गीत भी गाती हैं. चुगला का मूंछ जलाकर यह संदेश दिया जाता है कि पक्षियों तुम सुरक्षित हो, अगले वर्ष फिर आना. इन दिनों कोशी के ग्रामीण क्षेत्रों में स्वागत और विदाई के गीत गुंजायमान हैं.

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