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बिहार के चुनावी समर में पहली बार आधा दर्जन गठबंधन, बड़े दलों के लिए चुनौती बने छोटे दल

बिहार की राजनीति नयी लकीर पर चल निकली है. विधानसभा चुनाव के मैदान में उतरे आधा दर्जन के करीब 'गठबंधन' राजनीति की दिशा बदलने को आतुर दिख रहे हैं.

अनुज शर्मा, पटना : बिहार की राजनीति नयी लकीर पर चल निकली है. विधानसभा चुनाव के मैदान में उतरे आधा दर्जन के करीब ‘गठबंधन’ राजनीति की दिशा बदलने को आतुर दिख रहे हैं. बिहार ही नहीं संभवत: देश में किसी भी राज्य के विधानसभा चुनाव के रण में इतने मोर्चे पहली बार देखने को मिल रहे हैं. जाति की राजनीति में चेहरे की राजनीति उभर आयी है. दशकों बाद हुए इस बदलाव ने राजनीति को मुद्दों से भटका कर अवसर खोजने की राजनीति में बदल दिया है. छोटे दलों के ये गठबंधन सत्ता तक भले ही नहीं पहुंच पायें, लेकिन बड़े दलों के सत्ता समीकरण को बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं. नये -पुराने सियासी चेहरों की महत्वाकांक्षा का ये गठबंधन कितना सफल हुआ यह 10 नवंबर को इतिहास बनकर दर्ज हो जायेगा.

जाति से ऊपर उठकर जमात की दिशा में बढ़ी बिहार की राजनीति

आजादी के कई सालों बाद जाति से ऊपर उठकर जमात की दिशा में बढ़ी बिहार की राजनीति 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में जाति से भी एक कदम पीछे पहुंच गयी है. एक दल- विचार से निकले नेता अब अपनी-अपनी जाति की पार्टी बनाकर नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले एनडीए और तेजस्वी यादव की अगुआई में महागठबंधन को चुनौती दे रहे हैं. क्षेत्र विशेष अथवा एक-दो विधानसभा क्षेत्रों में प्रभाव रखने वाले ये क्षेत्रीय दल – छोटी पार्टियों ने एनडीए और महागठबंधन के नेतृत्व को अस्वीकार कर दिया है. अपनी जमीन तैयार करने को नया मोर्चा बना लिया है. इनकी संख्या करीब आधा दर्जन हो गयी है. अभी आने वाले दिनोें में दो-एक और गठबंधन सामने आ सकते हैं.

इतने मोर्चे कभी नहीं बने

राजनीतिक विश्लेषक सुरेंद्र किशोर का कहना है कि राज्य में शायद इतने मोर्चे कभी नहीं बने. यह पहली बार हो रहा है कि छोटे दल मिलकर बड़े दलों को चुनौती देने की कोशिश कर रहे हैं. फिर भी ये चुनाव को त्रिकोणीय या चतुष्कोणीय नहीं बना रहे. हाशिये पर गये लोगों के दल हैं. कुछ वोट काटने से आगे नहीं जा पायेंगे.

संजीवनी के लिए एक हुए उपेंद्र – मायावती

यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती बिहार के दलित वोटरों के सहारे खुद को राष्ट्रीय चेहरा स्थापित करने की कोशिश में हैं. सभी 243 विधानसभा सीटों पर कुशवाहा वोटर लगभग हर हिस्से में हैं, लेकिन उनका बिखराव है. बसपा और आरएलएसपी इनको वोटों को बांधने में सफल हुए तो उनके लिए संजीवनी साबित होगी.

एमवाइ को साधने चला यूडीएसए

असदुद्दीन ओवैसी ने अपनी पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआइएमआइएम )का पूर्व केंद्रीय मंत्री देवेंद्र प्रसाद यादव की समाजवादी जनता दल के साथ गठबंधन किया है. इस यूनाइटेड डेमोक्रेटिक सेक्युलर एलायंस (यूडीएसए) नाम दिया गया है. दोनों दल मिलकर राजद के मुसलमान और यादव वोट बैंक में सेंधमारी की सियासत कर रहे हैं. सीमांचल के करीब दो दर्जन सीटों पर मुसलमानों की संख्या 40 फीसदी से अधिक है.

पीडीए का फाॅर्मूला दलित-मुस्लिम-यादव वोट

दलित-मुस्लिम-यादव वोटों में सेंधमारी को प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक अलायंस (पीडीए) का गठन किया गया है. जन अधिकार पार्टी के मुखिया पप्पू यादव इसका नेतृत्व कर रहे हैं. दलित नेता चंद्रशेखर आजाद की पार्टी बीएमपी और सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (एसडीपीआइ) घटक दल हैं. 2015 में केवल डेढ़ फीसदी वोट लाले वाली पप्पू यादव को पूर्णिया -मधेपुरा और उससे सटे क्षेत्रों से बड़ी आस है.

ताल ठोंकने में यूडीए भी पीछे नहीं

पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा के संयोजन में यूनाइटेड डेमोक्रेटिक एएलायंस (यूडीए) का गठन हुआ है. दस सितंबर को समस्तीपुर में यूडीए के नेताओं ने सभा की थी. पूर्व केंद्रीय मंत्री नागमणि, देवेंद्र यादव, पूर्व सांसाद अरुण कुमार और बिहार की पूर्व मंत्री रेणु कुशवाहा भी थे. 243 सीटों पर चुनाव लड़ने का एलान हुआ था. यूडीए करीब 16 दलों का गठबंधन है.

दलितों में जाति अंदर चेहरे की राजनीति

दलितों का अगुआ बनने के लिए दलित नेताओं में ऐसी होड़ मची है कि एनडीए- महागठबंधन तक प्रभावित हो रहे हैं. बड़ी पार्टी में दलित चेहरा के रूप में उभरे नेता अब दलितों के रहनुमा बन रहे हैं. जीतन राम मांझी ने हम, रामविलास पासवान ने लोजपा तो श्याम रजक ने राजद फिर जदूय और फिर राजद का दामन पकड़ा हुआ है. हम- लोजपा में तो शीतयुद्ध चल रहा है.

posted by ashish jha

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