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प्रदेश में हर साल सामने आ रहे हैं 500 क्लबफुट मरीज

जागरूकता. क्लबफुट मैनेजमेंट की विधियों पर सेमिनार पटना : आंकड़े थोड़े डरावने हैं, लेकिन हैं सच. बिहार में अभी भी हर साल लगभग 500 मरीज क्लबफुट के सामने आते हैं. इसमें तो 200 केवल पटना मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल यानी पीएमसीएच के क्लबफुट क्लिनिक में भरती होते हैं. ढाई साल से लेकर 14 साल तक के […]

जागरूकता. क्लबफुट मैनेजमेंट की विधियों पर सेमिनार
पटना : आंकड़े थोड़े डरावने हैं, लेकिन हैं सच. बिहार में अभी भी हर साल लगभग 500 मरीज क्लबफुट के सामने आते हैं. इसमें तो 200 केवल पटना मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल यानी पीएमसीएच के क्लबफुट क्लिनिक में भरती होते हैं. ढाई साल से लेकर 14 साल तक के वैसे मरीज, जिनके पैर मुड़े हैं, उनका यहां फ्री ऑफ काॅस्ट इलाज किया जाता है. सभी खर्चे यहीं पर वहन किये जाते हैं.
ये बातें क्योर क्लबफुट बिहार के रीजनल मेडिकल डायरेक्टर डॉ अजय कुमार मानव ने कहीं. वे पीएमसीएच के आॅर्थोपेडिक डिपार्टमेंट के सेमिनार हॉल में आयोजित क्लबफुट रिफ्रेशर ट्रेनिंग में क्लबफुट मैनेजमेंट की विधियों पर आयोजित सेमिनार में बोल रहे थे. कार्यक्रम में कई विशेषज्ञों ने नयी तकनीक के बारे में प्रेजेंटेशन देकर समझाया. मौके पर डॉ आरएन सुमन, डॉ चंद्र किशोर सहित हड्डी विभाग के प्रमुख चिकित्सक और विद्यार्थी भी उपस्थित थे.
99.9 प्रतिशत केस में होता है इलाज : डॉ मानव ने बताया कि लगभग 99.9 प्रतिशत केस इडियोपैथिक होते हैं. इसमें सिंड्रोमिक केस भी सामने आते हैं, जिनकी संख्या कम होती है.
इलाज का कोर्स ढाई महीने का होता है, जो केस के मुताबिक बदलता रहता है. अभी 14 वर्ष के 150 मरीज भी हमारे यहां इलाजरत हैं, जिनका सक्सेसफुल तरीके से ऑपरेशन हुआ है. उन्होंने ट्रेनिंग के लिए आये डाॅक्टरों को बताया कि एक बार जब हमारे पास ऐसी ही विकृति की शिकार एक बच्ची आयी और पूछा कि क्या सर? मैं कभी स्कूल जा सकूंगी? उसका इलाज किया, तो फिर वह अपने पैरों पर खड़ी हो गयी और वो पल भुलाए नहीं भूलता जब उसने बताया कि सर लीजिए मिठाई खाइए, अब मैं भी अपने पैरों से स्कूल जाऊंगी.
क्या है क्लबफुट और इसके इलाज की पद्धति : क्योर क्लबफुट की रंजना रूथ जॉन ने बताया कि क्लबफुट सबसे सामान्य जन्म विकृति है. इस विकृति से प्रभावित बच्चे का पैर अंदर की तरफ और बीच से भी मुड़ा होता है.
इसके इलाज की पद्धति में बच्चे को हर सप्ताह नया प्लास्टर दिया जाता है और विकृति को सुधारा जाता है. यह दौर 4 से 7 सप्ताह का होता है. इसके बाद बच्चे को 3 वर्षों तक विशेष जूता पहनना होता है ताकि पैर पहले की अवस्था में न चला जाये. बिहार में यह प्रोजेक्ट 2011 में शुरू हुआ, स्वास्थ्य विभाग के साथ एमओयू हुआ है. इस कार्यक्रम के पांच वर्ष पूरे हो चुके हैं. यहां करीब 2000 बच्चे पंजीकृत है. क्लबफुट के शारीरिक एवं सामाजिक परिणाम बहुत गंभीर होता है. वर्तमान में करीब 2000 क्लबफुट बच्चे इस कार्यक्रम से पंजीकृत हैं और क्लबफुट इलाज करवा रहे हैं.
पटना. हमारे देश में अन्य स्वास्थ्य चुनौतियों की ही तरह यह भी सच है कि अधिकांश टीबी के रोगी इलाज कराने निजी अस्पतालों में जाते हैं. ऐसा इसलिए होता है कि वहां सुविधाएं आसानी से मिल जाती है और चिकित्सक उन्हें ज्यादा अच्छे से प्रतिक्रिया देते हैं.
लेकिन, प्राइवेट सेक्टरों में बड़े पैमाने पर इलाज की क्वालिटी पर संशय रहता है. इसके अलावे बहुत खर्च करने के बावजूद इसकी कोई गारंटी नहीं होती कि मरीज को मानकों के अनुसार उपचार हासिल होगा. ये बातें भारतीय टीबी कांग्रेस के बिहार सचिव कुंतल कृष्ण ने कहीं. वे पटना टीबी कंट्रोल प्रोजेक्ट का दौरा करने पहुंचे थे. उन्होंने कहा कि हर साल भारत में टीबी के 28 लाख नये मामले सामने आते हैं. गौरतलब है कि दुनिया में सबसे ज्यादा टीबी के रोगी भारत में ही है. तेजी से हो रहे शहरीकरण के कारण टीबी जैसा संक्रामक रोग महामारी का शक्ल अख्तियार कर चुका है.
प्राइवेट प्रैक्टिशनर नहीं देते हैं सरकार को जानकारी : प्राइवेट प्रैक्टिशनर अपने पास आनेवाले टीबी रोगियों की सूचना सरकार के रिवाइज्ड नेशनल ट्यूबर क्लोसिस कंट्रोल प्रोग्राम में दर्ज नहीं कराते हैं.
प्रोग्राम में सालाना स्टेटस रिपोर्ट 2016 के मुताबिक कुल 22 लाख रोगियों में से महज 1.84 लाख रोगियों की ही सूचना प्राइवेट सेक्टरों की ओर से दी गयी. यह हाल तब है, जब 2012 में नीतिगत रूप से सभी टीबी के रोगियों की सूचना देना अनिवार्य किया जा चुका है. जब तक हम देश में टीबी के वास्तविक हालात को नहीं जान लेंगे, तब तक टीबी को नियंत्रित करना या सभी टीबी मरीजों तक स्वास्थ्य सेवाएं सुनिश्चित कराना चुनौती रहेगी.
कुंतल कृष्ण ने बताया कि हाल ही के एक विश्लेषण से पता लगा है कि सार्वजनिक क्षेत्रों में राष्ट्रीय टीबी कार्यक्रम के तहत इलाज करानेवाले प्रत्येक मरीजों पर लगभग 7400 रुपये की लागत आती है. जबकि, इस मॉडल के जरिये सेवाएं देने में (जैसा की पटना में हो रहा है) लागत न केवल बराबर आती है. बल्कि, यह घट कर 6,655 रुपये भी हो सकती है. अगर और अधिक मरीज इस मॉडल के माध्यम से जुड़ेंगे, तो इस लागत को और कम किया जा सकता है.

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