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लोक गीतों को चारदीवारी से बाहर निकाल पाना बड़ी चुनौती थी : शारदा सिन्हा

मथुरा : भोजपुरी, मैथिली, मगही, बज्जिका सहित आधा दर्जन से अधिक बोलियों और भाषाओं के लोकगीतों को लोकप्रिय बनाने वाली गायिका शारदा सिन्हा का कहना है कि लोक संस्कारी गीतों को गांव देहात की चारदीवारी से निकालना उनके लिए एक बड़ी चुनौती थी. बिहार के दरभंगा जिले की मूल निवासी गायिका का कहना है कि […]

मथुरा : भोजपुरी, मैथिली, मगही, बज्जिका सहित आधा दर्जन से अधिक बोलियों और भाषाओं के लोकगीतों को लोकप्रिय बनाने वाली गायिका शारदा सिन्हा का कहना है कि लोक संस्कारी गीतों को गांव देहात की चारदीवारी से निकालना उनके लिए एक बड़ी चुनौती थी.

बिहार के दरभंगा जिले की मूल निवासी गायिका का कहना है कि संस्कार गीतों को आंगन की चारदीवारी से बाहर निकालकर आम जन तक लोकप्रिय बनाना ही उनके चार दशक से भी अधिक लंबे कला-जीवन में प्रमुख ध्येय था. और जब आज छठ पूजा जैसे लोकपर्व पर उनके गाये लोकगीतों को लोग गुनगुनाते हैं तो उनके मन को ऐसा सुकून मिलता है कि जैसे बरसों की तपस्या सफल हो गयी हो.

वह आकाशवाणी द्वारा आयोजित संगीत महाकुंभ के अवसर पर मथुरा-वृंदावन केंद्र द्वारा अमरनाथ शिक्षण संस्थान में आयोजित कार्यक्रम में भोजपुरी लोकगीतों की प्रस्तुति देने पधारी थीं. 65 वर्षीय सिन्हा वर्तमान में समस्तीपुर महाविद्यालय की संगीत विभागाध्यक्ष हैं. वैसे तो उन्होंने बचपन में शास्त्रीय नृत्य की भी विधिवत शिक्षा ली, लेकिन उनके शिक्षाधिकारी पिता ने जब यह महसूस किया कि नृत्य के दौरान गीतों के गाने में वे कुछ ज्यादा सहज नजर आती हैं तो उन्हें गायन की तरफ मोड़ दिया. इस प्रयोग के परिणाम भी बेहद सकारात्मक निकले और वे कुछ ही वर्षों में बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़ तथा मध्य प्रदेश के लोकगीतों का पर्याय बनकर उभरीं.

इसके लिए उन्हें वर्ष 1979 में एचएमवी कंपनी द्वारा दियेगये वर्ष का सर्वोत्तम कलाकार से लेकर 1987 में बिहार गौरव, 1988 में भोजपुरी कोकिला व बिहार रत्न, 1991 में लोक-शास्त्रीय सांगीतिक प्रयोग के लिए पद्मश्री पुरस्कार तक प्रदान किया गया. यह सिलसिला इसके बाद भी बदस्तूर जारी है. शारदा सिन्हा ने क्षेत्रीय लोकगीतों को भाषाई तथा बालीवुड फिल्मों तक पहुंचाने में भी बड़ा योगदान दिया है.

शारदा सिन्हा ने बताया, फिल्मों में भोजपुरी आदि भाषाओं के गीत गाते समय कभी भी सस्ती लोकप्रियता पाने का लोभ नहीं किया और इसीलिए उसके कंटेण्ट से समझौता नहीं किया. फिर चाहे इसके लिए कई ऐसे अवसर खोने पड़े हों, जिनसे बड़े भौतिक लाभ मिलने की पूरी संभावना थी. लोकगीतों की वर्तमान स्थिति पर उन्होंने कहा, लोकगीतों के लिए यह समय संक्रमण काल के समान है. आज लोग सस्ते और सहज उपलब्ध संगीत के चक्कर में फूहड़ गायन को पसंद करने लगे हैं. जो हमारे समाज के लिए बेहद घातक है.

उन्होंने कहा, विशेष तौर पर नयी पीढ़ी को तो यह ज्ञान ही नहीं है कि हमारी संगीत परंपरा कितनी उच्च कोटि की रही है. इसलिए इस महान संगीत परंपरा से उन्हें अवगत कराना भी हमारा ही कर्तव्य है. अन्यथा वे आज के बाजारू संगीत को ही अपना सब कुछ मानते रहेंगे.

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