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जिले में पहले भी होता रहा है मृत्यु भोज व कर्मकांड का विरोध

भदौल गांव में मृत्युभोज व कर्मकांड नहीं करने के निर्णय की बुद्धिजीवियों ने की सराहना मधेपुरा : मधेपुरा के विद्वान डा भूपेंद्र नारायण मधेपुरी ने दो दशक पूर्व यानि 1996 के दिसंबर महीने में अपने पिता के मृत्यु के बाद सामाजिक विरोध व दंश को झेलने की परवाह न करते हुए परंपरावादी कर्मकांडों सहित श्राद्धभोज […]

भदौल गांव में मृत्युभोज व कर्मकांड नहीं करने के निर्णय की बुद्धिजीवियों ने की सराहना

मधेपुरा : मधेपुरा के विद्वान डा भूपेंद्र नारायण मधेपुरी ने दो दशक पूर्व यानि 1996 के दिसंबर महीने में अपने पिता के मृत्यु के बाद सामाजिक विरोध व दंश को झेलने की परवाह न करते हुए परंपरावादी कर्मकांडों सहित श्राद्धभोज व पंडित पुरोहित का सर्वथा परित्याग किया था. उन्होंने अंधविश्वास व रूढ़िग्रस्त व्यवस्था को तिलांजलि दी थी. प्रभात खबर से उन्होंने बताया कि उन्होंने मुखाग्नि देकर माता की चिता को प्रणाम किया व चल दिये विवि परीक्षाओं को संचालित करने अपने कार्यालय कक्ष की ओर. तब डा मधेपुरी बीएनएमयू में परीक्षा नियंत्रक थे.
डा मधेपुरी ने बताया कि पर्यावरण के रक्षार्थ 1991 में भारतीय विज्ञान कांग्रेस द्वारा प्रकाशित अर्थवेद के लिहाज से धर्मसंगत गोइठा विधि का अनुसरण करते हुए अपने पिता का दाह संस्कार किया था. ऐसे क्रियाकलापों से प्रेरित होकर जनवादी लेखक संघ व अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसिएशन मधेपुरा सहित विभिन्न महकमों के ने डा मधेपुरी की सराहना की.

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