मेदनीचौकी: मैदानी संस्कृति से दूर पहाड़ियों और जंगलों के बीच विभिन्न गांवों में सांवले रंग के, नंगे बदन, भोले-भाले चेहरे वाले अनुसूचित जनजाति की करीब आठ हजार आबादी जिले में निवास करती है. इनमें भारत की प्राचीनतम संस्कृति आज भी देखी जा सकती है.
प्रकृति की अधिकतर वस्तुओं को ये आदिवासी अपने अदृश्य देवता द्वारा प्रदत्त वरदान की तरह स्वीकार करते हैं. शायद इसलिए प्रकृति से उनका संबंध बहुत सहज और घनिष्ठ होता है. प्रकृति इनके लिए पिकनिक स्थल नहीं बल्कि जीवन का आधार है. ऐसी स्थिति में बाहरी लोगों द्वारा प्रकृति पर किया गया आक्रमण इन्हें स्वयं पर किया गया आक्रमण मालूम होता है.
महुआ व चावल से बनाते हैं शराब : प्रखंड के जतकुटिया, लठैत, हदहदिया, मनियारा, हनुमान थान, दुग्धम, लठिया, टाली सौतारी, घोघी कोड़ासी, सुअरकोल, खुद्दीवन, लहसोड़वा, कटहरा, बंगाली बांध जैसे बुनियादी सुविधाओं से वंचित गांवों में आदिवासी बसते हैं.
जंगलों से प्राप्त फल-फूल, कंद मूल के अलावा मोटे अनाज, इनका मुख्य भोजन हैं. जबकि शिकार से प्राप्त पशु-पक्षियों के मांस को ये बड़े चाव से खाते हैं. इन्हें चावल को उबाल कर उसके मांड़ में नमक मिला कर पीना विशेष प्रिय है. भात में दूसरे दिन पानी और नमक मिला कर खाना इनका महत्वपूर्ण भोजन है जबकि महुआ इनका प्रिय भोजन हैं. दारू इनके जीवन का अभिन्न अंग है. ये महुआ और चावल से शराब बनाने में सिद्धहस्त होते हैं. प्रतिदिन शाम को पूरे परिवार के साथ बैठ कर शराब पीना इनका दिनचर्या है.
अंधविश्वास व टोटके पर यकीन
अशिक्षा के कारण इनका सहज मन अंधविश्वासी होता है जो पांच रूपों में पाया जाता है. शकुन, अपशकुन, जादू-टोना, झाड़-फूंक, तंत्र-मंत्र व टोटका के आधार पर ये भविष्य की संभावनाओं पर विचार करते हैं. जादू-टोना मुख्यत: स्त्रियों द्वारा सिद्ध की गयी एक साधना मानी जाती है. जो दूसरों के अनिष्ट के लिए प्रयोग किया जाता है. बीमारी के समय झाड़-फूंक द्वारा उपचार किया जाता है. तंत्र-मंत्र की साधना पुरुष करता है जिसका प्रयोग फसल, संतान, मकान आदि की रक्षा के लिए एहतियात के तौर पर किया जाता है. गोदाना गुदवाना इसी तरह के अंधविश्वास का एक अंग है. महिलाएं अपने हाथ-पैर तथा छाती पर काले रंग का गोदना गुदवाती हैं. मान्यता है कि इससे देवता पिता प्रसन्न होते हैं, वहीं दूसरी ओर मृत्यु के बाद स्वर्ग में जाने पर वही उसकी पहचान कराता है.
भिन्न नृत्य-शैली है पहचान
ददिहाल और ननिहाल के परिवारों में विवाह करने की इनकी परंपरा रही है. विभिन्न पर्व-त्योहारों में आदिवासी महिलाएं पुरुषों के साथ मिल कर सामूहिक नृत्य करती है. सही अर्थो में इनमें एक-दूसरे के जीवन में भागीदारी होती है. एक गरीब आदिवासी भी उमंग और उत्साह के साथ अपना त्योहार मनाते हैं. खुशी के अवसर पर शराब पीकर नृत्य करना इनकी खासियत है. नाचना इन्होंने प्रकृति से सीखा है. करमा, सैला, मंडौनी, सजनी, कहरवा तथा सुआ इनके प्रमुख नृत्य है. करमा नृत्य कर्म की प्रेरणा देने वाले कर्मदेव की प्रसन्नता के लिए किया जाता है. सैला बहुत ही सुंदर और तकनीकी युक्त नृत्य है. मंडोनी विवाह नृत्य है. कहरवा खुशी का नृत्य है जिसे विवाह के समय मंडप के नीचे फेरे पड़ने के बाद किया जाता है. सजनी समधी व समधिन द्वारा किया जाने वाला नृत्य ही खेतों में धान की फसल के बाद उमंग और उल्लास की अभिव्यक्ति के लिए महिलाओं द्वारा किये जाने वाला नृत्य सुआ नृत्य कहलाता है.