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थारू समाज में नहीं लिया जाता दहेज

हरनाटांड़ (प चं) : थारू जनजातियों में दहेज जैसी कुप्रथा आज भी अपना पैर नहीं फैला सकी है. यहां स्त्री को बराबरी ही नहीं, बल्कि पुरुष पर वरीयता दी जाती है. यह बात विवाह संस्कार पर भी लागू होती है. लेकिन आज के दौर में दहेज जैसी बुराइयों को नकारने में वह आगे हैं और […]

हरनाटांड़ (प चं) : थारू जनजातियों में दहेज जैसी कुप्रथा आज भी अपना पैर नहीं फैला सकी है. यहां स्त्री को बराबरी ही नहीं, बल्कि पुरुष पर वरीयता दी जाती है. यह बात विवाह संस्कार पर भी लागू होती है. लेकिन आज के दौर में दहेज जैसी बुराइयों को नकारने में वह आगे हैं और इस कुरीति को समाप्त करने के मामले में समाज के लोग बेहद संवेदनशील हैं. सख्त कानून के बाद भी दहेज प्रथा नहीं रुक रही है. दहेज के लिए रिश्ते ठुकरा दिये जाते हैं. गर्भ में ही बेटियां मार दी जाती हैं.

इसके विपरीत थारू समाज में दहेज का प्रचलन ही नहीं है. बेटी के विवाह के लिए पिता को वर पक्ष के यहां जाने की जरूरत नहीं है. वर पक्ष खुद ही रिश्ता लेकर आता है. यह परंपरा जिले के 214 गांवों में कई पीढ़ियों से चली आ रही है.
शादी के लिए जानी जाती है कन्या की राय. परंपरा के अनुसार वर पक्ष कन्या के घर विवाह का प्रस्ताव लेकर जाता है. शादी के लिए कन्या की राय जानी जाती है.
यदि वह शादी के लिए सहमत होती है तो बात आगे बढ़ती है. लड़की पक्ष इस शादी के लिए कुछ शर्तें भी रखता है, जिन्हें वर पक्ष को मानना पड़ता है. देवरिया तरुअनवा पंचायत की महिला मुखिया श्रीमती देवी बताती हैं कि आपसी सहयोग की वजह से दोनों परिवारों के बीच आत्मीयता प्रगाढ़ होती है.
विवाह में बहन-बहनोई की भूमिका महत्वपूर्ण
शादी संपन्न कराने की जिम्मेदारी लड़के और लड़की के पिता की नहीं, बल्कि गजुआ और गजुआइन यानी बहनोई व बहन की होती है. लड़की-लड़का पसंद आने के बाद दोनों पक्ष एक दूसरे को शगुन के तौर पर एक धोती में एक रुपये का सिक्का गांठ बांधकर देते हैं. शादी के दिन वर पक्ष से दुल्हन के लिए एक सेट कपड़ा भेंट स्वरूप दिया जाता है. शादी के दिन बरात निकलने से पहले वर पक्ष बहन-बहनोई के साथ अपने गांव के ब्रह्मस्थान पर पूजा-अर्चना करता है.
रिश्तों में आती है प्रगाढ़ता
थारु कल्याण महासंघ के पदाधिकारी प्रो. शारदा प्रसाद बताते हैं कि हमारी बिरादरी में आज भी न तो दहेज लिया जाता है और ना ही दिया जाता है. शादी का खर्च भी दोनों पक्ष मिलकर उठाते हैं. इसकी वजह बताते हुए वह कहते हैं कि आर्थिक विपन्नता के चलते यह परंपरा आज भी दशकों बाद जारी है. इसके अलावा वह कहते हैं कि बिना दहेज और आपसी सहयोग से होने वाली शादी से दोनों परिवारों के बीच आत्मीयता अधिक प्रगाढ़ होती है.
दहेज लेन-देन पर सख्त पाबंदी
समाज में शादी में उपहार स्वरूप रुपये या दो पहिया एवं चार पहिया वाहन देने पर सख्त पाबंदी है. इसे नहीं मानने वालों का सामाजिक बहिष्कार किया जाता है. थारू कल्याण महासंघ के अध्यक्ष दीपनारायण प्रसाद ने कहा कि दहेज, भ्रूण हत्या व बाल विवाह जैसी कुप्रथा के प्रति थारू समाज बेहद संवेदनशील है. महिलाएं पुरुषों की तरह खेतों में काम करती हैं. घर की जिम्मेदारी भी संभालती हैं. फिर उन्हें पुरुषों से अलग कैसे माना जा सकता है. समाज दहेज के लेनदेन का सख्त विरोध करता है. कानून तोड़ने वालों को सामाजिक दंड दिया जाता है.
भर्रा ही कराते हैं शादी की रस्म
थारू समाज में शादी एवं अन्य मांगलिक कार्यक्रमों की रस्मों को निभाने के लिए किसी ब्राह्माण व पुरोहित को नहीं बुलाया जाता है. इस समाज के कुछ लोगों को ‘भर्रा’ की उपाधि दी गयी है. यह भर्रा ही विवाह, धार्मिक आयोजनों और कर्मकांडों की रस्मों को संपन्न कराते हैं.

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