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धर्मपाल ने की विक्रमशिला की स्थापना

कहलगांव : बंगाल के पाल वंश के शासक बौद्ध धर्म से इतने प्रभावित थे कि आठवीं सदी में बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए स्थायी व्यवस्था कर दी. पाल वंश के संस्थापक व प्रथम शासक गोपाल थे जो बौद्ध अनुयायी थे. नालंदा के समीप उदंतपुर नामक स्थान पर उसने एक बौद्ध महाविहार की स्थापना करायी […]

कहलगांव : बंगाल के पाल वंश के शासक बौद्ध धर्म से इतने प्रभावित थे कि आठवीं सदी में बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए स्थायी व्यवस्था कर दी. पाल वंश के संस्थापक व प्रथम शासक गोपाल थे जो बौद्ध अनुयायी थे. नालंदा के समीप उदंतपुर नामक स्थान पर उसने एक बौद्ध महाविहार की स्थापना करायी थी, जिसने उस समय बौद्ध धर्म की महायान शिक्षा के केंद्र के रूप में काफी ख्याति पायी.

दूर-दूर से शिक्षा ग्रहण करने आते थे छात्र : गोपाल की मृत्यु के बाद उसके पुत्र धर्मपाल ने पाल वंश का शासन संभाला. उसे भी अपने पिता की तरह बौद्ध धर्म से काफी लगााव रहा. उसने तत्कालीन अंग प्रदेश में विक्रमशिला बौद्ध महाविहार तथा बंग प्रदेश में सोमपुरा महाविहार की स्थापना करायी. इनमें विक्रमशिला बौद्ध महाविहार काफी ख्यात हुआ. यहां दूर–दूर के प्रदेशों के छात्र बड़ी संख्या में बौद्ध शिक्षा ग्रहण करने आते थे. छात्रों में एक बड़ा समूह तिब्बत के छात्रों का था.
नालंदा से कम नहीं था महत्व : आठवीं सदी में तैयार इस महाविहार का महत्व नालंदा से किसी भी मायने में कम नहीं था. धर्मपाल ने शिक्षा दान के लिए इसमें 108 ख्याति प्राप्त विद्वानों को नियुक्त किया था, जो धर्म, दर्शन, न्याय, तत्वज्ञान, व्याकरण आदि की शिक्षा देते थे.
धीरे-धीरे तंत्र सांधन का हुआ प्रवेश :
अपने स्थापना काल में बौद्ध धर्म की महायानी शिक्षा के लिए प्रसिद्ध इस महाविहार में धीरे–धीरे तंत्र और साधना का प्रवेश हो गया, जिससे बौद्ध धर्म की एक नयी शाखा का उदय हुआ. उसे तंत्रयान या वज्रयान कहा जाने लगा. यह मूलत: विक्रमशिला की ही उपज थी और विक्रमशिला इसका एकमात्र केंद्र.
अतीश दीपंकर भी थे महाविहार के आचार्य
इस महाविहार के विलक्षण आचार्यों में महान प्रतिभाशाली आचार्य थे अतीश दीपंकर, जिन्होंने तिब्बत के राजा के बुलावे पर वहां जाकर बौद्ध धर्म की डुबती नैया को पार लगाया और वहां लामावाद की स्थापना की. अतीश दीपंकर को तिब्बत में वही स्थान प्राप्त है, जो भारत में गौतम बुद्ध को है. विक्रमशिला विश्वविद्यालय आठवीं सदी से लेकर बरहवीं सदी तक लगभग चार सौ बर्षों तक विश्व में बौद्ध धर्म की शिक्षा का प्रसार करता रहा. सन 1203 में बख्तियार खिलजी के आक्रमण में इस महाविहार का नामोनिशान मिटा दिया. वर्तमान में इस महाविहार के अवशेष कहलगांव के अंतीचक गांव में पटना विश्वविद्यालय के प्रयास से प्रकाश में आया. 1960–69 में पटना विवि द्वारा खुदाई करायी गयी. इसके बाद 1972–82 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा आगे की खुदाई कयी गयी, लेकिन अब तक इसका 30 फीसदी क्षेत्र ही प्रकाश में आया है. शेष हिस्सा के बाहर आने के बाद ही विक्रमशिला का वास्तविक स्वरूप सामने आ पायेगा.

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