आज से गुलजार हो रहा है प्राचीन मंदार – अंग, बंग और संथाल लोक संस्कृति का संगम है मंदार मकर संक्रांति मेला फोटो 13 बांका 22 : आस्था का केंद्र प्राचीन मंदार एवं पापहरणी मनोज उपाध्याय, बांका: युगों का इतिहास अपने भीतर समेटे पौराणिक मंदार गिरी भले ही अब तक पर्यटन और पुरातत्व विभाग की नजरों से ओझल रहा हो, लेकिन अपने आंचल में समेटे पवित्र पापहरणी सरोवर में मकर संक्रांति के अवसर पर आयोजित होने वाले सनातन स्नान पर्व और इसी दिन से माह पर्यंत अंग, बंग और संथाल लोक संस्कृति के संगम मेले के कारण यह पौराणिक पर्वतराज और इसके आसपास का क्षेत्र कुछ ही दिनों के लिए सही, एक बार फिर से गुलजार हो उठा है. अपनी विशिष्ट पौराणिक व ऐतिहासिक पहचान वाले मंदार पर्वत तथा इसके आस -पास का क्षेत्र पुरातन काल से ही सभ्यता की आस्था और आराधना का केंद्र रहा है. सनातन वांग्मय का शायद ही कोई धर्म ग्रंथ हो जिसमें प्राचीन मंदार और इसके अंचल की चर्चा ना हो. धार्मिक आस्था की पराकाष्ठा इस श्रुति मंत्र से भी प्रमाणित होती है. ”चीर चांदनयोर्मध्ये मंदारो नाम पर्वता:, तस्यारोहण मात्रेण नरो नारायणो भवेत्”मंदार के गर्भ तथा इसके आंचल में ऐतिहासिक व सांस्कृतिक महत्व की यत्र – तत्र बिखरी पड़ी धरोहरों तथा प्राचीन मूर्तियों के भग्नावशेषों के साथ – साथ इसे भी बढ़ कर पुराने मंदिरों के ध्वंसावशेष इस बात के प्रमाण है कि यह क्षेत्र हजारों वर्ष पूर्व न सिर्फ मानव सभ्यता बल्कि देवासुरों का संयुक्त सांस्कृतिक केंद्र और कर्म क्षेत्र रहा है. जिला मुख्यालय बांका से महज 18 किलोमीटर दक्षिण पूर्व स्थित मंदार पर्वत सनातनी हिंदुओं और जैन मताबलंबियों के लिए समान रुप से महत्वपूर्ण तीर्थ है. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार अमृत कलश की खोज के प्रयोजन से देवताओं और असुरों ने जब सागर मंथन किया तब इसी मंदार पर्वत को मथनी के रुप में इस्तेमाल किया था. इस पर्वत पर अनगिनत प्राचीन मूर्तियां, ऐतिहासिक गुफाएं तथा शिलालेख है जो इस मान्यता को बल प्रदान करते है. पर्वत के मध्य भाग में चारों तरफ से घिरती हुई एक सफेद चौड़ी पट्टी आज भी कौतुहल पैदा करती है. जिसके बारे में मान्यता है कि यह नागराज की पेटिका के घर्षण से उत्पन्न चिन्ह है. जिन्हें सागर मंथन के दौरान देवासुरों ने मथनी के लिए पाश बनाया था. पौराणिक आख्यानों के अनुसार भगवान विष्णु ने देवताओं और मनुष्यों की रक्षा के लिए मधु नाम दुर्दांत दैत्य का विनाश इसी पर्वत पर किया था. जिससे वे मधुसूदन भी कहलाये. मंदार से कुछ ही दूर स्थित प्राचीन वालिसा नगरी आज बौंसी के रुप में प्रसिद्ध है. यहां भगवान मधुसूदन का एक भव्य मंदिर है. जहां हर वर्ष मकर संक्रांति के दिन महीने भर के लिए एक विराट लोक मेले का आयोजन होता है. मंदार शिखर पर भी एक प्राचीन मंदिर है जहां की पूजा वेदी पर एक जोड़ी प्रस्तर चरण चिन्ह है. जिनके बारे में मान्यता है कि ये भगवान विष्णु के चरण चिन्ह है. हालांकि जैन धर्मावलंबी मानते है कि ये भगवान वासुपूज्य के चरण चिन्ह है. जो उनके बारहवें तीर्थंकर थे. कहा जाता है कि मंदार स्थित प्रस्तर मंदिर करीब एक हजार वर्ष या इससे भी ज्यादा प्राचीन है. अंग्रेज इतिहासकार बुकानन के अनुसार ये पद चिन्ह भगवान विष्णु, लक्ष्मी तथा सरस्वती के है. इस मंदिर तक पहुंचने के लिए पर्वत की चट्टानों को काट कर बनी सीढ़ियां है. इतिहासकारों के अनुसार इन सीढ़ियों का निर्माण मध्य काल में पाल वंश की महारानी कोण देवी ने अपनी किसी महान अभिष्ठ सिद्धि की खुशी में कराया था. पर्वत के नीचे पवित्र पापहरणी सरोवर है. मान्यता है कि इसके जल स्पर्श मात्र से ही मनुष्य तमाम इहलौकिक पापों और शापों से मुक्त होकर बैकुंठ स्थित भगवान विष्णु के शरणागत हो जाता है.
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आज से गुलजार हो रहा है प्राचीन मंदार
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