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जी कृष्णैया की हत्या के बाद बिहार!
हरिवंश गोपालगंज के जिलाधिकारी जी कृष्णैया की हत्या के आईने में, बिहार औरत-मर्द सभी, देश के बाहर बिहार, हास्य-उपहास और व्यंग्य का विषय था, अब वह खौफ, आतंक और जंगली सभ्यता-संस्कृति का नमूना है, क्यों बिहार इस मुकाम पर पहुंच गया कि संभावनाओं से भरे एक युवा अधिकारी की हत्या, मध्यकाल के भयभीत करनेवाले तौर-तरीके […]
हरिवंश
गोपालगंज के जिलाधिकारी जी कृष्णैया की हत्या के आईने में, बिहार औरत-मर्द सभी, देश के बाहर बिहार, हास्य-उपहास और व्यंग्य का विषय था, अब वह खौफ, आतंक और जंगली सभ्यता-संस्कृति का नमूना है, क्यों बिहार इस मुकाम पर पहुंच गया कि संभावनाओं से भरे एक युवा अधिकारी की हत्या, मध्यकाल के भयभीत करनेवाले तौर-तरीके से की गयी? यह कहने की जरूरत नहीं कि मुजफ्फरपुर में हुई हत्याओं से दूर-दूर तक इस युवा और होनहार अधिकारी का ताल्लुक नहीं था, न वह वहां पदस्थापित थे और न ही बिहार की राजनीति में उनकी दिलचस्पी थी.
फिर भी वह मार डाले गये, क्यों? क्योंकि बिहार की राजनीति में अब गोली, बंदूक, खौफनाक हथियार, अधैर्य, अपराध ही समाज का भविष्य तय कर रहे हैं, समाज के तलक्षट, हर दल में शिखर पर हैं, 40 वर्षों पहले राजनीति में वह सफल होता था, जिसमें तप, त्याग, प्रतिभा होती थी. अब राजनीति में कौन चमक रहा है, तो षड्यंत्र, अपराध, झूठ पाखंड और दूसरों की कीमत पर आगे बढ़ने की हैसियत रखता है. देश में बिहार को ही पहला सम्मान मिला 60 के दशक में, राजनीति के अपराधीकरण का, पर तब यह काम छिप कर होता था. 1977 में जनता पार्टी ने साहस के साथ सार्वजनिक रूप से अपराधियों को राजनीति में प्रतिष्ठित किया. 1978 के विधानसभा में लगभग 40 फीसदी आपराधिक पृष्ठभूमि के लोग चुन कर आये. आंदोलन के प्रतिभाशाली, कर्मठ और आदर्शोन्मुख लोग स्वत: छट गये. ठीक उसी तरह, जैसे खराब नोट अच्छे नोटों को चलन से बाहर कर देता है. 1978 में जेपी आंदोलन के आदर्श से प्रेरित युवा विधायक रातोंरात विधायकों के बड़े आवास पर जबरन कब्जा करने लगे. ये वही लोग थे, जिनमें नयी राजनीति की संभावना तलाशी जा रही़ थी.
अगर जेपी आंदोलन न होता, तो बिहार आज की स्थिति में 20-25 वर्षों बाद पहुंचता. क्योंकि तब कांग्रेस राजनीति में अपराधियों को पीछे से ताकत देती थी. 1977 की जनता पार्टी ने अपराधियों को राजनीति के मंच पर जमा दिया. फिर फिसलन का वह दौर 17 वर्षों बाद बिहार को यहां पहुंचा दिया है कि हर दल में अपराधी हैं, 1977 के बाद हर प्रमुख दल में अपराधियों को पालने-पोसने और टिकट देने की होड़ लग गयी. अपराधी अपना दल बनाने-चलाने लगे. निर्दल जीत कर आने लगे. समझदार, सौम्य, पढ़े-लिखे राजनीतिज्ञ हर दल में घुट रहे हैं और अपढ़, हत्यारे, भ्रष्ट और धूर्त समाज का भविष्य तय कर रहे हैं. पिछले 17 वर्षों में अनेक अपराधियों को मरणोपरांत शहीद घोषित किया गया. इन समारोहों में गुजरे सत्रह वर्षों में सरकार से लेकर प्रतिपक्ष के लोग शरीक हुए हैं. अगर बिहार के सभी दलों के नेता इस पाप का प्रायश्चित करना चाहते हैं, तो उन्हें 1977 के बाद अपने-अपने दलों में शामिल अपराधियों की सूची जारी करनी चाहिए. यह बताना चाहिए कि हमारे दल में 1977 से 1994 के बाद फलां-फलां आपराधिक पृष्ठभूमि के व्यक्ति विधायक, सांसद मंत्री, निगमों के अध्यक्ष या महत्वपूर्ण पदों पर रहे हैं. विधानसभाध्यक्ष को 1977 से 1994 के बीच के आपराधिक पृष्ठभूमि वाले दलीय व निर्दलीय विधायकों की सूची जारी करनी चाहिए.
जी कृष्णैय की हत्या से अगर बिहार के राजनेता आहत हैं, तो अन्हें यह करना चाहिए. मृत्यु के बाद श्मशान वैराग्य जनमता हैं, अगर यह वैराग्य स्थायी होता, तो समाज बहुत झंझटों से बच सकता था. फिर भी शोक-वैराग्य की इस घड़ी में अगर हमारे राजनेता यह जान लें कि वे अजर-अमर नहीं हैं. दुनिया में बड़े-बड़े सम्राट आये और चले गये. सम्राटों की वह सूची कितने लोगों को मालूम है? पर जिन लोगों ने भूल स्वीकार कर करुणा, त्याग और उदारता को चुना, वे अमर हो गये. अशोक के त्याग-करुणा का पक्ष ही जीवित हैं. बुद्ध, महावीर और ईसा मसीह कभी विस्मृत नहीं होंगे. गांधी जीवित रहेंगे.
यह सही है कि उस कद के इंसान नहीं हैं, तो क्या रास्ता है? रास्ता है, बिहार में कांग्रेस, भाजपा, समता पार्टी, झामुमो और जनता दल के लोग एक मंच पर आयें. समूह-संगठन एकजुट हों, तो ताकत पैदा होगी. संघेशक्ति यानी संघ में शक्ति होगी. सिर्फ राजनीति में अपराधीकरण के खिलाफ ये दल पहल करते हैं, तो छुटभैये नेताओं और निर्दलीय लोगों-दलों का स्वत: बहिष्कार-तिरस्कार होगा. सही पश्चाताप हमेशा ओज, पौरुष और उदारता देता है. अगर ये दल अपने-अपने घरों की सफाई का सार्वजनिक संकल्प लें, तो एक शुरुआत हो सकती है, बेहतर बिहार की सुंदर संभावनाओं से भरे भविष्य की. हर मौत दुखद होती है. पर कृष्णैया जैसे युवा अधिकारी की मौत से अगर यह सार्वजनिक पश्चाताप पैदा हो, तो बिहार को मरने या जंगली होने से बचाया जा सकता हैं.
एक विकल्प है, युवा और जागरूक अफसर साहसी बनें. खप्तरनार और अल्फांसों की परंपरा में. 3-4 वर्षों पूर्व तत्कालीन स्वास्थ्य आयुक्त को एक सांसद ने पटना सचिवालय में पीटा. ज्योति बसु ने भी मामला उठाया, पर क्या हुआ? अफसरों को बात-बात पर राजनेता जलील करने की कोशिश करते हैं. अनेक घटनाएं हैं. पर अफसरों का स्वाभिमान कहीं सो गया है. उसे जगाने का काम उन्हें ही करना होगा.
शायद यह भी न हो! क्योंकि सुविधाएं, इंसान को कमजोर करती हैं. बिहार के अफसर या बिहार के आइएएस या आइपीएस सुरक्षित, आरामदेह और अधिकार पाये वर्ग के विशिष्ट लोग हैं (अपवादों को छोड़कर). भला सुख-आराम का जीवन छोड़ वे क्यों समाज को बेहतर बनाने का बोझ या जोखिम उठाएंगे? क्यों खुद को संकट में डालेंगे? कृष्णैया की दुखद मौत-स्मृति भी शायद ऐसे लोगों को आगे बढ़ने से रोके. तब फिर क्या होगा? एक दिसंबर को पुलिस मुख्यालय पटना से जारी आंकड़ों के अनुसार बिहार में हर 12 घंटे में सात हत्याएं हो रहीं हैं. हर दो दिन में 13 अपहरण, हर दिन बलात्कार की दो घटनाएं, प्रत्येक दिन सात डकैतियां, हर दिन लूट की आठ घटनाएं, यह सब सरकारी आंकड़े हैं. गैर सरकारी तथ्य तो सिहरन पैदा करते हैं. भागलपुर में हर व्यवसायी को एक लाख फिरौती देने की धमकी, मुंगेर से व्यवसायी भाग रहे हैं, मुजफ्फरपुर में रंगदारों के आतंक से पलायन, पटना में नौ रंगदारों को थाने से ही छुड़ाया गया, रांची में दहशत में जी रहे हैं लोग.
ये सिर्फ एक अखबार के दो दिनों की सुर्खियों में छपी खबरें हैं, यह क्रम बढ़ेगा, क्योंकि गरीबी बढ़ रही है. बेरोजगारी बढ़ रही है. जो राजनीति इन चीजों को पटरी पर ला सकती है, उस राजनीति यानी हर दल में नीचे से पटना-दिल्ली तक अपराधी बढ़ रहे हैं. दलाल छा गये हैं. जो बदलते देश-दुनिया या समाज का ह्यक खह्ण नहीं जानते-समझते, वे राजनीतिक नेता हर दल में सत्तासुख भोग रहें हैं. वे नेता भोगेंगे और हत्याएं बढ़ेंगी. हर दो घंटे की जगह हर मिनट होंगी. बलात्कार बढ़ेंगे, पल-पल होंगे, अपहरण-लूट-डकैती होगी, अंधाधुंध और खुलेआम!
नौ करोड़ की आबादी में तब कौन सुरक्षित होगा? हर दल के नेताओं-अफसरों और अपराधियों को छोड़ कर सब असुरक्षित होंगे. पर यह असुरक्षित आबादी, अगर अपने अकर्म की पीड़ा सहने को तैयार नहीं है, तो बहुत कुछ हो सकता है, मामूली संकल्प से और शेषन के सहयोग से किसी भी दल के आपराधिक पृष्ठभूमि के व्यक्ति को वोट न देने का संकल्प!
न आंदोलन, न संघर्ष और न झंझट, मामूली संकल्प. पर इस संकल्प को स्वर देने के लिए कोई जेपी चाहिए. जेपी न सही आचार्य राममूर्ति हैं. आचार्य राममूर्ति न सही, जेपी आंदोलन के अनेक विरक्त लोग हैं. स्वयंसेवी संगठन हैं. निष्पक्ष ढंग से सोचनेवाले कुछ पुराने चिंतक हैं. कोई पहल करे. पटना में जुटें. उनका एक ही कार्यक्रम हो हर अपराधी पृष्ठभूमि के प्रत्याशी को लोगों से हराने का आवाहन साथ-साथ हर राजनीतिक दल से राजनीति को अपराधियों को अपराधियों से अलग करने की याचना, आनंद मोहनों और पप्पू यादवों से राजनीति को मुक्त कराने का अभियान.
कृष्णैया की स्मृति में अगर यह मामूल लोक संकल्प जगा, तो बिहार की सूरत बदल जाएगी.
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