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आर्थिक तंगी के कारण पूर्व बॉक्‍सर बना सफाई कर्मचारी, उठा रहा कूडा-कचरा

कानपुर : 15 साल की उम्र में अभिनेता धर्मेंद्र की फिल्म मैं इंतकाम लूंगा देखकर मुक्केबाजी रिंग में उतरे कमल कुमार वाल्मीकि ने जिला और प्रदेश स्तर पर कई पदक जीते और उत्तर प्रदेश का नाम रोशन किया. लेकिन एक सफाई कर्मचारी का यह होनहार मुक्केबाज बेटा पैसों की तंगी के कारण आगे नहीं खेल […]

कानपुर : 15 साल की उम्र में अभिनेता धर्मेंद्र की फिल्म मैं इंतकाम लूंगा देखकर मुक्केबाजी रिंग में उतरे कमल कुमार वाल्मीकि ने जिला और प्रदेश स्तर पर कई पदक जीते और उत्तर प्रदेश का नाम रोशन किया. लेकिन एक सफाई कर्मचारी का यह होनहार मुक्केबाज बेटा पैसों की तंगी के कारण आगे नहीं खेल सका और अब यह अपने मुक्केबाजी के कैरियर के सपनों को दफन कर रोजी रोटी के लिये 4200 रुपये प्रति माह पर लोगो के घर कूडा गंदगी उठा रहा है.

केवल 36 साल का कमल अपने बेटों को मुक्केबाज बनाने का सपना देख रहा है. इसी लिये नगर निगम में अस्थायी नौकरी के बाद बाकी समय में रात को रिक्शा चलाता है ताकि वह अधिक से अधिक पैसा कमा सकें और जो खुद बड़ा मुक्केबाज बन कर अपने सपने तो पूरे नही कर सका लेकिन अब वह अपने दो बच्चों को मुक्केबाज बना सके.

पूर्व मुक्केबाज और वर्तमान में सफाई कर्मचारी और पार्ट टाइम रिक्शा चालक कमल वाल्मीकि ने बातचीत में कहा कि बचपन से हम वाल्मीकि समाज की बस्ती में रहते थे जहां बात बात पर मारपीट होती थी तब हमारी उम्र करीब 15 साल थी. पिता सफाई कर्मचारी थे. उस समय अभिनेता धर्मेन्द्र की फिल्म मैं इंतकाम लूंगा आई थी जिसमें वह मुक्केबाज बन कर अपने विरोधियों को ठिकाने लगते थे.

फिल्म देखने के बाद मैने भी बाक्सर बनने की सोची और पिता के लाख विरोध के बाद 1989 में शहर के ग्रीन पार्क में जाकर मुक्केबाजी सीखना शुरु कर दिया. उस समय ग्रीन पार्क में स्पोर्टस अथारिटी आफ इंडिया के मुक्केबाजी के कोच डगलस शेफर्ड थे, उन्होंने मेरे अंदर के जुनून और गुस्से को भांप लिया और मुझे जबदरदस्त ट्रेनिंग दी जिसका परिणाम रहा कि मैं अगले साल लखनऊ में होने वाली राज्यस्तरीय बॉक्सिंग प्रतियोगिता में भाग लेने गया, वहां मैं कोई पदक तो हासिल नही कर सका लेकिन मेरी तारीफ हुई.

कमल ने बताया कि इसके बाद उन्होनें पीछे मुड़कर नही देखा और अपने सफाई कर्मचारी पिता की डांट सुनने के बाद भी हमने डिस्ट्रक्टि लेवल पर तीन गोल्ड मेडल जीते. इसके बाद यूपी राज्या मुक्केबाजी प्रतियोगिता में 1993 में उन्हें ब्रांज (कांस्‍य) मेडल मिला. उनके मुक्केबाजी शिक्षको ने उनसे राष्ट्रीय स्तर पर बॉक्सिंग की कोचिंग लेने की सलाह दी लेकिन पिता जी की कम आमदनी आडे आ गयी उनके पास इतने पैसे नही थे कि वह कोच ले सकें. और आखिरकार वह मजबूर होकर घर में बैठ गये.

वह कहते है कि मुक्केबाजी के जुनून के आगे वह पढ़ नही सके थे इसलिये उन्होंने सफाई कर्मचारी का खानदानी पेशा ही अपनाया. इस लिये अब वे नगर निगम के एक ठेकेदार के अन्तर्गत सफाई, कूडा और गंदगी उठाने का काम करते है. उन्हें ठेकेदार ने 4200 रुपये महीना देने का वायदा किया है. शाम से लेकर रात तक वह रिक्शा चलाते है और 100 से 200 रुपये रोज कमा लेते है.

कमल कहते है कि हमारे मुक्केबाजी के सपने तो दफन हो गये है लेकिन मेरे चार बेटे है जिनमें से दो बडे बेटों सुमित (14) और आदित्य (12) को मैं बॉक्सिंग की ट्रेनिंग दिलवा रहा हूं और इन्हें मुक्केबाज बनाने के लिये मुझे कुछ भी करना पडे उसे मैं करुंगा और अपने बेटो के सपने पूरे करुंगा उससे मेरे दिल को काफी सुकून मिलेंगा.

वह कहते है कि सुना है सरकार गरीब लोगो को रोजगार शुरु करने के लिये लोन देती है अगर उन्हें भी लोन मिल जाता तो वह कोई छोटा मोटा रोजगार कर अपना और अपने परिवार का पेट भर सकते और अपने बेटों को मुक्केबाज बनाकर अपना बरसों पुराना साकार कर लेते.

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