मैं सोचता हूं कि वर्तमान जीवन से ‘संत’ शब्द निकाल दिया जाना चाहिए. यह इतना पवित्र शब्द है कि इसे यूं ही किसी के साथ जोड़ देना उचित नहीं है. मेरे जैसे आदमी के साथ तो और भी नहीं, जो बस एक साधारण-सा सत्यशोधक होने का दावा करता है, जिसे अपनी सीमाओं और अपनी त्रुटियों का एहसास है और जब-जब उससे त्रुटियां हो जाती है, तब-तब बिना हिचक उन्हें स्वीकार कर लेता है. जो निस्संकोच इस बात को मानता है कि वह किसी वैज्ञानिक की भांति, जीवन की कुछ ‘शाश्वत सच्चाइयों’ के बारे में प्रयोग कर रहा है, किंतु वैज्ञानिक होने का दावा भी वह नहीं कर सकता. मुझे संत कहना यदि संभव भी हो, तो अभी उसका समय बहुत दूर है.
मैं किसी भी रूप में खुद को संत अनुभव नहीं करता. लेकिन, अनजाने में हुई भूल-चूकों के बावजूद मैं स्वयं को सत्य का पक्षधर अवश्य अनुभव करता हूं. सत्य और अहिंसा की नीति के अलावा मेरी कोई और नीति नहीं है. मैं अपने देश या अपने धर्म तक के उद्धार के लिए सत्य और अहिंसा की बलि नहीं दूंगा. वैसे, इनकी बलि देकर देश या धर्म का उद्धार किया भी नहीं जा सकता. मैं अपने जीवन में न कोई अंतर्विरोध पाता हूं, न कोई पागलपन. हालांकि, मनीषियों ने धार्मिक व्यक्ति को प्रायः पागल जैसा ही माना है. लेकिन, मेरा विश्वास है कि मैं पागल नहीं हूं, बल्कि सच्चे अर्थों में धार्मिक हूं.
मुझे लगता है कि मैं अहिंसा की अपेक्षा सत्य के आदर्श को ज्यादा अच्छी तरह समझता हूं और मेरा अनुभव मुझे बताता है कि अगर मैंने सत्य पर अपनी पकड़ ढीली कर दी, तो मैं अहिंसा की पहेली को कभी नहीं सुलझा पाऊंगा. दूसरे शब्दों में, सीधे ही अहिंसा का मार्ग अपनाने का साहस शायद मुझ में नहीं है. सत्य और अहिंसा तत्वतः एक ही हैं और संदेह अनिवार्यतः आस्था की कमी या कमजोरी का ही परिणाम होता है.
इसीलिए तो मैं रात-दिन यही प्रार्थना करता हूं कि ‘प्रभु, मुझे आस्था दें’. मैं बचपन से ही सत्य का पक्षधर रहा हूं. यह मेरे लिए बड़ा स्वाभाविक था. मेरी प्रार्थनामय खोज ने ‘ईश्वर सत्य है’ के सामान्य सूत्र के स्थान पर मुझे एक प्रकाशमान सूत्र दिया : ‘सत्य ही ईश्वर है’. यह सूत्र ही मुझे ईश्वर के सामने खड़ा कर देता है.
– महात्मा गांधी