कोई कैसे किसी चीज को पूरा का पूरा, संपूर्णता में देखे? कोई कैसे भय को पूरा का पूरा देखे, ना कि भय को विभिन्न रूप और आकारों में बंटा हुआ? कोई कैसे भय को पूरा का पूरा, संपूर्णता में देखे? कोई कैसे ‘मैं’, ‘अहं’ या ‘स्व’ को पूरा का पूरा, संपूर्णता में देखे? अहं जो विचार से बना है, जो विचार से अलग कर दिया गया है, विचार जो कि खुद टुकड़े-टुकड़े में बंटा हुआ है.
इसलिए विचार ‘मैं’ को गढ़ता है और सोचता है कि ‘मैं’ विचार से कुछ अलग है, स्वतंत्र है. ‘मैं’ सोचता है कि वह ‘विचार’ से अलग है, लेकिन विचार ने ही ‘मैं’ को बनाया होता है. उसकी सारी चिंताओं, डरों, घमंड, आत्मप्रदर्शन, संताप, सुख, पीड़ा, आशाओं सहित इस ‘मैं’, ‘अहं’, ‘स्व’ को विचार ही बनाता है. और फिर ‘मैं’, ‘विचार’ से मुक्ति की बात करता है, वह सोचता है, उसकी अपनी जिंदगी है. जैसे कि कोई माइक जिसे विचार ने ही बनाया है, पर वह विचार से अलग भी है. कोई पर्वत, विचार ने नहीं बनाया है, लेकिन वह विचार से अलग है. ‘मैं’ को ‘विचार’ ही बनाता है और फिर ‘मैं’ कहता है कि ‘मैं विचार से पृथक, मुक्त हूं’. तो अब बतायें कि किसी को भय को पूरा का पूरा कैसे देखना चाहिए? किसी चीज को उसकी पूर्णता में देखने या सुनने के लिए मुक्त होना जरूरी है.
है कि नहीं? पूर्वाग्रहों से मुक्त होना, अपने निष्कर्षों से मुक्त होना, इस बात से मुक्त होना कि आप भय से मुक्त होना चाहते हैं, भय की तर्कसंगत व्याख्या की इच्छा से मुक्त होना. कृपया इस सब को देखें. किसी इच्छा को नियंत्रित करने की इच्छा से मुक्त होना, क्या मन इन सब चीजों से मुक्त हो सकता है? अन्यथा वह कभी भी संपूर्णता को, किसी चीज को पूरा का पूरा नहीं देख सकता. मैं डरा हुआ हूं ‘कल’ के डर से, नौकरी छूट जाने के डर से, असफल होने के डर से, अपना पद-प्रतिष्ठा खो जाने के डर से, या इस डर से कि मेरे सामने चुनौतियां आयेंगी और मैं उनका सामना नहीं कर पाऊंगा. इन सबको बिना ‘किसी विचार’ को बीच में लाये क्या आप देख सकते हैं? विचार की सक्रियता या कोई गतिविधि ही भय का कारण है.
– जे कृष्णमूर्ति